युग गीता - 40 - न कर्मफल संयोग स्तभावस्तु प्रवर्तते

February 2003

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कर्म-संन्यास-योग नामक गीता के पाँचवें अध्याय की छठी किश्त

विगत अंक में आपने पढ़ा कि साधकों के कर्म ब्रह्म को अर्पित होने चाहिए। योगेश्वर श्रीकृष्ण दसवें श्लोक में कहते हैं, जो ऐसा करता है एवं बिना किसी आसक्ति के (संडडडड त्यक्त्वा) कर्म करता है, वह जल में कमलपत्र की भाँति पाप में लिप्त नहीं होता। अभिमान (अहं) छोड़कर कर्म करना कठिन अवश्य है, पर असंभव नहीं। इस लौकिक दुनिया में, दैनंदिन जीवन में जीते हुए न जाने कितने कषाय−कल्मषों से हमारी आत्मा ढक जाती है, उन्हें हटाने के लिए व पापी रूपी  कीचड़ में पाँव जमाकर कमल की तरह खिलते रहने के लिए ऐसा कर्मयोगी बनना अनिवार्य है। आगे ग्यारहवें श्लोक में वे कहते हैं कि आसक्ति को त्यागकर केवल इंद्रिय, मन, बुद्धि और शरीर से दिव्यकर्मी अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। प्रभु अर्पित कर्मों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इनसे वासनाएँ स्वयं क्षय होती चली जाती हैं एवं स्वतः अंतःकरण की शुद्धि होती चली जाती है। साथ ही अनंत शाँति साधक को उपलब्ध होने लगती है। आसक्ति से मुक्त जीवन हेतु कुछ उदाहरण दिए गए थे। बालगंगाधर तिलक, परमपूज्य गुरुदेव, योगिराज श्री अरविंद, इन तीन के जीवन प्रसंग दिए गए थे। ‘परमार्थ में ही सच्चा स्वार्थ हैं’ के पूज्यवर के उद्धरण के माध्यम से लोकहित परायण जीवन जीने की भावना बताई गई थी। अब आगे चलते हैं।

कर्मयोगी बनाम सकामकर्मी

बारहवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं—

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शाँतिमाक्षोति नैष्ठिकीम्। अयुक्तः कामकारेण फले सक्तों निबध्यते॥ (5/12)

प्रत्येक पंक्ति का अर्थ स्पष्ट है अर्थात् कर्मयोगी (युक्तः) कर्मों के फल का त्याग करके आत्मनिष्ठा से उपजी भगवत् प्राप्तिरूप शाँति को प्राप्त होता है, किंतु सकाम कर्म करने वाला व्यक्ति फल में आसक्ति के कारण बंधनों को प्राप्त होता है।

जो यज्ञभाव से सेवा कर रहा है—इसे प्रभु की पूजा ही मानकर सारे समाज व संसार की देखभाल कर रहा है, पीड़ा−पतन और पराभव से भरे समाज में उसे उठाने का काम कर रहा है, वह श्रीकृष्ण के अनुसार भगवत् प्राप्तिरूप शाँति को प्राप्त होगा। ऐसी शाँति जिससे एहसास हो, मानों साक्षात् परमात्मा मिल गए हों। युक्तः (योगी) कर्मफल त्यागकर (कर्मफलं त्यक्त्वा) कर्म करता है, भविष्य के प्रति कभी असुरक्षा का भाव मन में नहीं रखता। इस भाव से कर्म करते चलने से उसकी वासनाओं का भी क्रमिक क्षय होता चलता है। वह अंदर से तृप्ति−तुष्टि−शाँति की अनुभूति करता है, किंतु वह, जिसके समक्ष कोई आदर्श नहीं, जरा भी समर्पण भाव नहीं (अयुक्तः), वह सदैव अपनी अहं के निन्दित भावनाओं में ही मग्न रहता है। संकीर्ण स्वार्थपरता के कीचड़ में फँसकर वह जीवन को मनावमय, अशांतिमय कर लेता है। वह सदैव भविष्य के लिए चिंतित होता रहता व अंततः बंधनों में लिप्त हो जाता है। (कामकारेण फले सक्तों निबध्यते)। यहाँ सकाम कर्म करने वाले को गीतकार ने अयुक्तः शब्द की संज्ञा देकर उसे कामकारेण एवं फले सक्तों (फल की आसक्ति वाला) शब्दों से जोड़कर बंधनों में, बेड़ियों में जकड़ा बताया है।

दिव्यकर्मियों की रीति−नीति

परमपूज्य गुरुदेव दिव्यकर्मियों के विषय में लिखते हैं, “साधु−ब्राह्मणों के देव−समुदाय से पूछना पड़ेगा कि वे व्यक्तिगत सुविधाओं में कटौती करके सत्प्रवृत्ति−संवर्द्धन की सेवा−साधना के लिए क्यों अपने को समर्पित करते हैं। ऋषियों की परंपरा इतनी कम नहीं थी कि वे विलासियों की तरह साधन−सामग्री उपार्जित नहीं कर सकते थे। फिर क्यों उनने गरीबों जैसा बाना पहना? इसका उत्तर भी उसी समाधान के साथ जुड़ा है, जिसमें खाने की तुलना में खिलाने के जायके को अत्यधिक स्वादिष्ट पाया जाता है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, भामाशाह, माँधाता, अशोक, हर्षवर्धन आदि से पूछा जाना चाहिए कि उनने अपनी संपदा विलास के लिए उत्तराधिकारियों के लिए जकड़कर क्यों नहीं रखी। बुद्ध और गाँधी से पूछा जाना चाहिए कि वे अपने बुद्धिकौशल से वैभव खरीदने की समझदारी में क्यों अछूते रह गए।” (प्रज्ञा अभियान नव0/दिस. 1972) इसी प्रकरण में वे आगे सेवा के विषय में लिखते हैं कि ‘भज’ धातु से बना है—भज सेवायाम्। सेवा किसकी? तो वे कहते हैं, “आदर्शों की। आदर्शों का समुच्चय ही भगवान है। दुःखों का तत्काल संकट निवारण करने के लिए कुछ साधन−सहायता की भी आवश्यकता पड़ती है, पर किसी का स्थायी दुःख मिटाना हो, तो उसे अपने पैरों पर खड़ा करना होगा और इसका एकमात्र आधार आदर्शों के प्रति उसे निष्ठावान बनाना होगा। इस प्रकार दुखी को सुखी और सुखी को सुसंस्कृत बनाने का आत्यंतिक आधार एक ही शेष रहता है, आदर्शों को आत्मसात करना।”

आज तो मनुष्य आस्था−संकट से आक्राँत है एवं इसी कारण भ्राँतियों और विकृतियों के जाल−जंजाल में अधिकाधिक जकड़ता चला जा रहा है। संकीर्ण स्वार्थपरता ही उस पर उन्मादी आवेश की तरह, विषैली, शराब की तरह अपना आधिपत्य जमाती चली जा रही है। ऐसे में बंधनों में फँसकर अशाँति को प्राप्त होना, विक्षुब्ध होकर रोगी बनना स्वाभाविक है। आज उन्हीं की बाढ़ है। प्रत्येक दूरदर्शी−विवेकवान का यही कर्त्तव्य है कि वह लोकमानस के परिष्कार रूपी यज्ञकर्म पर अपना ध्यान केंद्रित करे और उसके लिए जितना भी कुछ बन पड़े, वह प्रस्तुत करे। यही सारा सार इस बारहवें श्लोक से निकलता है। युगऋषि का चिंतन हमें इसी ओर सतत ले जाता है।

नवद्वारे पुरे देही

सभी क्रियाओं को यज्ञभाव से करते चलने से कामनाएँ स्वतः समाप्त होती चली जाती हैं। मन स्वच्छ हो जाता है और ध्यानस्थ शाँति का अनुभव करने लगता है। दिव्य−दृष्टि प्राप्त हो जाती है एवं ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ परमात्मा के चारों ओर दर्शन होने लगते हैं। आगे श्रीकृष्ण कहते हैं—

सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥ (5/13)

जिसका अंतःकरण उसके वश में है, ऐसा संयमी व्यक्ति सब कर्मों में कर्त्ता का भाव त्याग करके नवद्वारों वाले शरीररूपी नगर में न कुछ करते हुए, न कराते हुए आनंदपूर्वक रहता है। उसका मन सदैव सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में ही स्थित रहता है।

कितना सुँदर एवं विज्ञानसम्मत प्रतिपादन है योगेश्वर का। ‘वंशी’ अर्थात् जिसने अपने को संयत कर लिया है, अपने विवेक द्वारा (मनसा) यह अनुभव करने लगता है कि किन्हीं भी कर्मों में उसका कोई कर्त्ताभाव नहीं है (सन्न्यस्य) एवं वह नवद्वारों वाली नगरी में (इस सुरदुर्लभ मनुष्य तन में) सुखपूर्वक रहता है (आस्ते सुखं)

हमारा शरीर एक ‘पुर’ है, एक नगरी है। इसमें शुद्ध अहंभाव प्रासाद रूप में राजमहल की तरह प्रतिष्ठित है। एक मुख, नासिकाओं के दो छिद्र, दो कान, दो नेत्र, एक गुदा और एक मूत्रेंद्रिय, सब मिलकर हर मनुष्य तन में नौ द्वार हैं। ये सभी भली भाँति सुरक्षित हैं एवं अपनी सक्रियता से शरीररूपी इस नगरी को भी सुरक्षित बनाए रखते हैं। रात्रि में सहज रूप में ये द्वार स्वतः बंद हो जाते हैं। इस नगरी में परमपिता परमात्मा न कुछ करते हुए और न कुछ कराते हुए (नैव कुर्वन्न कारयन्) विद्यमान रहता है। उस प्रभु में स्थित ‘वंशी’ विवेकवान साधक का मन सदैव आनंद की अनुभूति कराता रहता है। जो व्यक्ति अंतर्मुखी हो गया, उसने अपने देवालयरूपी शरीर को प्रभु का उपकरण बनाकर अपनी विशृंखलित होती रहने वाली शक्तियों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। फिर वह ध्यान की उस भावातीत स्थिति में पहुँच गया, जहाँ आत्मा के रूप में वह स्वयं ही चैतन्य रूप में विद्यमान है।

महर्षि रमण एवं पूज्यवर

अष्टदल कमल−षट्चक्रों एवं नवद्वारों वाली यह देह परमात्मा की शक्तियों के प्रवाहित होते रहने का एक माध्यम बन जाती है। हम ऐसे में न कुछ करते−न−कराते हुए भी सदैव ध्यानस्थ बने रहते हैं। रमण महर्षि इसका एक आदर्श उदाहरण हैं। तिरुवन्नमलाई की अपनी तपःस्थली में सारा जीवन बिताने वाले तपस्वी रमण महर्षि उन गिने−चुने योगियों में से हैं, जिनके तप ने सूक्ष्म जगत को प्रचंड झंझावातों में अनुप्राणित कर भारत की आजादी का वातावरण बनाया। उनके ब्रह्मतेज ने सारे हिंदुस्तान ही नहीं, विश्वभर को प्रभावित किया। कहीं नहीं गए, कोई प्रवचन नहीं किया, कोई विश्वयात्रा नहीं को, पर बड़े−बड़ वैज्ञानिक उनके समक्ष आते चले गए। हाइजेनबर्ग जैसे वैज्ञानिक और कार्लजुँग जैसे मनोवैज्ञानिक उनके पास आए। मौन उनके तप में सहभागी बन वे पश्चिम के लिए ऐसे महत्त्वपूर्ण सूत्र लेकर गए, जिनके आधार पर आज के दर्शन व मनोविज्ञान की नींव पड़ी। सरदार पटेल को प्रेरणा मिली एवं बाबू राजेंद्रप्रसाद जी को उनने भेजा रमण महर्षि के पास, यह जानने के लिए महर्षि स्वतंत्रता संग्राम हेतु क्या कर रहे हैं। अपने मितभाषिता द्वारा उनने बताया कि तुम अपना काम करो, हम अपना काम कर रहे हैं। हम अपने आप में अपनी नवद्वारों वाली नगरी में बैठे वह सब काम कर रहे हैं, जो तपः पूत वातावरण बनाने हेतु जरूरी है। तपश्चर्या में, मौन में बड़ी शक्ति है। तुम उस कर्मयोग में लगे रहो, हम अपना कर्म करते रहेंगे। (जो दीखने में प्रायः अकर्म ही होता है)। ब्रह्मतेज की प्रभा से दूर−दूर तक का वातावरण प्रभावित होता है। परमपूज्य गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण साधना भी इसी स्तर की थी। उनके एक से डेढ़ वर्ष चार हिमालय प्रवास जिन घड़ियों में हुए, वे संकट भरी थीं, पर उनके सोद्देश्य तप एवं नवद्वारों वाली उनकी देह परमात्मा की अनंत शक्तियों के झरने का माध्यम बन गई। प्रतिकूलताएँ अनुकूलताओं में बदलती चली गई।

ऐसे संत जहाँ कहीं भी होते हैं, उनके उपर्युक्त श्लोक में वर्णित स्वभाव के अनुसार, स्वयं के कर्त्ताभाव के त्याग के कारण उनसे सर्वोत्तम कार्य स्वतः फूट पड़ते हैं। चाहे उनका नाम विवेकानंद हो, दयानंद हो, श्रीअरविंद हो, गाँधी हो या विनोबा हो। यही नहीं, आध्यात्मिक के साथ−साथ वैज्ञानिक राजनीतिक, आर्थिक क्षेत्र में भी सफलताएँ हस्तगत होने लगती हैं। ढेरों साहसिक समाज− सुधार के कार्य होने लगते हैं। कहीं ज्योतिबा फुले जाग उठते हैं, तो कहीं महर्षि कर्वे एवं बाबा साहब आमटे। इस सफलता का आधार है, इन देवालयरूपी देहधारी संतों द्वारा स्वयं को ‘सन्यस्य ’ (कर्त्ताभाव रहित जीवन) की स्थिति में ले आना। आज के आधुनिक विज्ञान की महत्वपूर्ण देनें चेतना के इस विस्फोट के कारण ही हमें हस्तगत हुई हैं। आज यदि ऐसे भाव वाले ढेरों युवक युगनिर्माण का स्वप्न लेकर खड़े हो जाएँ, तो समाज बदलते देर न लगे।

युवाओं का आह्वान

जितना अनुकूल इसके लिए आज वातावरण है, उतना पहले कभी नहीं रहा। अहंकार रहित, स्वार्थ रहित काम करने वाले प्रशिक्षित युवा यदि समाज आज तैयार कर सका, तो विश्व का पुनर्निर्माण संभव है। गीता बार−बार इसी बात पर जोर देती हैं वह कहती हैं कि इसमें बताई जीवनपद्धति को व्यवहार में लाओ, अपनी शक्तियों को विस्तरित करो, अपनी बल−सामर्थ्य बढ़ाओ। समाज के जीवन−मूल्यों में एक नई क्राँति ला दो। अखिल विश्व गायत्री परिवार का इसके संस्थापक की सूक्ष्म−कारणसत्ता के माध्यम से आह्वान है ताकि ऐसा तबका आए और वह बुढ़ाती पीढ़ी को एक सबक सिखाए। युवा मानसिकता एवं सन्न्यस्य भाव के साथ कर्मठता चाहिए, फिर ऐसे चरित्रनिष्ठ क्राँति लाकर ही रहेंगे। श्रीकृष्ण भी युवा अर्जुन को एक प्रकार से उसकी देह में छिपी अनंत सामर्थ्य का परिचय कराके उसे बार−बार झकझोर रहे हैं।’ सर्वकर्माणि सन्न्यस्य’ बार−बार उसी का उद्घोष कर रहा है।

जब गीता बार−बार अहंभाव और उस पर केंद्रित कामनाओं को छोड़कर सेवा−साधना की ओर प्रेरित करती है, तो यह प्रश्न उठता है कि क्या इस उच्च स्तर पर सभी प्राणी पहुँच सकते हैं। जब स्रष्टा ने ‘एकोऽहं बहुस्यामि’ का व्रत लिया, तो उनकी भी कल्पना रही होगी कि जीव अपना सहज कर्म करता रहे एवं सृष्टि को बढ़ाता रहे। किसी के भी मन में परस्पर विरोधाभास की बात आ सकती है। कहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस सृष्टि का संवर्द्धन करो, कहीं संन्यास (तथाकथित आज का प्रपंच भरा) की आलोचना करते हैं एवं बार−बार आसक्ति को त्यागने, सभी कामनाओं को छोड़कर मात्र सेवाधर्म में नियोजित करते हैं। तो फिर क्या मानव को अपना संतानोत्पादन से लेकर महत्त्वाकांक्षाओं द्वारा आगे बढ़ने की कामना का लक्ष्य छोड़ देना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए भगवान हमें अगले श्लोकों की ओर ले जाते हैं। त्रिगुणातीत सृष्टि के क्रीड़ा−कल्लोल की झलक दिखाते हैं। अगला चौदहवाँ श्लोक देखना होगा−

न कतृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥ (5/14)

परमेश्वर न तो जनसामान्य के कर्त्तापन की, न कर्मों की और न ही कर्मफल के संयोग की ही रचना करते हैं। यह कर्मफल संयोग का कारण नहीं है, वस्तुतः यह तो प्रकृति ही है, जो कार्य करती है, स्वभावतः ही सब हो रहा है।

स्वभावस्तु प्रवर्तते

जरा अर्थ पर ध्यान देना होगा। परमात्मसत्ता हमारे अंदर अहंभाव, कामोद्वेग, विभिन्न प्रकार की वासनाएँ पैदा नहीं करती। हमारे कर्म जिन प्राकृतिक इच्छाओं के वशीभूत होते हैं, उनका नियंता, कर्त्ता−धर्त्ता परमेश्वर नहीं है। हमारी मशीन रूपी कार या कंप्यूटर में यदि ईंधन है, पॉवर है, ये चलते हैं तो इनका कारण परमात्मा सुनिश्चित है, पर इसे कैसे चलाया जाए, कहाँ जाया जाए, किस दिशा में जाया जाए, यह काम परमात्मा का नहीं है। श्रीकृष्ण का यह प्रतिपादन बड़ा गूढ़ है व इसे हमें भली भाँति समझना होगा। पंखा अपने आप नहीं घूमता। जब तक विद्युतशक्ति आर्मेचर में प्रवाहित नहीं होगी, वह चल नहीं पाता। बिजली पंखे की स्वामी है। इसी तरह आत्मसत्ता हमारे यंत्रों की स्वामी होनी चाहिए। जगदीश्वर—वह परमपिता परमात्मा ही हम सबके भीतर की शक्तियों का स्वामी है, किंतु जैसा श्लोक कहता है कि यह जगदीश्वर न तो कर्त्ताभाव का, न कर्म का सृजनकर्त्ता है और कर्मफल संयोग का वह निमित्त है। यह तो मानवी प्रकृति ही है, जो कार्य करती है और सतत मनुष्य को विभिन्न कामों में उलझाए रखती है।

मुक्ति का पथ

हमसे कोई अच्छा कार्य हो जाए, तो हम स्वयं को श्रेय दे देते हैं, जबकि वह जगदीश्वर की कृपा से सचेतन इस जीव द्वारा प्रकृति पर आरुढ़ होकर संपन्न हुआ है। जब कोई गलत−अनैतिक कार्य हो जाए, तो हम विधि का विधान या किसी और पर दोषारोपण कर देते हैं। वस्तुतः अनंत चैतन्य में विराजमान वह प्रभुसत्ता हमारे कार्यों में निरपेक्ष है। अपनी बुरी आदतों व व्यसनों आदि के लिए भी हम स्वयं को निर्दोष मानते हैं, जबकि कर्त्ता हम स्वयं हैं। सही बात तो यह है कि पूर्व जन्म के अर्जित हमारे कर्म−संस्कार ही वर्तमान जन्म में प्रारब्ध रूप से प्रकट हुए हैं। ये संस्कार कर्मबीज हैं और प्रकृति की तरह ये भी त्रिगुणमय सत, रज, तम गुणों से युक्त हैं। समर्पण योग से, गुरु की कृपा से एवं तपश्चर्यादि ज्ञान के संचय से इन प्रारब्धों को काफी सीमा तक काटा जा सकता है, पर इसके लिए अपना नियंत्रण प्रभु के हाथों सौंपना होगा, जो चेतना के स्फुल्लिंग की तरह हमारे अंदर एवं निखिल ब्रह्माँड में संव्याप्त है। हर व्यक्ति अपने कर्मों के अनुरूप ही शरीर धारण करके अपने संस्कारों की दिशा अनुसार कार्य करता है, कर्म करता चला जाता है। कर्मों का क्षरण होते रहने से अपने स्वरूप का ज्ञान होता चला जाता है, जो अंततः हमें मुक्ति की ओर ले जाता है। यह हमारे ऊपर है कि हम अविद्या रूपी प्रकृति से निर्देश लें कि अपने अंदर बैठे भगवान से।



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