ध्यान क्यों करें? कैसे करें?

February 2003

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मित्रो! हमने अपने मन का भगवान बना लिया है। हमारे मन का भगवान आपने हमारी पूजा की कोठरी में देखा होगा। माता जो ध्यान करती हैं, वह गायत्री माता का ध्यान करती हैं। हम जो ध्यान करते हैं—अपने गुरु का ध्यान करते हैं। चौबीस घंटे हमको एक ही दिखाई पड़ता है। हमारे आत्मोत्थान का श्रेय जब खुलता है, तो हमको वही दाढ़ी दिखाई पड़ती है, वही चमक दिखाई पड़ती है, बड़ी−बड़ी तेजस्वी आँखें दिखाई पड़ती हैं, लंबे वाले बाल दिखाई पड़ता है, जो न कभी खाता है, न कभी पीता है। हमेशा उसका सूक्ष्म शरीर की काम करता रहता है। मैंने तो उसी को भगवान भी मान लिया है। गायत्री माता को भी वही मान लिया है। मेरे मन की एकाग्रता उन पर जम गई है।

ध्यान की सही विधि

मित्रो! एकाग्रता जमने की वजह से क्या हो रहता है? वे मेरे समीप ही दिखाई पड़ते रहते हैं। मुझे अब यह अनुभव नहीं होता कि हम अपनी कोठरी में अकेले रहते हैं या दो रहते हैं। मुझे यह लगता है कि हम दो रहते हैं और एक साथ में रहते हैं। अब मुझे बिलकुल ऐसा लगता है कि राम−लक्ष्मण कभी रहे होंगे, अर्जुन और कृष्ण कभी रहे होंगे। उसी राह में अपने आप को यह अनुभव करता हूँ कि हम दो आदमी साथ−साथ रहते हैं साथ−साथ चलते हैं और साथ−साथ खाते है। देवी काली के साथ जैसे रामकृष्ण परमहंस खाते थे, बेटे, अपने भगवान के साथ में हम भी ऐसे ही खाते रहते हैं। आपने हमें देखा ही कहाँ है! देखना है तो बेटे, हमारी आँख से देखना। तो क्या आप आँख से देखते है? हाँ बेटे, आँख से ही देखते हैं और देखते रहते हैं। आप भी ऐसा ध्यान कर सकते हैं।

यदि इस तरह का ध्यान आपकी समझ में न आता हो, मन लगता हो, तो आप यह समझना कि गुरु के प्रति आपकी श्रद्धा और विश्वास नहीं है। हाँ, अगर सचमुच श्रद्धा और विश्वास नहीं है तो आप ध्यान मत करना। अगर आपके अंदर श्रद्धा−विश्वास है तो आप ऐसे भी ध्यान कर सकते हैं कि हम गुरुजी के पास बैठे हुए हैं, उनकी गोदी में बैठे हुए हैं। वे हमको प्यार करते हैं, हमको सलाह देते हैं। थोड़े दिन आप ऐसे ही ध्यान करना। थोड़े दिनों के बाद हमारे और आपके अंतरंग मिलने लगेंगे, तो फिर आप देखना, आदान−प्रदान का सिलसिला, शुरू हो जाएगा। आपकी बातें हम तक आती हैं और हमारी बातें आप तक जाती हैं, यदि आप और हम वास्तव में मिलना शुरू कर दें तब। लेकिन अगर हमारी शक्लें ही मिलती रहेंगी, तो बात नहीं बनेगी। हमें भावना को भी मिलाना है, हृदय को भी मिलाना है और मस्तिष्क को भी मिलाना है। इस तरह अगर हम भीतर से मिले तो फिर देखना हमारा और आपका आदान−प्रदान अपने आप चालू हो जाएगा।

ध्यान बंद करने से क्या होगा?

साथियों! आप लोग कहते हैं कि संत का मिलना मुश्किल है, गुरु का मिलना मुश्किल है, भगवान का मिलना मुश्किल है। नहीं बेटे, यह कोई मुश्किल नहीं है? केवल ध्यान करना मुश्किल है। ध्यान कैसे करेंगे? अगर ध्यान न कर सके तो क्या हो जाएगा? देख बेटे, तुझे मैं थोड़े से नाम बताता हूँ, जो ध्यान न कर सके, लेकिन किसी तरह से भगवान की कृपा प्राप्त कर ली थी, पर उसको हजम करने की ताकत किसी ने नहीं प्राप्त की थी, इसलिए उनको नुकसान हो गया था। वे कौन−कौन व्यक्ति थे? बेटे, उनमें से एक का नाम रावण था। रावण ने बहुत तप किए थे और तप करने की वजह से शंकर जी को प्रसन्न कर लिया था और किसी तरह से उसने वरदान भी पा लिया था। वरदान और आशीर्वाद पाने के पश्चात रावण को कुछ मिला? नहीं, वह घाटे में रहा और उसका नुकसान ही हुआ।

किसी को बुखार आता है, किसी की मृत्यु होती है, पर रावण की मृत्यु? रावण ने ऐसी भयंकर मृत्यु देखी, जैसी किसी और ने नहीं देखी। उसने अपनी औरतों को जलते देखा, अपने बच्चों को जलते देखा, नाती− पोतों को जलते देखा। ऐसा भयंकर दृश्य कहीं देखा है आपने? मरे हुए व्यक्तियों को तो देखा है कि मरने के बाद उन्हें जला दिया गया, पर जिंदा बेटों को, जिंदा बेटियों को, जिंदा पोतियों को, जिंदा पोतों को जलते हुए क्या किसी ने देखा है? नहीं, महाराज जी! अगर ऐसा दृश्य हम देखेंगे तो हमारा कलेजा फट जाएगा। हाँ बेटे, परंतु एक का कलेजा फटा है। किसका? रावण का। रावण अगर कोई तपस्वी न होता, वह कोई दुकानदार होता। बेटे, उसने हजामत बनाने की कोई दुकान खोल ली होती, चाय की दुकान खोल लेता, उसका ‘रावण रेस्टोरेंट’ होता, तो खूब मजे में लोग आते, चाय पीते। मजे में ‘रावण टी स्टॉल’, ‘टी कॉर्नर’, कॉफी कॉर्नर’ चल रहा होता। वह अपना घर बना लेता और बैंक में हजार−दो हजार रुपये जमा कर लेता। अपने बाल−बच्चों को पुलिस में नौकरी करवा देता और इन्कमटैक्स में ऑफीसर बना देता। फिर न रावण की बीबी मरती, न बच्चे मरते, कोई भी नहीं मरता।

मित्रो! रावण ने भजन तो किया, लेकिन बेचारे को हजम करने की शक्ति न मिल सकी। वह तपता रहा और जैसे ही शक्ति आई कि बीबी लाऊँगा, पैसा लाऊँगा, मकान बनाऊँगा आदि मनसूबे पूरे करने लगा। उस अभागे से यह नहीं बन पड़ा कि हमारे पिता लोमश ऋषि, जैसे जीवन जीते थे, वैसे जिएँ। जिस भी काम में वह लग गया, उसका सफाया हो गया। वह कुछ नहीं कर पाया। कुँभकर्ण भी कुछ नहीं कर पाया। कुँभकर्ण ने अपनी वाणी को शुद्ध नहीं किया और अशुद्ध वाणी से ही जप करता रहा। जब सरस्वती सामने आकर खड़ी हो गईं और बोलीं कि वरदान माँग, तो उसने कहा कि छह महीने सोता रहूँ और एक दिन जगता रहूँ। क्यों क्या बात थी कि ‘छह महीने जागूँ और एक दिन सोऊँ’ का वरदान न माँग सका? अक्ल खराब थी उसकी। उसके मुँह से निकल गया। अगर वह नेपोलियन एक दिन भी नहीं सोता था और जब सोने का वक्त आता तो घोड़े को पेड़ के नीचे खड़ा किया और झट से सो गया, आराम किया और फिर घोड़े को लेकर चल दिया। वह मजे से अपना काम कर लेता था। कुँभकर्ण से तो नेपोलियन अच्छा था। वह न भजन करता, न पूजा करता, दिन में भी काम करता और रात में भी काम करता। कुँभकर्ण का क्या हुआ? बेटे, उसकी मिट्टी पलीद हो गई। क्या फायदा कर लिया उसने? कुछ नहीं कर सका।

मित्रो! इसी तरह हिरण्याक्ष से लेकर हिरण्यकशिपु तक, कंस से लेकर जरासंध तक और मारीचि से लेकर सुबाहु तक, सब−के−सब तपस्वी थे और सब−के−सब भजन करने वाले थे, पूजा करने वाले थे। लेकिन वे अपना आत्मशोधन न कर सके। आत्मशोधन के अभाव में भगवान की कृपा तो मिली, यह तो मैं नहीं कहता कि कृपा नहीं मिलती पर आदमी इससे फायदा नहीं उठा सकता, हाँ, इससे अपना नुकसान जरूर कर सकता है।

हमारी साधकों को गारंटी

इस शिविर में बुलाकर मैं आपको निमंत्रण देता हूँ कि आप ब्रह्मवर्चस की साधना में आने की तैयारी करें। जिस शक्ति की आप तलाश करते हैं, उसको कोई ऐसा देने वाला तो हो, जो आपको दे सके। बेटे, हम गारंटी देते हैं कि वह शक्ति हम आपको दिलाएँगे। महाराज जी! रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु हो और हम उसके पैर पड़ जाएँ, तो जिस तरह से विवेकानंद में उनकी सारी शक्ति आ गई थी, ऐसा ही गुरु हमको मिल जाए और हमको विवेकानंद बना दे, तो बहुत अच्छा हो। अच्छा बेटे, तेरे लिए तो हम कहीं से भी ऐसा गुरु ढूँढ़कर ला देंगे और वह तुझे शक्ति दे देगा, लेकिन पहले तुझे एक काम करना पड़ेगा, तुझे विवेकानंद बनना पड़ेगा। नहीं महाराज जी! पहले मैं अपना फोटो अखबार में छपाने को तैयार हूँ। अमेरिका के लिए मुझको हवाई जहाज का टिकट मिल जाएगा, मैं घूम भी नहीं जाऊँगा और ‘स्पीच’ भी दे आऊँगा। नहीं बेटे, स्पीच देने की बात तो पीछे की है, पहले तुझे विवेकानन्द बनना पड़ेगा।

मित्रो! कैसा विवेकानंद बनना पड़ेगा? अमेरिका में विवेकानंद जिसके यहाँ ठहरे थे, वहाँ एक महिला थी, जो उनसे मजाक करने लगी, दिल्लगी करने लगी। थोड़े दिन उसने साधुजी के साथ कुछ दिल्लगीबाजी शुरू कर दी। अमेरिका में कुछ ऐसा रिवाज ही है। विवेकानंद के गुरु जी ने कहा, अहा.. ! तो ये बात है। उनने लाल−लाल आँखें तरेरीं और कहा कि ठहर जा, तुझे अभी बताता हूँ। क्या तुझे इसीलिए शक्ति दी है? रामकृष्ण परमहंस की आँखों ने वहाँ से देखा और कहा कि स्वयं के लिए, अपने लिए, विलासिता के लिए मेरी शक्ति से लोगों को प्रभावित और चमत्कृत करेगा? उसके द्वारा जो लोगों में श्रद्धा उत्पन्न होगी, तो तू उससे अपने लिए लाभ उठाएगा? अच्छा, ठहर, अभी तुझे बताता हूँ। यह दृश्य देख विवेकानंद वहीं अमेरिका में काँपने लगे। उन्होंने अपने आप को धुना और अपने आप को पीटा। केवल धुना और पीटा ही नहीं, वरन् अपने मन को धोया। उन्होंने अपने मन को समझाया कि अरे मूर्ख! तू समझता ही नहीं कि तू क्या करने जा रहा था।

स्वयं को वैसा बनाओ तो

साथियो! विवेकानंद को उस समय और तो कुछ समझ में नहीं आया था, जब गुरु ने आँखें निकालीं। उन्होंने देखा कि सामने जोर का स्टोव जल रहा है। वे खाना अपने आप पकाते थे। उनका स्टोव के ऊपर रखा तवा जल रहा था। वे जलते हुए तवे के ऊपर बैठ गए। इससे उनके दोनों पुट्ठे जल गए। जब जल गए, तब उस पर से उठे। उन्होंने अपने मन से कहा कि अब तू समझा कि नहीं समझा? आग छूते हैं तो छाले पड़ते हैं कि नहीं पड़ते? हाँ साहब! पड़ते हैं। तो तू उसे छू रहा है, जो आग से भी प्रचंड है। इससे छाले नहीं पड़ेंगे क्या? विवेकानंद गुरु का संकेत समझ गए। इसके बाद महीने भर पड़े रहे, घर पर ही विश्राम करते रहे। एक महीने बाद उन्होंने अपना काम शुरू किया। एक बार वे बोले, महाराज जी! आप कुँडली जगा देंगे? रामकृष्ण परमहंस ने जगा दी। तो गुरुजी, आप भी हमारी कुँडली जगा देंगे? हाँ बेटे, हम जगा देंगे। इसके लिए तो हम व्याकुल हैं। जिस तरह गाय के थनों में दूध फटा पड़ता है और वह उसे अपने बछड़े को पिलाने के लिए व्याकुल रहती है, ठीक वही हाल हमारा है। गाय का दूध फटा पड़ता है तो साहब! हमको पिला दीजिए। बेटे, यही तो हम तो तलाश करते रहते हैं, लेकिन गाय तो अपने बच्चे को ही पिलाती है, कुत्ते के बच्चे को नहीं पिला सकती। गाय गाय के बच्चे को अपना दूध पिला सकती है। अतः आप पहले गाय का बच्चा बनने की कोशिश करें।

साथियो! हमने इस ब्रह्मवर्चस शिविर में आपको इसलिए बुलाया कि आप जो कर्मकाँड करते हैं, जो उपासना करते हैं, पूजा करते हैं, भजन करते हैं, हनुमान चालीसा पढ़ते हैं, जो भी पढ़ते हैं, उसमें एक काम तो यह करें कि उसमें अपने विचारों का समन्वय करें। जितने समय तक आपका जप चलता रहे, उतने समय तक प्रत्येक क्रिया के साथ−साथ, जप के साथ−साथ में जो भावनाएँ जुड़ी हुई हैं, विचारणाएँ जुड़ी हुई हैं, उसमें अपने मस्तिष्क को पूरी तरीके से लगाए रखें। दूसरा विचार उसमें न आने दें। दूसरे विचारों को रोकिए मत, उसकी दिशा बदल दीजिए, जप में लगा दीजिए। वह अपने आप रुक जाएगा।

एक महात्मा ने अपने एक शिष्य से कह दिया कि भजन करते समय तू बंदर का ध्यान मत करना। जैसे ही वह ध्यान करने बैठता, मन में यही विचार आने लगता कि बंदर आ जाएगा। परेशान शिष्य जब महात्मा जी के पास गया तो उन्होंने कहा कि हमने तुझे गलत बता दिया था, अब हम तुझे ठीक बताते हैं। अब से जब भी तू ध्यान किया करे तो गाय का ध्यान किया कर, ‘गऊ माता बैठी है, गऊ माता का ध्यान करता रहेगा, तब तक बंदर नहीं आएगा। तो गुरुजी! मन को भागने से रोक दें। बेटे, मन भागने से नहीं रुकेगा। मन को नहीं भागने दूँगा, मन भाग जाएगा, तो रोक लूँगा, मन को पकड़ लूँगा। मन को मार डालूँगा। बेटे, ऐसा करेगा तो मन भागेगा ही। तो क्या करूं? मन को एक काम में लगा दे। किस काम में लगाऊँ? बेटे, हमारे चिंतन के साथ में भावनाएँ जुड़ी हुई हैं। हवन में हम आपको भावना बताते हैं, जप में हम भावना बताते हैं, उपासना में हम भावना बताते हैं, देवपूजन में हम भावना बताते हैं। उसके साथ मन को जोड़ दे।

पहले हमारे विचारों को पढ़िए

मित्रो! आपने हमारी किताबें पढ़ी नहीं हैं, ध्यान से पढ़िए। आप तो वही छोटी−सी बात पूछते हैं कि लक्ष्मी कमाने के लिए ‘श्री’ बीज मंत्र तीन बार लगाने हैं या पाँच बार लगाने हैं। आप तो केवल यही पूछते हैं जिससे लक्ष्मी फटाफट चली आए और यह नहीं पूछते कि उपासना के साथ−साथ में जितने भी कर्मकाँड हैं, उन कर्मकाँडों के साथ में जो शिक्षाएं भरी पड़ी हैं, प्रेरणाएं भरी पड़ी हैं, दिशाएँ भरी पड़ी हैं, उनको बता दीजिए। बेटे, हमने किताबों में बेशक छापा है, हमने पैंतालीस मिनट की जो उपासना बताई थी, उसका एक विशेषाँक निकाला था। उस विशेषाँक में हरेक को बताया था कि जब आप जप किया करें, तो ये वाला जप किया करें। पूजा−उपासना के संबंध में अभी भी वह हमारी किताब है, उसे तो कोई खरीदता नहीं है और यह कहता है कि महाराज जी! वह किताब बताइए जिससे लक्ष्मी आने लगे। ठीक है बेटे, वह पच्चीस पैसे की आती है, खरीद ले जा। हाँ महाराज जी! वह चार−पाँच कापी खरीद ले जाऊँगा। खरीद ले जा बेटे, सबको लक्ष्मी जा जाएगी। उस विधि वाली किताब को तो लोग खरीद लेते हैं, पर उसे कोई नहीं खरीदता। कौन सी को? उपासना वाली को, जिसमें यह बताया गया है कि उपासना के समय कर्मकाँडों के साथ−साथ किस तरह से हमारे विचारों का चिंतन चलना चाहिए।

चिंतन की आवश्यकता के बाद तीसरा जो चरण आता है, वह है हमारी भावनाओं का। भावना किसे कहते हैं? भावना उस उमंग को कहते हैं, जो क्रिया बिना चैन नहीं लेती, किए बिना चैन नहीं लेने देती। वे कल्पनाएं जो आपके दिमाग में आती रहती हैं कि हम जप करेंगे, संत बनेंगे, महात्मा बनेंगे, ज्ञानी बनेंगे, ब्रह्मचारी बनेंगे और नित्य प्रार्थना करते हैं, ‘हे प्रभु आनंददाता! ज्ञान हमें दीजिए। शीघ्र सारे दुर्गुण छोड़ना तो नहीं है? नहीं महाराज जी! छोड़ने−छोड़ने का चक्कर नहीं है। मैं तो केवल गीत गाता रहता हूँ। अरे! तो गीत से क्या बनेगा अभागे।

मित्रो! क्या करना चाहिए? विचारों के साथ−साथ में हमारे अंदर भावना समावेश होना चाहिए। भावना का अर्थ यह है कि इसके अंदर तड़पन पैदा हो, ऐसी उमंग पैदा हो कि हम इसे किए बिना रह नहीं सकें। आप जो भी क्रिया−कृत्य करें, कर्मकाँड करें, उसके साथ चिंतन भी करें कि हम दीपक की तरह से जिएँगे, हम अपना आत्मशोधन करेंगे। जप करेंगे, नैवेद्य चढ़ाएँगे, इस तरह के जो भी कृत्य हों, इन क्रियाओं के साथ−साथ में विचारो का समन्वय हो। विचारों के समन्वय के पश्चात जब आपके विचार जमने लगें, तो आप यह कोशिश कीजिए कि इसके साथ में भाव अर्थात् उमंगे भी उमगें। हम यही करेंगे, बस यही करेंगे’ का संकल्प जाग्रत हो कि हम श्रेष्ठता से असीम श्रद्धा करेंगे। श्रेष्ठता से असीम श्रद्धा प्यारी चीज नहीं है। हमको श्रेष्ठता से असीम और कोई प्यारा नहीं है। भगवान से ज्यादा ओर कोई प्यारा नहीं। हमको। अनुशासन से ज्यादा प्यारा और कोई नहीं है। हम सबको नाराज कर सकते हैं, पर इसको नहीं करेंगे।

उमंगे भीतर से जन्में

मित्रो! अगर ये उमंगे हमारे भीतर से पैदा हों, तो हमारे जीवन में क्रिया की विशिष्टता आ जाए। कर्मकाँड के साथ में जुड़े हुए विचार, विचारों के साथ जुड़ी हुई भावनाएँ, भावनाओं से ओत−प्रोत, रसविभोर, हमारा जीवन आनंद से सराबोर हो जाए, तो उसका परिणाम हमारे जीवन में संत के रूप में सामने आएगा। इस तरह फिर आप देखिए कि संत बनते हैं कि नहीं बनते? फिर देखिए कि आप ऋषि बनते हैं कि नहीं बनते? फिर देखिए कि आपको भगवान का अनुग्रह प्राप्त होता है कि नहीं? ये सभी चीजें आपको प्राप्त होती चली जाती हैं। शर्त यही है कि आप अपने आप को, अपने जीवन को, अपनी विचारणाओं को, अपने चिंतन को, अपने लक्ष्य को, अपने आदर्श को इस लायक बनाने की कोशिश करें, जैसे कि संत के होने चाहिए। जैसे कि उपासना करने वाले के होने चाहिए। अगर आप थोड़े−बहुत कदम उठाने के लिए तैयार हैं, तो यह आपको सौभाग्य है। लोग तो तलाश करते फिरते हैं कि कोई ऐसी शक्ति हमें मिले, जो इस विषय में पारंगत हो। बेटे, हम अपनी बात तो नहीं कहते, किंतु हमारे गुरु पारंगत हैं। आप भी कह सकते हैं कि वे पारंगत हैं। उनकी हम जमानत दे सकते हैं और कह सकते हैं कि आपकी सहायता हम कर सकते हैं।

महाराज जी! आप अपने गुरु जी के दर्शन करा दीजिए। अब की बार गुरु जी, आप हिमालय पर चलें तो मुझे भी ले चलना। हाँ बेटे, ले चलेंगे, इसमें क्या दिक्कत है! तो फिर गुरु जी की कृपा मिलेगी? नहीं बेटे! कृपा क्यों नहीं मिल सकती? फिर क्या फायदा करेंगे? बेटे, तू पहले विचार कर ले, कृपा का वायदा मैं नहीं कर सकता। मैं तुझे ले चल सकता हूँ, दिखा भी लाऊँगा, पर दिखाने के साथ−साथ यों कहिए कि कोई वरदान−आशीर्वाद देंगे या नहीं, नहीं देंगे तुझे। क्यों? इसलिए नहीं देंगे कि तू वरदान को हजम नहीं कर सकता। वरदान को हजम करने के लायक तेरी स्थिति नहीं है। बेटे, अगर हम वरदान को हजम करने लायक स्थिति पैदा कर लें, तो घर बैठे अनुदान हमें मिल सकते हैं। हमारे गुरु का हम पर अनुग्रह है। वे हिमालय पर रहते हैं, जहाँ जाकर हम लेकर आते हैं, लेकिन आपको तो यहाँ बैठे मिल सकता है। ब्रह्मवर्चस को आरण्यक हमने इसीलिए बनाया है कि वे व्यक्ति उपासना करने के लिए यहाँ आएँ, जिन्होंने सारी जिंदगी भर उपासना की है, पर प्राप्त कुछ नहीं हुआ, पर अब थोड़े समय में प्राप्त कर सकते हैं।

मित्रो! रामकृष्ण परमहंस ने जो जन्म−जन्माँतरों तक की उपासना की और प्राप्त किया, उसको विवेकानंद ने थोड़े दिनों में प्राप्त कर लिया। आप भी थोड़ी देर में प्राप्त कर सकते हैं, जो हमने मुद्दतों से पाया। गाय ने चौबीस घंटे घास खाकर के और उसको हजम करके जो दूध पेट में जमा किया है, उसको आप पाँच मिनट में पी सकते हैं। आपका सौभाग्य है। आप बच्चे हैं, दूध पी लीजिए, गाय ने उसे चौबीस घंटे में तैयार किया है, बेचारी दिन भर घूमती रही और घास खाती रही है, तब दूध जमा किया है उसने। आप उसे पी लीजिए, यह आपका सौभाग्य है। आप दूध पी सकते हैं, लेकिन आपको इतना तो करना ही पड़ेगा कि गाय का दूध पीने के लिए आपको गाय के बच्चे के समतुल्य होना पड़ेगा।

आप गाय के बच्चे के समतुल्य होते हैं कि नहीं, अगर होते हैं, तो विश्वास रखिए, आपको वह सब कुछ मिलेगा, जो एक साधक को मिलना चाहिए। इस शिविर के साथ हमने ब्रह्मवर्चस की साधना को भी जोड़कर रखा है इसमें कुँडलिनी−जागरण भी शामिल है, पंचकोशों का अनावरण भी शामिल है। इसमें भगवान का साक्षात्कार भी शामिल है। इसमें मनुष्य के भी विद्यमान आत्मतत्व का ज्ञान होना भी शामिल है। इसके द्वारा आपके समीपवर्ती वातावरण में स्वर्गीय परिस्थितियों का पैदा होना भी शामिल है। ये सारी−की−सारी विभूतियाँ, विशेषताएँ जो बताई गई थीं, वे सारी−की−सारी सिद्धियाँ आपका स्वागत करती हैं और आपको बुलाती हैं और आपसे प्रार्थना करती हैं कि आप चाहें तो हमें स्वीकार कर सकते हैं। आपको प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है। देवता आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमको स्वीकार कीजिए, लेकिन आपको उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। वह इस रूप में चुकानी पड़ेगी कि आप अपना जीवन परिष्कृत करें। श्रेष्ठ दृष्टिकोण, ऊँचा चिंतन, आदर्श जीवन का स्वरूप बनाएँ। अगर इतना आप बना लें, तो आपको वे सिद्धियाँ और वे चमत्कार, वे ऋद्धियाँ, जिनकी बावत ऋषियों ने बहुत सारे माहात्म्य बताए और वर्णन किए हैं और जिनके लिए आपको मैंने पहले दिन बताए थे और आज अंतिम दिन भी बताता हूँ कि वे सारी−की−सारी सिद्धियाँ और चमत्कार प्राचीनकाल के लोगों के तरीके से आज भी सुरक्षित हैं। लेकिन इसके साथ शर्त है, बिन शर्त नहीं मिलेगा।

बिना शर्त अनुदान नहीं

महाराज जी! बिना शर्त के दिलाइए। नहीं बेटे, बिना शर्त के नहीं मिलेगा। बिना शर्त के हमें कलेक्टर बना दीजिए। नहीं बेटे, बिना शर्त के नहीं बन सकता। कलेक्टर बनने से पहले तुझे ग्रेजुएट होना चाहिए। ग्रेजुएट होने के साथ−साथ में तुझे आई॰ सी॰ एस॰ पास करना चाहिए। तब फिर तुझे कलेक्टर बनवा दूँगा। नहीं महाराज जी! पहले ही बनवा दीजिए, चाहे जैसी भी हो। आप तो इंदिरा गाँधी को बहुत जानते हैं, मोरार जी देसाई आपके मिलने वालों में से हैं, आप हमको तो कलेक्टर बनवा ही दीजिए। अरे! कुछ पास भी है क्या? हाँ, पाँचवें दरजे तक पढ़ा हूँ। तो फिर कलेक्टर कैसे बनवा दूँ। अरे! आपकी तो जान−पहचान है। ऐसे ही तीर−तुक्का मारता है। अरे भाई, तुक्का मारा जाता है कहीं? नहीं साहब! भगवान जी के यहाँ ऐसे ही तुक्का मारो कि हमारा सब काम हो जाएगा। नहीं बेटे, ऐसा तो नहीं हो सकता।

मित्रो! इसके लिए हमको पात्रता का विकास करना चाहिए। पात्रता का विकास करने के लिए मेरे गुरु ने मुझ पर दबाव डाला, तब मैंने अपनी पात्रता का विकास किया। पात्रता का विकास जिस कदर होता चला गया, उसी कदर मुझे देवता का, भगवान का, ऋषियों का अनुग्रह मिलता चला गया। आपके लिए भी वहीं रास्ता है, जो मैंने आपको पहले दिन बताया था कि हमको गायत्री उपासना करते हुए जो चमत्कार और सिद्धियाँ मिली, उसके आधार पर रहस्य को क्यों छिपाया जाए? यह रहस्य बताकर मैं अपनी बात समाप्त करूंगा। आपको मैं फिर यह कहता हूँ कि उपासना से लाभ उठाने के लिए अटूट श्रद्धा का होना निताँत आवश्यक है। श्रद्धा अर्थात् भगवान के आदेशों पर चलने के लिए विश्वास। जैसे कि मैंने आपको एक किसान का किस्सा बताया था कि किस तरह वह अन्य किसानों को तारता चला गया। भगवान पर उसका अटूट विश्वास था। भगवान पर विश्वास के आधार पर यदि आप श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए, आदर्शवादी जीवन जीने के लिए तैयार होते हैं, तो आप अपनी नाव उस पार तो ले जाएँगे ही, अन्य असंख्यों को भी तार देंगे, अपनी नाव पर बिठाकर ले जाएँगे।

तीन का त्रिवेणी संगम

साथियो! अगर आप ऐसा जीवन जी सकते हों तो हमारी राय है कि श्रद्धा एक, चरित्र दो और ऊँचा उद्देश्य तीन, इन तीनों की त्रिवेणी आप मिलाइए। आप तप कीजिए, किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए। भगवान से माँगिए, किसी ऊँचे काम के लिए। देखिए फिर मिलता है कि नहीं मिलता? एक बच्चा जब अपने बाप से रुपये माँगता है कि पिताजी पाँच रुपये दे दीजिए। बाप कहता है क्यों? किसलिए? बच्चा कहता है कि सिनेमा देखने जाना है। पिताजी कहते हैं कि तू रोज−रोज पाँच रुपये ले जाता है और सब सिनेमा में खरच कर देता है। भूखों मरेगा और भीख माँगेगा। सौ गाली देता है। दूसरी ओर एक बेटा कहता है कि पिताजी, अमुक चीज मंदी हो गई है। मंदी चीज को खरीद लेने से उम्मीद हैं कि दो महीने के बाद हमको इसमें से मुनाफा हो जाएगा। हाँ बेटे, ठीक है, खरीद ले। पिता जी, पंद्रह हजार रुपये हों, तो हम माल खरीद लेंगे और बीस हजार रुपये में बेच देंगे। अच्छा बेटे, तो अब क्या करना चाहिए? पिताजी, पंद्रह हजार रुपये का इंतजाम करना चाहिए। अच्छा बेटा, देख अभी करता हूँ। देख तिजोरी में कितने रुपये हैं। नौ हजार हैं और देख ऐसा कर कि अपनी माँ के जेवर ले जा और छह हजार में गिरवी रख दे। कम पड़ेगा तो देख मैं अपने रिश्तेदार को चिट्ठी लिख दूँगा कि तुम मेरी जिम्मेदारी पर दो हजार रुपये दे दो। पंद्रह दिन के अंदर भेज दूँगा।

मित्रो! उसके लिए वह कर्ज माँगता है। अपनी औरत के जेवर बेच देता है। नौ हजार रुपये तिजोरी में रखे हैं, उन्हें निकालकर देता है। हजार रुपये छिपाकर रखे थे, वह भी दे देता है। सब खजाने खोल देता है बाप। क्यों देता है बाप उस बेटे को? इसलिए देता है कि वह किसी ऐसे काम के लिए खरच करना चाहता है कि जिससे बाप की इज्जत, बाप की शान बढ़े। जिस घर में वह रहता है, सबके लिए फायदा होता होता हो, इसलिए वह देता है। फिर बच्चे को पाँच रुपये देने से क्यों इनकार कर रहा था? इसलिए कि वह अपने लिए माँगता है, अय्याशी के लिए माँगता है, बेकार की बातों के लिए माँगता है। इसलिए बाप इनकार करता था। भगवान भी इसीलिए इनकार करता है अनुदान देने से कि आप अपने लिए माँगते हैं। आप ऊँचे उद्देश्य के लिए भजन कीजिए, चरित्रवान बनिए, श्रद्धा से अपना अंतःकरण परिपूर्ण कीजिए। भजन की मात्रा कम हो या ज्यादा, इससे कुछ बनता नहीं है। आप थोड़ा भजन कल लें, वह भी काफी हो सकता है।

श्रद्धा ही है धुरी

मित्रो! आप एकाध घंटा भजन कर लें, तो भी पर्याप्त है। महात्मा गाँधी आधा घंटा भजन करते थे। बिनोवा आधा घंटे भजन करते थे। इन लोगों के थोड़े− थोड़े भजन होते थे। थोड़े भजन में भी चमत्कार हो सकते हैं। शर्त यह है कि आप उसमें खाद−पानी देने और निराई करने का क्रम निरंतर जारी रखें। इसका अर्थ यह होता है कि श्रद्धा का समावेश, चरित्रवान होना और ऊँचे उद्देश्य के लिए उपासनाएँ करना अपने लिए नहीं। अगर आप ये तीन काम कर सकते हों, तो ऋषियों की परंपरा से लेकर हमारी परंपरा तक, सब में एक ही बात चली आई कि भगवान का अनुग्रह आपको मिलेगा, भगवान का प्यार आपको मिलेगा, अगर आपने लोभ और मोह पर अंकुश रखना सीख लिया। आपको यदि लोभ और मोह से ही प्यार है, तो फिर दोनों चीजें आपको नहीं मिल सकतीं। अगर आप एक चीज लेंगे, तो दूसरी आ जाएगी। प्रकाश की ओर चलेंगे, तो छाया पीछे आ जाएगी। छाया की ओर चलेंगे, तो प्रकाश भी नहीं रहेगा और छाया भी नहीं रहेगी।

मित्रो! हम प्रकाश की ओर चलें, तो छाया हमारे साथ−साथ चलती है। छाया को हजारों बार फेंका, हजारों बार धिक्कारा, टेढ़ी आँखें दिखाई, फिर भी वह आ गई। इससे मना करो तो कहती है कि हम फिर भी आएँगे। अतः आप प्रकाश की ओर चलिए, छाया पीछे−पीछे आएगी। छाया की ओर चलेंगे, तो छाया भी आगे−आगे भागेगी। फिर आप प्रकाश को भी गँवा बैठेंगे। बेटे यही है सिद्धाँत। जिसके आधार पर मैंने सारे जीवन में उन्हें दिमाग में उतारकर व्यवहार में लाता रहा। उसका परिणाम है, जो आज आप देखते हैं कि अपनी भी मैंने नाव पार लगा दी और अपनी नाव में बैठाकर असंख्यों को पार लगा दिया। आप भी अपनी नाव पार लगा सकते हैं और असंख्यों को उस पर बैठाकर पार लगा सकते हैं, लेकिन शर्त यही है कि आपका अध्यात्म सही हो। सही अध्यात्म कैसा होता है, इसी का परिचय मैंने आपको इस शिविर में दिया। मुझे आशा है कि आप इस पर विचार करेंगे और उसी के अनुरूप अपने जीवन को ढाले की कोशिश करेंगे। अगर आप ऐसा कर सके तो मैं आपको विश्वास दिला हूँ और आश्वासन देता हूँ कि आपकी साधना वैसी ही सफल होकर रहेगी, आपका ध्यान निश्चित ही लगेगा, जैसा कि हमारे साथ हुआ। आज की बात समाप्त। ॥ ॐ शाँतिः॥


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