परमार्थी जीवन (kahani)

February 2003

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ईश्वरचंद्र विद्यासागर अभाव और निर्धनता के बीच पढ़ते−पढ़ते 50 रुपये मासिक के नौकर हो गए। उनकी सफलता पर उनके अनेक संबंधी उन्हें आशीर्वाद देने पहुँचे, बोले, “भगवान की दया से तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो गए। आप आराम से रहो और चैन का जीवन बिताओ।” ईश्वरचंद्र जी के नेत्र भर आए, बोले, “आपने यह आशीर्वाद दिया था अभिशाप? जिस अध्यवसाय के बल पर मैं उस भीषण परिस्थिति से निकलकर आया उसे ही त्यागकर मुझे अकर्मण्य बनने की सलाह दे रहे हैं। आपको तो कहना चाहिए था कि जिस गरीबी और अभाव का कष्ट तुमने स्वतः अनुभव किया है, परिस्थितियाँ बदलते ही उसे भुला मत देना। अपने श्रम और सामर्थ्य से अभावग्रस्तों के अवरुद्ध मार्ग माफ करना, जिन्हें जीवन का कुछ आभास ही नहीं, वह उपेक्षा बरतें, ऐश में भूले रहें, तो भूले रहें, मैं कैसे यह अपराध कर सकता हूँ।” तथ्य बतलाते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में इस सिद्धाँत का पूर्ण तत्परता से निर्वाह किया। अगणित अभावग्रस्तों के लिए प्रत्यक्ष−अप्रत्यक्ष रूप में देवदूत की तरह आगे आते रहे। सच्चे अर्थों में उन्होंने परमार्थी जीवन जिया।


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