सत्य और तप की अनुपम महिमा

February 2003

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भगवान् सूर्य नारायण ने अपना रथ अस्ताचल की ओर मोड़ लिया था। साँझ की सिंदूरी लालिमा से सभी दिशाएँ, तरु-पल्लव एवं समस्त धरा अनुरंजित हो रही थी। झरनों का कल-कल करता जल-प्रवाह भी सिंदूरी रंग का दिखाई दे रहा था। साँझ का सुनहरा संगीत गाते हुए पखेरू अपने-अपने घोसलों की ओर लौटने लगे थे। मयूरों की कूजन-ध्वनि सारे वन-प्रान्तर को एक अपूर्व माधुर्य से भर रही थी।

ऐसे में एक अकेला मुसाफिर ठहरे हुए कदमों के साथ कुछ सोच रहा था। उसके चेहरे पर झलकते स्वेद बिन्दु थकान का संकेत दे रहे थे। पाँवों से सिर तक गर्द-गुबार की हल्की सी परत यह स्पष्ट जता रही थी कि वह काफी दूर से चलकर आ रहा है। उसके इस तरह अचानक ठहरने से ऐसा लग रहा था कि थके हुए पाँव आगे बढ़ चलने के लिए अब तैयार नहीं हैं। थोड़ी देर कुछ यूँ ही सोचने में बिताकर आखिर वह यहीं बैठ गया। कुछ पल के बाद उसने झरने के जल से हाथ-पाँव और मुँह धोया। तीन-चार अंजलि जल पीकर अपनी प्यास बुझायी। इसके बाद वहीं पास में खड़े हरशृंगार के वृक्ष के नीचे पड़े पत्थर पर अपने काँधे में पड़ी हुई चद्दर उतार कर रख दी। और विश्राम करने के लिए लेट गया। लेटते ही उसे गहरी नींद ने घेर लिया।

जब नींद खुली, तब निशिपति की धवल ज्योत्सना समूचे वन प्रदेश में फैल चुकी थी। यह शरद पूर्णिमा की रात्रि थी। ऐसा लग रहा था कि भुवनमोहन की मुरली से सारा ब्रह्मांड विमोहित हो रहा है। नीरव-शान्त वन प्रदेश भी शुभ्र-ज्योत्सना की गोद में सुषुप्ति-सुख की अनुभूति पा रहा था। मुसाफिर की नींद खुलने तक रात का पहला प्रहर बीत चुका था। अब तक उसे भूख भी लग आयी थी। भूख से आतुर हो वह अपने साथ रखा हुआ भोजन करने बैठ गया।

भोजनोपरान्त उसने जल पिया। थोड़े समय के लिए ही सही किन्तु प्रगाढ़ निद्रा ने उसकी थकावट दूर कर दी थी। शरदपूर्णिमा की शुभ्र ज्योत्सना ने उसके मन को भी शुभ्र, ज्योतिर्मान, शान्त, प्रसन्न और प्रफुल्लित बना दिया था। इस समय हरशृंगार की कली-कली खिल उठी थी। उसकी मादक-मधुर एवं सुगन्धित वायु ने मन को आनन्द से भर दिया था। ऐसी शान्त-मधुर एवं सुगन्धित वायु ने मन को आनन्द से भर दिया था। ऐसी शान्त-सुखद और माधुर्य से ओत-प्रोत रात भला और कब मिलेगी? यही सोचकर उसने अपने झोले से एक पोथी निकाली। और पूर्ण शशि की धवल किरणों के उजाले में उसके पृष्ठ पलटे।

इसके एक पृष्ठ पर लिखा था ‘सत्य प्रतिष्ठयाँ क्रिया फलाश्रयत्वम्’ सत्य की प्रतिष्ठ से इच्छित फल प्राप्त होता है। वह महर्षि पतंजलि के इस सूत्र पर विचार करने लगा। उसने जो पोथी अपने झोले से निकाली थी, वह महर्षि पतंजलि प्रणीत योगसूत्र की पोथी थी। इस योगसूत्र में महर्षि पतंजलि ने योग की प्रायः सभी रहस्यात्मक क्रियाओं और उनकी आश्चर्यजनक उपलब्धियों को सूत्रबद्ध किया है। महर्षि के इस अद्भुत कर्त्तृत्व एवं सत्य की प्रतिष्ठ का सुफल बताने वाले सूत्र पर विचार करते हुए उसे फिर से कब नींद आ गयी, पता ही नहीं चला।

उन दिनों उस पूरे इलाके में पिंडारा कहे जाने वाले ठगों का भारी आतंक था। हर कहीं उनके भयानक उत्पातों से जन-जीवन त्रस्त था। वे राहगीरों को लूटते, शहरों, बाजारों की श्री-सम्पदा छीन लेते, गाँव के गाँव उजाड़ देते। छत्तीसगढ़ प्रदेश की रायपुर रियासत में इन पिंडारों का बहुत ज्यादा जोर था। इन पिंडारों ने यहाँ अपना मुख्य केन्द्र बना रखा था। आस-पास के इलाके में रोज डाके पड़ना-हत्याएँ होना एक सामान्य बात हो गयी थी।

सामान्य जनों के अलावा ये राज्यकोष को भी नहीं बख्शते थे। मुकाबला करने वाले सिपाहियों को ये धराशायी कर देते। इनके आतंक से रायपुर राज्य के सिपाही और अधिकारी भी भयभीत रहते थे। कोई भी सैनिक तथा राज्य अधिकारी खजाने के साथ जाने के लिए तैयार नहीं होता था। ये बातें रायपुर के महाराज को भी पता चली। प्रश्न राज्य की प्रतिष्ठ का था। महाराज की व्यग्रता बढ़ गयी। उन्हें घबराहट होने लगी कि कहीं पिंडारे उनके राज्य पर कब्जा करके ही न बैठ जायं।

पिंडारों की समस्या से छुटकारा पाने के लिए महाराज ने राज्य के सामन्तों, विद्वानों की एक सभा बुलायी। इसमें पड़ोसी राज्यों के भी विशिष्टजनों को आमंत्रित किया गया। सभा में विचार बिन्दु एक ही था कि इन अत्याचारी हत्यारे पिंडारों का दमन किस तरह किया जाय? काफी देर तक विचारों के आदान प्रदान एवं विमर्श के बाद यह निर्णय हुआ कि पहले पिंडारों के निवास स्थान की खोज हो, बाद में राज्य की सेना उन पर आक्रमण करके उन्हें परास्त करे।

पर पिंडारों के निवास की खोज का काम करेगा कौन? हालाँकि इस काम के लिए भारी ईनाम एवं जागीर देने का प्रस्ताव था। किन्तु पिंडारों के आतंक की घबराहट सभी में थी। सो इस काम के लिए किसी की हिम्मत न पड़ी। सभा में सन्नाटा छा गया। काफी देर बाद इस सन्नाटे को चीरते हुए एक युवक उठा। दुबला-पतला शरीर, ललाट पर तिलक और कंठ में रुद्राक्ष की माला। अपने वेश एवं मुखमण्डल की दीप्ति से वह कोई महासाधक लगता था। उसने अपने आसन से दो कदम आगे बढ़कर घोषणा की कि जनहित में यह काम वह स्वयं करेगा। साथ ही उसने यह भी स्पष्ट कर दिया कि लोकहित के इस काम को उसे कोई ईनाम नहीं चाहिए। उसकी इस घोषणा पर समूची सभा स्तब्ध हो गयी।

सभी को आश्चर्य एवं स्तब्धता में छोड़कर उसने अपनी आज तक की यात्रा पूरी कर ली थी। निद्रा से जगने और संध्या-जप आदि नित्य कर्म से निवृत्त होकर वह अभी हरशृंगार के पेड़ के नीचे बैठा था, तभी राह चलते एक व्यक्ति ने उससे पूछा, ‘भाई तुम कहाँ जा रहे हो?’ उसने उत्तर दिया- ‘पिंडारों के निवास स्थान पर।’ उत्तर देने वाले के चेहरे पर किसी भी तरह का भय-संदेह अथवा संकोच नहीं था। आगन्तुक व्यक्ति एकटक नजर से उसकी ओर देखता ही रह गया।

फिर थोड़ी देर बाद पूछने वाले ने थोड़ा हिचकते हुए कहा, आप ऐसा क्यों कह रहे हो, मैं कोई पिंडारा थोड़े हूँ। मैं भी आपकी तरह एक यात्री हूँ। इधर का इलाका जंगली है। मैंने सोचा यात्रा में आपका साथ हो जाएगा। आप तो हँसी-मजाक करने लगे।

मैं हँसी-मजाक नहीं कर रहा। रही बात मुस्कराने की सो वह मेरी आदत है। सचमुच ही मैं पिंडारों के निवास स्थान की खोज के लिए निकला हूँ। किन्तु अभी तक मुझे इसका कोई पता नहीं चला। मैं तो अभी बैठा-बैठा आदिमाता गायत्री से प्रार्थना कर रहा था कि इस घोर वन में कोई पिंडारा मिल जाय तो कितना अच्छा हो। उस मुसाफिर से गम्भीर दृढ़ता से कहा।

आगन्तुक उसकी बातों से हैरान हो गया। जैसे-तैसे उसने अपने आन्तरिक भावों को छुपाते हुए कहा- ऐसा क्यों कह रहे हैं? कहीं कोई पिंडारा सचमुच में मिल गया तो आपके कपड़े-लत्ते उतरवाकर सामान छीन कर आपको ठिकाने लगाकर चलता बनेगा। उसकी इस बातों पर वह मुसाफिर हँसा और बोला- मुझे डराते हो, शायद तुम नहीं जानते कि आदिशक्ति माता गायत्री मेरी माँ हैं। जो माता की सच्ची सन्तान होने का धर्म निभाते हैं, उन्हें कभी डरने की जरूरत नहीं पड़ती। जहाँ तक समान की बात है, तो मेरे पास अट्ठाइस स्वर्ण मुहरें हैं और ये कपड़े जो पहने हूँ। इन्हें दे देने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। रही बात मेरी जान लेने की, सो वह तो तभी जाएगी जब माता की इच्छा होगी। मुसाफिर ने अपनी पूरी मस्ती में जवाब दिया।

उत्तर देने वाले की दृढ़ता, निर्भयता और भक्ति-विश्वास ने आगन्तुक को अपने प्रभाव में ले लिया। वह अपना यथार्थ परिचय देने के लिए विवश हो गया और बोला- ब्राह्मण देवता! मैं एक पिंडारा हूँ, बल्कि मैं ही यहाँ के पिंडारों का सरदार हूँ। पर आप मेरे निवास स्थान पर क्यों आना चाहते हैं? इस प्रश्न पर मुसाफिर ने अपने कुर्ते में रखी हुए मोहरें निकाली, साथ ही अपने कपड़े और थैले का सामान उसे सौंपने के लिए तत्पर हो कर बोला- मेरा यह सारा सामान लेकर अब मुझे अपने यहाँ ले चलिए।

आगन्तुक पिंडारा इस सारे दृश्य को देखकर हैरान था। पर महाराज आप हमारे निवास पर जाकर क्या करेंगे? उत्तर में मुसाफिर ने उस पिंडारा सरदार को सारी घटना कह सुनायी। और अपना परिचय बताते हुए कहा- मैं रुद्रदेव नाम का ब्राह्मण हूँ। मैं विगत कई वर्षों से प्रतिवर्ष केवल दुग्ध पर रहकर 24 लाख गायत्री महामंत्र जप का पुरश्चरण कर रहा हूँ। मेरा दृढ़ निश्चय है कि मैं कभी भी किसी भी स्थिति में झूठ नहीं बोलता। इसीलिए हे ठग सरदार मैंने तुम्हें सारी बातें सत्य बता दी है। मैं तुम्हारे निवास पर पहुँचकर तुम्हारे सभी बन्धुओं से यह कहना चाहता हूँ कि तुम लोग मनुष्य जीवन को लज्जित करने वाला यह क्रूर कर्म न करो।

ब्राह्मण के मुख पर सत्य और तप के तेज से पिंडारा सरदार का पाप छटने लगा और क्रूरता गलने लगी। वह ब्राह्मण को अपने साथ घने जंगल में ले गया। वहाँ पर अनेक ठगों और पिंडारों के बीच उस तपस्वी ब्राह्मण ने कई दिन बिताये। इन बिताये गए दिनों में ब्राह्मण के तप ने सभी को अभिभूत कर दिया। ब्राह्मण देवता के सत्य वचन सभी के अन्तःकरण में सूर्य किरणों की भाँति उतर चुके थे।

इन कई दिनों के बाद रायपुर के महाराज मोहनसिंह के दरबार में खुशी की तरंगें उमग रही थी। एक ही सत्य छाया हुआ था कि परम तपस्वी ब्राह्मण रुद्रदेव ने पिंडारों के निवास का पता कर लिया है। तभी महाराज ने सवाल किया- पिंडारों को परास्त करने जो फौज जाएगी उसका नेतृत्व कौन करेगा? इस प्रश्न के उत्तर में एक स्वर उभरा- अब उसकी आवश्यकता नहीं रही महाराज। पिंडारे तो कब के परास्त हो चुके हैं। एक हृष्ट पुष्ट बलवान मनुष्य ने सभा में आकर अपनी सारी सच्चाई बयान करते हुए कहा- इन ब्राह्मण देवता के सत्य और तप ने हम पिंडारों को बिना किसी हथियार के ही परास्त कर दिया है। मैं उनका सरदार अभयसिंह आपके सामने आत्मसमर्पण करता हूँ।

सारी बातें को सुनकर पूरी राजसभा हर्षमग्न हो गयी। महाराज मोहनसिंह ने राज सिंहासन से उतर कर परम तपस्वी ब्राह्मण रुद्रदेव के चरणों में सिर नवाया और पिंडारा सरदार अभयसिंह और उसके साथियों को नए सिरे से जीवन जीने की उचित व्यवस्था करने की घोषणा की। महाराज ने रुद्रदेव से यह भी प्रार्थना की कि हे विप्रवर! आप हमारा गुरुपद स्वीकार कर हमें निरन्तर मार्गदर्शन देते रहिए।

सत्य और तप की इस इतिहास कथा के अवशेष अभी छत्तीसगढ़ में मिलते हैं। छत्तीसगढ़ की वनवासी जातियों में आज भी शपथ लेते समय ‘झूँठ कहूँ तो रुद्रदेव की सौगन्ध’ कहने का रिवाज प्रचलित है। इस अंचल में ऐसी मान्यता है कि रुद्रदेव की झूठी सौगन्ध खाने के बाद झूठ बोलने वाले के घर चोरी या डाका जरूर होता है। सत्य और तप की महिमा आज भी अक्षुण्ण है।


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