अंकुर आने लगे—3

February 2003

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श्रीराम में जागा रोष

1919-20 के बाद का वह दौर शुरू हो चुका था, जब महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देश असहयोग आँदोलन छेड़ चुका था। आँदोलन का उद्देश्य तब भारत की संपूर्ण आजादी तो नहीं था, वह कुछ संवैधानिक सुधारों के लिए था, ताकि भारत के कुछ लोग भी राज−काज में हिस्सा ले सकें। महात्मा गाँधी भारत की आत्मा की आवाज बन चुके थे और उनकी प्रतिष्ठा निर्द्वंद्व नेता के रूप में हो गई थी। 1919 में जलियावाला बाग हत्याकाँड के बाद उन्होंने भारत में ब्रिटिश राज को ‘शैतान’ की संज्ञा दी थी और लोगों से अपील की कि वे अदालतों, स्कूलों, कॉलेजों का बहिष्कार करें। सरकारी नौकरी कर रहे लोग अपने पदों से इस्तीफा दें और सरकार से पूरी तरह असहयोग करें। उसी वर्ष 30 मार्च और 16 अप्रैल को देशभर में हड़ताल हुई। हड़ताल के दिन सभी शहरों का जीवन ठप हो गया, व्यापार बंद रहा और अँगरेज अफसर असहाय−से देखते रहे। इस हड़ताल ने ‘असहयोग‘ के हथियार की शक्ति पूरी तरह प्रकट कर दी थी।

असहयोग का दौर आगे बढ़ा और उग्र रूप धारण करने लगा। असहयोगियों के प्रति सरकार ने भी कड़ा रुख अपनाया। हजारों लोगों को पकड़कर जेल में ठूँस दिया। दमनचक्र निष्ठुरतापूर्वक चला। उस निष्ठुरता के आगे लोग भी चुप नहीं रह सके और कई जगह हिंसा भड़क उठी। हिंसा का यह विस्फोट महात्मागाँधी को अच्छा नहीं लगा। वे आँदोलनकारियों से अंत तक अहिंसक रहने की अपेक्षा करते थे। उनका विश्वास था कि हिंसा को अपनाते ही परमात्मा हमारा साथ छोड़ देगा। अहिंसा का हर कीमत पर पालन किया, तो जनता में जनार्दन जाग उठेगा। असहयोग आँदोलन उनकी आशा−अपेक्षा के अनुरूप नहीं चला तो उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की। कहा कि लोगों को अहिंसा के लिए तैयार किए बिना असहयोग आँदोलन छेड़ना हिमालय जैसी भूल थी। इस भूल को सुधारने के लिए उन्होंने आँदोलन वापस ले लिया।

जिस आँदोलन के द्वारा महात्मा गाँधी ने एक वर्ष में ‘स्वराज’ लाने का वायदा किया था, वह पूरा नहीं हो सका। वह स्वराज 1942 के पूर्ण स्वतंत्रता या अँगरेजों को भारत से बाहर जाने की माँग करने जैसी भावना तक नहीं पहुँचा था। ‘स्वराज’ की माँग तब चलाने में भारत के लोगों की भागीदारी वापस ले लिया, लेकिन लोग उसे विफल मानते थे। कुछ हद तक यह सही भी था। उसने लोगों के मन से सरकारी दमन, ब्रिटिश तोपों और संगीनों का, अँगरेजी हुकूमत की जेलों का डर निकाल दिया। यह भय निकलने के बाद अँगरेज को भी शायद लगने लगा कि भारत से उन्हें एक दिन जाना होगा। लोगों की भावनाओं को कुचलने के लिए उनका चमनचक्र तेज होने लगा। लोगों में प्रतिकार की भावनाएँ भी बलवती हो गई।

अँगरेजों के विरुद्ध बढ़ते जा रहे रोष ने युवाओं, किशोरों और स्त्रियों को भी प्रभावित किया। आँवलखेड़ा गाँव के किशोरों में यह रोष श्रीराम के मन में सबसे पहले दिखाई दिया। मथुरा−वृंदावन की यात्रा से लौटते हुए उन्हें पता चला कि गाँधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया है। गाँधी जी की गिरफ्तारी के खिलाफ रैलियाँ निकलने लगीं। श्रीराम मथुरा−वृंदावन की मधुर और पवित्र यादों को कुछ देर के लिए स्थगित कर प्रभातफेरियों की व्यवस्था में हाथ बँटाने लगे। रैली में शामिल होने के लिए गाँव के बड़े−बुजुर्गों ने रोका कि बच्चे हो, पता नहीं कब कोई पुलिस कार्रवाई हो जाए और तुम धर लिए जाओ, पर श्रीराम ने कहा कि देश के प्रति हम बच्चों का भी कुछ कर्त्तव्य है। आप हमें आशीर्वाद दीजिए कि हम अपना कर्त्तव्य भली भाँति पूरा कर सकें।

कुछ दिन बाद खबर आई कि गाँधी जी को छह माह की सजा सुनाई गई है। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला था। जिस सभा में यह खबर दी गई, उसमें श्रीराम भी मौजूद थे। उनके मुँह से निकला, हम लोगों पर भी मुकदमा चलाया जाए। पापियों के शासन का नाश हो। दस−ग्यारह वर्ष के किशोर की इन भावनाओं ने वहाँ उपस्थित बड़े−बुजुर्गों को अभिभूत कर दिया। उन्होंने सहमति जताई। उसी सभा में श्रीराम ने घोषित किया कि वे बालसेना बनाएँगे और अँगरेजी राज के खिलाफ कुछ−न−कुछ करते रहेंगे।

बालसेना का गठन

अपने हम उम्र आठ−दस बच्चों को उन्होंने एक महीने में तैयार कर लिया और बच्चों की रैली निकालने लगे। प्रभात फेरी के बाद सभी बच्चे गाँव के बाहर बने हनुमान मंदिर में चले जाते। बजरंगबली की प्रतिमा को प्रणाम कर व्यायाम में लग जाते। गाँव के युवा स्वराजी चरण भैया की नसीहतें बच्चों ने पकड़ ली थीं कि स्वराज की लड़ाई जीतने के लिए शरीर मजबूत होना चाहिए। शरीर कच्चा रहा तो अँगरेजों या उसके पुलिसियों का एक डंडा भी सहन नहीं होगा। मार पड़ते ही बिछ जाएँगे, इसलिए जरूरी है कि शरीर में शक्ति पैदा हो। बच्चों को ‘स्वराज’ की लड़ाई के लिए तैयारी करते देख चरण भैया और गाँव के कुछ और लोगों ने मंदिर के प्राँगण में ही दूध, नाश्ते का इंतजाम किया। नाश्ते में भिगोए हुए चने और गुड़ दिया जाता।

छोटे स्वराजियों के इस दल ने समय−समय पर कई करतब दिखाए। बालसेना ने उन मोरचों पर हल्ला बोलना शुरू किया। जहाँ किसी पर ज्यादती होती थी। आगरा में छावनी थी, अँगरेजी फौजें पड़ी रहती थीं। शासकों से ज्यादा सैनिकों को गुमान था। वे जब−तब लोगों पर अत्याचार करते, उन्हें अपनी मनमरजी के अनुसार चलाते और बेगार लेते थे। मनोरंजन के लिए लोगों से उल्टी−सीधी हरकतें भी कराते थे। सामान्य लोग इन ज्यादतियों के डर से छावनी के पास भी नहीं फटकते। फौजी सड़क के किनारे खासकर गोरी चमड़ी वाले फौजी अफसर हों तो लोग उन्हें देखते ही छिप जाते थे। इन अफसरों की ज्यादतियों के किस्से आसपास के गाँवों में भी पहुँचते। आँवलखेड़ा में भी भूत−प्रेम की कहानियों की तरह फौजियों से संबंधित घटनाएँ कही−सुनी जातीं। श्रीराम की बनाई बालसेना में भी इन घटनाओं की चर्चा होती। हर चर्चा−प्रसंग के बाद संकल्प लिया जाता कि किसी फिरंगी या काले फौजी को अत्याचार करते देखा तो सहन नहीं करेंगे। उसे रोकेंगे, नहीं रोक पाए तो जवाबी हमला या बदला लेने अथवा रोष जताने जैसी कार्रवाई करेंगे। चुपचाप तो नहीं बैठेंगे।

फिरंगी फौजियों से मुकाबला

बालसैनिकों के संकल्प की परीक्षा की घड़ी भी जल्दी आ गई। फौजी लोग गाँव−गँवई में कम ही जाते थे। उस दिन एक अँगरेज अफसर पाँच−सात सिपाहियों के साथ आँवलखेड़ा की तरफ निकल आया। अफसर और सिपाहियों के आने की खबर पहले आ गई। बालसेना के सदस्य तुरंत मिले और आनन−फानन में योजना बना ली गई कि फौजियों ने कोई ज्यादती की तो मुकाबला कैसे किया जाय। इस संकल्प के साथ गाँव की सीमा पर जाकर बैठ गए। वे तैयारी के साथ गाँव के बाहर पहुँचे थे। फौजी लोग कब आएँगे, इसकी पक्की सूचना नहीं थी, इसीलिए सुबह से ही मोरचा सँभाल लिया।

साढ़े बारह−एक बजे के आस−पास दूर धूल उठती−उड़ती दिखाई दी। इस तरह की धूल घोड़ों की टाप पड़ने से ही उठती है। श्रीराम ने साथियों को इशारा किया। फौजी हैं तो पिछले गाँव में जरूर उपद्रव मचाकर आ रहे होंगे। उन्हें गाँव में घुसने नहीं देना है। बालसैनिकों ने एक दूसरे को देखते और इशारे करते हुए संकल्प दोहराया। थैली में रखे हुए पत्थर और गुलेल सँभाली। दूसरे साथियों ने जेब में रखी पिसी हुई मिर्च की पुड़िया पर हाथ रखा। यह सब करते हुए उनका आत्मविश्वास दृढ़ हो रहा था। फौजियों की टुकड़ी पास आई तो श्रीराम निकलकर सड़क पर आए।

टुकड़ी में शामिल हिंदुस्तानी सिपाही ने रास्ते में खड़े श्रीराम से पूछा, “यहाँ क्या कर रहे हो?” उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। दोबारा कड़ककर पूछा। फिर भी कुछ नहीं बोले। यह ढीठता सिपाही को पसंद नहीं आई। वह घोड़े से नीचे उतरा और श्रीराम की तरफ थप्पड़ उठाकर बढ़ने लगा। पास पहुँचकर मारने का मुद्रा में आता कि श्रीराम ने दन्न से जेब में रखी पुड़िया खोली और फौजी की तरफ उठाकर जोर से फूँक मार दी। सिपाही ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इस तरह की हरकत हो जाएगी। आँखों में मिर्च घुस जाने से वह बिलबिला उठा। इस आक्रमण के अगले ही पल पेड़ों की ओट से गुलेल चलने लगी। पत्थरों के कुछ टुकड़े भी उछले और सिपाहियों पर पड़े। अँगरेज अफसर कुछ समझे इससे पहले उसके टोप पर भी लकड़ी का एक बड़ा टुकड़ा आकर लगा। आघात झेल न पाने के कारण टोप नीचे गिर पड़ा। वह गालियाँ बकने लगा। समझ में किसी को नहीं आ रहा था कि हमला कहाँ से हो रहा है।

आठ−दस मिनट तक यह हमला चलता रहा और फिर जैसे सब शाँत हो गया। इस हमले से सिपाहियों का पारा चढ़ गया। उन्होंने इसे गाँववालों की कारिस्तानी माना और सभी को सबक सिखाने की गरज से बस्ती में घुसे। उन्हें देखकर बस्ती के लोग घरों में छिपने लगे कि फिरंगी अफसर दहाड़ा, “जिन लोगों ने शरारत की है, वे बाहर आ जाएँ, वरना पूरे गाँव को सजा मिलेगी।” घरों में छिपे लोगों की कँपकँपी छूट गई। “शरारती लोगों को बाहर निकालो।” फौजी अफसर ने फिर चेतावनी दी।

इस बार चरण भैया बाहर निकल आए। उन्होंने पूछा, “क्या हुआ कर्नल साहब, आपके साथ क्या शरारत की?” कर्नल ने कहा, “उस लड़के को सामने लाओ, जिसने सिपाही की आँखों में मिर्च झोंकी और वे लोग भी हाजिर हों, जिन्होंने पत्थर दनदनाए। कौन सुराजी लोग थे, हम भी तो देखें?” चन्ना भैया ने कहा, “गाँव में तो किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। जरूर डकैत सुराजी होगा। उसी के दल में एक लड़का है। मिर्च झोंकने और पत्थरों से हमला करने का तरीका वही अपनाता है।”

“कहाँ रहता है डकैत सुराजी?” उसी अफसर ने टूटी−फूटी हिंदी में फिर पूछा, तो चरण भैया का टका−सा जवाब था, “दस्यु का कोई पता−ठिकाना होता है साहब! अच्छा हुआ आप लोग सामने पड़ गए, वरना वह गाँव में घुस आता और यहाँ तबाही मचाता, लेकिन उसने आपको भी तो हैरान कर दिया।” यहाँ अपनी हेठी होते देख अफसर ने बात का रुख मोड़ा, “नहीं, हम लोगों को खास परेशान नहीं किया। दोबारा वह डकैत इधर आए तो छावनी में खबर भेजना। हम उसे ठीक कर देंगे।”

सिपाहियों की वह टुकड़ी इसके बाद गाँव में बिना रुके वापस चली गई। चरण भैया को पता था कि किसने पत्थर बरसाए हैं और मिर्च का पाउडर किन−किन की जेब में था। बालसेना के हमले की योजना उन्हीं की देख−रेख में बनी थी। इसमें जोखिम थी, लेकिन योजना पर अमल नहीं होता, तो भी गाँव में कहर बरपा होता ही। इस कामयाब हमले या प्रतिकार से बालसेना का हौसला बढ़ा। फिरंगी सिपाहियों की टुकड़ी वापस जाने के बाद बालसेना के सदस्य देर तक खो−खो करते हँसते रहे। यद्यपि कुछ लोगों को उनकी शरारत का पता चला तो पहले उन्होंने थोड़ी नाराजगी जताई, फिर बच्चों की हिम्मत और निष्ठा को समझते हुए धीरे से खुद भी हँस दिए।

गाँधी जी के असहयोग के साथी

बालसेना के इन सदस्यों ने खेती में काम करने वाले मजदूरों पर देशी मालिकों की ज्यादती के खिलाफ भी मोरचा खोला। मुख्य उद्देश्य स्वराज की लड़ाई में हाथ बँटाना था। स्वराज के मायने क्या होते हैं या फिरंगीराज का क्या मतलब है, इन सवालों की गहराई में जाने की किसी ने जरूरत नहीं समझी। जिस बात ने बालसेना के सदस्यों को आवेश से भर दिया, वह गाँधी जी की गिरफ्तारी थी। गाँधी जी उनके लिए सत्य और न्याय के पक्ष में खड़े हुए एक व्यक्ति का नाम था। एक ऐसा नाम, जो न किसी का मुकाबला करता था और न ही बदले की बात सोचता था। उस ज्यादती के सामने नहीं झुकने या ज्यादती करने वालों से हरसंभव असहयोग करने का नाम ही गाँधी था।

श्रीराम के नेतृत्व में बालसेना ने उन मालिकों के साथ असहयोग का एक विलक्षण प्रयोग किया। वे उन मालिकों के डंडे छिपा देते और बैल खोल देते थे, जो अपने मजदूरों पर अत्याचार करते थे। उनका मानना था कि जो काम बँधुआ मजदूरों को करना चाहिए, वे हम लोग करें, क्योंकि बँधुआ इस तरह की हिम्मत जुटा नहीं पाते थे। श्रीराम, उनकी टुकड़ी के चरण भैया, सोराजी और मोहन लाल मजदूरों को सिखाने की कोशिश करते। उनसे संपर्क साधते, बात−चीत छेड़ते और समझाते कि उनकी भलाई मार खाने में नहीं, अत्याचार का मुकाबला करने में है। इसी तरह उनकी आत्मा मजबूत होगी। कुछ मजदूर तो इन शिक्षाओं से प्रेरित होकर काम भी छोड़ गए। उन लोगों ने नए बसेरों में नई जिंदगी शुरू की। (क्रमशः)


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