छोटी−सी खोपड़ी, पर है चमत्कारी

February 2003

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मानव शरीर की संरचना अपने आप में इतनी विलक्षण और विस्मयकारक है कि उसका जितना ही अधिक विश्लेषण किया जाय, उतना ही अधिक यह तथ्य स्पष्ट होता जाता है कि ईश्वर ने इस अद्भुत यन्त्र का निर्माण किसी अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजन के लिए ही किया होगा। इस काय कलेवर का सर्वाधिक विलक्षण, इसकी समस्त गतिविधियों का केन्द्र बिन्दु उसका मस्तिष्क ही है। सारे ज्ञात-विज्ञात विभिन्न क्रिया-कलापों का अधिष्ठाता यही है। एक साथ ही इस स्नायु कोषों के समुच्चय में इतनी अधिक प्रकार की गतिविधियाँ सम्पन्न होती देखी जा सकती है, जो किसी अति महत्त्वपूर्ण प्रशासकीय संस्थान में, विभिन्न समस्याओं का हल निकालने तथा उनका समुचित मार्गदर्शन करने की सुसंचालित प्रक्रिया की तुलना में कहीं अधिक है।

बहु प्रचलित किंवदंती है कि कल्पतरु के नीचे बैठने से समस्त मनोवाँछित आकाँक्षाओं की पूर्ति होती है। ऐसे वृक्ष का अस्तित्त्व इस बाह्य प्रकृति में संदिग्ध ही है। लेकिन एक प्रत्यक्ष कल्प पादप परमसत्ता ने मानव के काय कलेवर रूपी नन्दन कानन में मस्तिष्क के रूप में प्रदान किया है, जिसकी आराधना से वह सभी कुछ प्राप्त हो सकता है, जिसकी हमें कामना है।

शरीर रूपी बाह्य कलेवर तो माँ के गर्भ से जन्म लेता है, पर भले-बुरे व्यक्तियों का, नरपशु, नरपामर, महामानव, देवमानव, अतिमानव का जन्म कहाँ से होता है, यह खोज बीन यदि कोई करना चाहे तो अचेतन, अवचेतन मन की परतों में करना पड़ेगा। इन्हीं रहस्यमय परतों में अच्छे-बुरे व्यक्तित्व जन्म लेते हैं। विचारक, वैज्ञानिक, मनीषी, कलाकार, दार्शनिक साहित्यकार जैसी अनेकानेक विलक्षण प्रतिभाओं का उद्भव केन्द्र मस्तिष्क ही है। इसके गड़बड़ाने से ही मनुष्य मूर्ख, पागल, विक्षिप्त बन जाता है तथा किसी काम का नहीं रहता। शारीरिक दृष्टि से पूर्ण तथा समर्थ रहते हुए भी वह असमर्थों, असहायों जैसा जीवन बिताता है। इस महत्त्वपूर्ण केन्द्र के संतुलित, विकसित और जाग्रत् हो जाने पर अनेकानेक उत्कृष्ट संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं। भौतिक, आत्मिक दोनों ही स्तर की विभूतियाँ करतलगत की जा सकती हैं।

शरीर के विभिन्न तंत्रों व अवयवों पर, उनकी विभिन्न गतिविधियों के संचालन पर, इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष नियन्त्रण है। उच्च स्तर की आध्यात्मिक उपलब्धियों को न गिना जाय तो भी इसके दैनन्दिन जीवन के विविध क्रिया-कलाप कम महत्त्वपूर्ण और आश्चर्यजनक नहीं हैं। सोचने, विचारने, सुख-दुःख की अनुभूति करने, विविध उलझन भरी समस्याओं की जटिल गुत्थी सुलझाने में इसकी तत्परता और कुशलता देखते ही बनती है। इसकी विभिन्न विलक्षणताओं के विषय में जो नित्य-नूतन शोध निष्कर्ष सामने आ रहे हैं वे और भी अधिक विस्मयकारक हैं। उनके अनुसार मस्तिष्क में ऐसे सूक्ष्म केन्द्र भी विद्यमान हैं, जो भयंकर शारीरिक-मानसिक पीड़ाओं का निवारण कर सकते हैं। उपेक्षित, मूर्छित स्थिति में पड़े रहने के कारण उनकी सामर्थ्य का परिचय नहीं मिल पाता।

दर्दनाशक, पीड़ा निवारक के रूप में शताब्दियों पूर्व से अफीम, मार्फीन जैसी वस्तुओं का उपयोग नशीली दवाओं के रूप में होता आया है। चिकित्साशास्त्रियों ने अब यह स्वीकार कर लिया है कि इससे लाभ होने की अपेक्षा हानियाँ ही है। विशेषज्ञों का मत है कि दुःख दर्द कष्ट, पीड़ा एक मानसिक अनुभूति है। शरीर के जिस अवयव में दर्द हो रहा है, इसका अर्थ है कि वहाँ पर कुछ ऐसा घटित हो रहा है जो तंत्रिका तंत्र के लिए असहनीय है। दर्द भी दो तरह के हैं, एक क्षणिक दूसरा चिरकालिक। दोनों ही शारीरिक-मानसिक वेदनाओं के रूप में व्यक्ति को पीड़ित करते हैं। चिरकालिक दर्द कष्टकारक होने के साथ ही मनःक्षेत्र को अधिक प्रभावित करता है।

इस स्थिति में मानसिक तनाव बढ़ता है, जो साइजोफेनिया, पैरानाइया जैसी बीमारियों को जन्म देता है। मस्तिष्क के किसी भी भाग में तनिक भी गड़बड़ी होने से समूचा शरीर तथा मनःसंस्थान प्रभावित होता है। प्रायः इन परिस्थितियों में लोग दर्द या तनाव शामक औषधियाँ प्रयोग करते हैं। मार्फीन, एल.एस.डी जैसी नशीली दवाएँ खूब धड़ल्ले से दर्द से मुक्ति पाने अथवा मानसिक गम भुलाने के लिए उपयोग की जाती हैं। इनके उपयोग से संवेदी अंगों की संवेदनात्मक क्षमता में कमी आती है, जिससे दर्द महसूस करने की क्षमता का ह्रास होने लगता है। इसके निरन्तर प्रयोग से शरीर को एक प्रकार की लत पड़ जाती है, जिसे एडीक्शन कहा गया है। जब तक उनका नशा रहता है, व्यक्ति राहत महसूस करता है, पर नशा उतरते ही फिर से छटपटाने लगता है।

चिकित्सा विज्ञानियों का मत है कि मानव मस्तिष्क के लिम्बिक सिस्टम में ऐसे स्नायु यौगिक मौजूद है, जो दर्द को कम करने में सक्रिय भूमिका निभा सकने में सक्षम है। लिम्बिक सिस्टम को भावना क्षेत्र का केन्द्र माना गया है। सम्वेदनवाही तंत्रिकाएँ जैसे ही दर्द की अनुभूति लेकर मेरुदण्ड स्थित सुषुम्ना के रीढ़ रज्जु में पहुँचती हैं, लिम्बिक क्षेत्र के एफरेण्ट रिसेप्टरर्स सक्रिय हो उठते हैं तथा इनमें सेकेफैटिन नाम के दो पेप्टाइडस-दर्दशामक की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन दोनों पेण्टापेण्टाइड का स्राव मस्तिष्क से ही होता है। बीटालाइयोट्रामिन को एन् कैफेलिन का अग्रदूत माना गया है। शोध में यह पाया गया है कि पिट्यूटरी ग्रन्थि में अनेकों ऐसे एन्जाइम होते हैं जो बीटा एल.पी.एच को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँट देते हैं। इन हारमोनल फ्रैग्मेण्टस को किसी मानव या जानवर में प्रविष्ट करने पर उनमें कायिक एवं व्यावहारिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। तनाव की स्थिति में ए.सी.टी.एच नामक हारमोन पिट्यूटरी ग्रन्थि से स्रावित होता है, जो एड्रीनल ग्रन्थि से कार्टिसॉल नामक हारमोन बनाने के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। इसी समय एनकैफेलिन और एन्डार्फिन का रक्त में स्तर बढ़ जाता है। फलस्वरूप दर्द के प्रति सम्वेदनात्मक शून्यता जैसी मनःस्थिति बन जाती है। व्यक्ति को कष्टकारक दर्द का भान नहीं होता।

‘इम्यूनोटिस्टो केमिकल’ प्रयोगों से यह मालूम हुआ है कि एनकैफेलिन से भरे न्यूरान्स सेरिब्रोस्पाइनल एक्सिस के विभिन्न स्तर पर विशेषतया दर्द वाले स्थानों पर फैले हुए हैं। एक्यूपंचर चिकित्सा प्रणाली में इसी एनकैफेलिन का उपयोग करके बिना किसी बाह्य संज्ञा शून्यता के बड़े-बड़े आप्रेशन करने में सफलता प्राप्त हुई है।

परामनोविज्ञान पर शोध कर रहे मूर्धन्य विद्वानों का मत है कि ध्यान प्रक्रिया द्वारा मस्तिष्क के भीतर अनेकों प्रकार के रासायनिक परिवर्तन किए जा सकते हैं तथा मस्तिष्कीय क्रिया-कलापों पर नियंत्रण करके एनकैफेलिन, इन्डोजीन्स-दर्द निवारक की मात्रा बढ़ाई जा सकती है।

मस्तिष्क की विशेषता-विचित्रता का यह एक छोटा सा पक्ष है, जिसकी जानकारी शरीर शास्त्री पा सके हैं। इसकी तुलना में अविज्ञात क्षेत्र कई गुना अधिक है। ये इतने विस्मयकारी तथा विलक्षण सामर्थ्यों से युक्त हैं कि सामान्य व्यक्ति तो इनकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि छोटी सी दिखाई देने वाली खोपड़ी इतनी चमत्कारी भी हो सकती है। दैनिक जीवन में होने वाले अनेकानेक क्रिया-कलापों की वह संचालक ही नहीं अपितु रहस्यमयी विविध अतीन्द्रिय क्षमताओं की जन्मस्थली भी है। असन्तुलन की स्थिति में तो सामान्य शारीरिक, मानसिक क्रिया-कलाप भी ठीक तोर से नहीं सम्पन्न हो पाते। सन्तुलन होने पर व्यक्ति अपनी प्रतिभा का सामान्य उपयोग कर पाता है। अधिकाँश भाग प्रसुप्त होने के कारण, इसकी विलक्षणताओं का परिचय नहीं मिल पाता है।

इसकी जाग्रति होने पर किन्हीं किन्हीं में अतीन्द्रिय सामर्थ्य के प्रमाण भी मिलते देखे गए हैं। इच्छा शक्ति, दूरदर्शन, अदृश्यदर्शन आदि की अनेकों प्रमाणिक घटनाएँ इसी तथ्य का उद्घोष करती हैं कि मानवी मस्तिष्क असीम सम्भावनाओं-शक्तियों का भाण्डागार है। उसकी छाँव में बैठ कर यदि सही माने में साधना की जा सके, तो कल्पतरु की उपमा शत-प्रतिशत चरितार्थ हो सकती है। इससे वह सभी कुछ प्राप्त किया जा सकना सम्भव है, जिनकी अपेक्षा उससे की जाती है।


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