भिक्षुओं को दीक्षा दी जा रही थी। उनके नाम, गोत्र, वेश और स्थान बदले जा रहे थे। अभ्यास के परिवर्तन पर जोर दिया जा रहा था। कारण पूछने पर तथागत ने बताया, साँप जिन दिनों केंचुली से लदा रहता है, उन दिनों न उसे दीखता है और न दौड़ने बनता है। केंचुली उतरते ही यह दोनों कठिनाइयाँ चली जाती है। व्यक्ति का कुसंस्कारी ढर्रा ही उसकी आत्मिक प्रगति में सबसे बड़ा व्यवधान है। इसलिए दीक्षा के रूप में मनःस्थिति परिवर्तन के साथ−साथ परिस्थिति और आदत बदलने के लिए भी कहा जा रहा है।