कुएँ ने शिकायत करते हुए समुद्र से कहा, “पिता, सभी नदी−नाले आपके घर में जगह पाते हैं। आप प्रेमपूर्वक उन्हें अपने घर में स्थान देते हैं। मुझसे ही पक्षपात क्यों? पिता के लिए तो सभी बेटे−बेटी एक से होते हैं।” समुद्र ने उत्तर दिया, “वत्स! अपने चारों ओर दीवार बनाकर बैठने पर ही तुम्हें जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित रहना पड़ा है। असीम का अनंत प्यार पाने के लिए स्वयं को भी असीम बनना पड़ता है। अपनी सीमाओं का त्याग करके उन्मुक्त रूप से अपने आपको व्यक्त करो अपनी दीवारों को हटा दो। धरती को हरी−भरी, तृप्त करती हुई तुम्हारी धारा जब बंधनमुक्त हो उठेगी, तब तुम सहज ही मुझमें आ समाओगे।”
अदालत में रोते हुए व्यक्ति को देखकर एक सहृदय ने कारण जानना चाहा, तो पता चला कि उसने बहुत पहले अपनी पुत्री के विवाह के लिए कर्ज लिया था। कर्ज समय पर चुका नहीं पाया, तो ब्याज−पर−ब्याज बढ़ता गया और अब तीन सौ रुपये हो गए। ऐसे धनी जो दिया हुआ कर्ज माफ कर दें, बहुत कम होते हैं। वह तो दुगने का कागज दिखाकर हर ढंग से वसूल करने का प्रयास करते हैं। वह कर्जदार तो अवधि बढ़ाने की फरियाद करने आया था। पर अदालत में भी कोई सुनवाई न हुई, क्योंकि मामला बहुत पुराना था। वह रोते हुए घर चला गया। उसकी पत्नी ने बताया कि डिग्री करने वाले कई व्यक्ति आए थे और दरवाजा घेरे काफी देर खड़े रहे। अंत में किसी दयालु व्यक्ति ने कर्ज चुकाकर उन्हें विदा किया। अब समझाते देर न लगी कि जो व्यक्ति अदालत में मुझसे बात कर रहा था, शायद यहाँ आकर उसने मेरा दुःख हलका करने के लिए रुपये चुका दिए हों।
वह व्यक्ति उनका पता लगाते हुए घर पहुँचा और बड़े ही विनम्र शब्दों में कृतज्ञता व्यक्त करने लगा। उन्होंने कहा, भाई, रुपये चुकाए तो मैंने ही हैं, पर कहना किसी से मत, क्योंकि थोड़ा पैसा जेब में होने के कारण यह तो मेरा कर्त्तव्य ही था, जिसे मैंने पूरा किया। यह व्यक्ति थे ईश्वरचंद्र विद्यासागर, जो स्वयं गरीबी में पले थे, किंतु अंत तक उसे भूल नहीं। माँ की सिखावन उन्हें हमेशा याद रही, समर्थ होने के नाते अन्य गरीबों−पिछड़ों के दुःख−कष्ट मिटाने की जिम्मेदारी पूरी लगन से निभाना। उन्होंने कोई भी ऐसा अवसर हाथ से जाने न दिया।