गुरुकथामृत 40 - मेरे हृदयेश्वर—गुरुदेव भगवान

February 2003

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(समापन किस्त)

श्री रामचंद्र सिंह (धर्मचक्र, जिला छपरा, बिहार निवासी) की अनुभूतियों की दूसरी कड़ी इसमें दी जा रही है। इसमें शाँतिकुँज के शुभारंभ के समय के वे प्रसंग हैं, जो अति महत्त्वपूर्ण हैं। इससे एक सेवक की भक्ति एवं गुरुसत्ता की अलौकिक विभूति का परिचय मिलता है। यह आत्मकथा उन्हीं के शब्दों में प्रस्तुत है।

मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि सन् 1968 से 1972 तक सतत सारे भारतवर्ष के कार्यक्रम में भ्रमण करते हुए भी किस तरह परमपूज्य गुरुदेव शाँतिकुँज आने का समय निकाल लेते थे। मेरे कार्य संबंधी मार्गदर्शन हेतु वे क्षेत्र में जहाँ भी होते, वहाँ से मुझे पत्र भेजते रहते थे। हर पत्र में स्पष्ट निर्देश होता था कि अमुक तारीख को वे किस स्थान पर होंगे, अमुक पते पर निर्माण− कार्य की प्रगति की सूचना भेजने के निर्देश मिल जाते थे। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह होती थी कि हर पत्र के नीचे लिखा होता था, अपने पड़ोसियों से अच्छे संबंध बनाकर रखना।

एक बार गुरुदेव आए तो मैंने बताया कि इन दिनों महात्मा आनंद स्वामी आए हुए हैं। गुरुदेव भगवान मुझे साथ लेकर उनसे मिलने गए। खूब चर्चा व सत्संग, परस्पर विनोद आदि का क्रम चलता रहा। दो महापुरुषों के मिलन व पारस्परिक चर्चा के गहन प्रसंग आज भी मस्तिष्कपटल पर हैं। इस तरह और भी कोई महात्मा आते तो उनसे मिलने जाना होता था। मैं भी साथ रहता था।

परमपूज्य गुरुदेव जिससे भी मिलते, अपनी सज्जनता, सद्व्यवहार व विनम्रता की छाप उस पर छोड़ते थे। प्रारंभिक दिनों में जब नीचे के कमरे बिहारीलाल जी की देख−रेख में बन गए तो उनमें बिजली लेने की बात आई। गुरुदेव मुझे साथ लेकर कैलाशनगर के ठेकेदार के पास गए। उसे अभिवादन किया। वह 22 वर्ष का एक युवा था। बातचीत से इतना प्रभावित हुआ कि स्वयं मुझे साथ लेकर रुड़की अगले दिन गया, लाइन मंजूर हो गई व शाँतिकुँज में पहली बार बिजली आ गई। सन् 1970 की बात है। कैसा भी कठिन कार्य क्यों न हो, बिना किसी व्यवधान के वह आसानी से संपन्न हो जाता था। भगवान श्री के अगस्त 1968 में इस भूमि पर पदार्पण होते ही ज्वालापुर से सप्तसरोवर तक एक सिटी बस आरंभ हो गई थी। यह उनकी कृपा ही थी कि इससे इस क्षेत्र को अत्यधिक राहत मिली थी। इससे पूर्व आवागमन के साधन साइकिल या रिक्शा−ताँगा इत्यादि ही थे। सितंबर, 1969 से पूर्व हमें गंगाजल के लिए काफी दूर दो−ढाई किमी0 की दूरी पार कर जाना होता था। इसी माह गंगा में बाढ़ आई। सप्तसरोवर क्षेत्र में बड़े समीप से एक धारा बहने लगी। बाद में सरकार ने बाँध बना दिया व बड़े व्यवस्थित घाट बन गए। यह मानों उनकी अहैतुकी कृपा ही थी कि साक्षात् गंगा समीप से बहने लगी व बाद में सप्तसरोवर की मुख्य धारा यह बन गई। वैसे वे शाँतिकुँज को भी गंगा में बसा कहते थे। जब भी खुदाई होती, शालिग्राम समान पत्थर निकलते। यहाँ पानी मात्र डेढ़ फीट गहराई पर ही उपलब्ध था एवं गंगा जितना ही मीठा व बढ़िया जल था।

1972 में परमपूज्य गुरुदेव का बिहार का अंतिम यज्ञ कार्यक्रम (विदाई से पूर्व) ‘अखण्ड ज्योति) में प्रकाशित हुआ। मैंने अपने गाँव के लिए भी निवेदन किया था, पर उसका कहीं उल्लेख नहीं था। अपने छोटे−से गाँव में प्रयत्न−परिश्रम करके मेरी अनुपस्थिति में भी गाँव वालों ने मंदिर का निर्माण कर ही लिया था। पूर्णिमा से बक्सर के बीच मेरा गाँव यदुरामपुर (धर्मचक) पड़ता था। घंटाभर रुककर मेरे भगवान मेरे मंदिर में भी अपने करकमलों से प्राण−प्रतिष्ठा करे देते, यही मेरा मन बार−बार कह रहा था। मैं हरिद्वार से चलकर तुलसीपुर, गोंडा, जहाँ कार्यक्रम संपन्न हो रहा था, पहुँचा। पूज्यश्री ने हरिद्वार के समाचार पूछे, निर्माण−कार्य की गति पूछी एवं अकस्मात् आने की वजह जानी। मेरा निवेदन सुनते ही भगवान बोले, “रामचंद्र, अखण्ड ज्योति में क्या छपा है, उसे अलग रख दो। तुम्हारे गाँव की प्राण−प्रतिष्ठा हेतु हमने पहले ही तीन दिन का कार्यक्रम दे दिया है। तुम तीन वर्षों से हमारे सपने को पूरा करने में लगे हो। शाँतिकुँज की आधारशिला रख रहे हो।

क्या हम तुम्हारे लिए तीन दिन भी नहीं देंगे! तुम्हारे गाँव ही रहेंगे। तुम यज्ञ की चिंता मत करना। यज्ञ की तैयारी के लिए हमने रमेशचंद्र शुक्ला को पहले ही भेज दिया है। मूर्ति भी जयपुर से मँगवा ली है। अब तुम वापस जाओ।” मैं भावविभोर हो सब कुछ सुनता रहा। उनके श्रीचरणों को अपने अश्रुओं से धोकर मैं तत्काल वापस शाँतिकुँज आया। कार्य का फेर बनाया एवं यज्ञ की तिथि से दस दिन पूर्व अपने गाँव पहुँच गया।

गाँव में मेरा घर कच्चा खपरैल का बना है। उसमें शौचालय भी नहीं था। दूर खेत में जाना पड़ता था। गाँव के एक व्यक्ति ने पक्का मकान बनवाया था, जिसमें 7-9 कमरे, शौचालय व स्नानघर भगवान के ठहरने की व्यवस्था की। भगवान पधारे। भोजन हेतु मैं उन्हें अपने घर ले गया, उनने भोजन किया, कुछ देर विश्राम किया, फिर मंदिर आकर विधिवत् मूर्ति की प्राण−प्रतिष्ठा की। हजारों की भीड़ जमा हो गई। आस−पास के गाँवों के भी हजारों व्यक्ति मौजूद थे। सबने शाँतिपूर्वक प्रवचन सुना।

प्रवचन समापन के बाद रात्रि में गुरुदेव बोले, यदि तुम्हारे परिवार को कोई असुविधा न हो, तो रात्रि में हम तुम्हारे यहाँ ही सोना चाहते हैं। मैंने विनय−निवेदन किया कि प्रभु, कच्चा मकान है। शौचालय, स्नानघर की भी व्यवस्था नहीं है, इसलिए आपके विश्राम हेतु हम सबने मिलकर पक्के मकान में व्यवस्था की है, ताकि आपको कोई असुविधा न हो। गुरुदेव फिर भी न माने। रमेशचंद्र शुक्ला जी से कहा, उठाओ बिस्तर व चलो रामचंद्र के यहाँ। तुम यहाँ सोना, हम वहाँ रहेंगे। गुरुदेव श्री मेरे घर, मेरी कुटिया में पधारे। चारपाई पर बिस्तर लगा था। उनके श्रीचरण खटिया से बाहर निकल रहे थे। सुबह लगभग साढ़े तीन बजे लालटेन लेकर शौच हेतु खेत में गए। आकर आँगन में गरम पानी से स्नान किया। फिर दरवाजा बंद करके अपनी पूजा−उपासना में लग गए। सवेरे छह बजे परिवार के सभी सदस्यों को बुलाकर उनके दुःख−दर्द का हाल पूछा। सभी को आशीर्वाद प्रदान किया।

यह कार्यक्रम 24, 25, 26 जनवरी, 1972 को संपन्न हुआ। बिहार प्राँतभर के प्रायः पंद्रह हजार गायत्री परिजनों ने इस आयोजन में भागीदारी की। हजारों व्यक्तियों की पीड़ा−दुःख निवारण किया, जो मैंने अपनी आँखों से देखा। तीसरे दिन पूर्णाहुति के बाद गुरुदेवश्री ने अपने कर−कमलों से कुछ जगह छोड़कर एक कन्या विद्यालय का शिलान्यास किया और मेरी लड़की उर्मिला से कहा कि जैसे राजस्थान में श्री हीरालाल शास्त्री ने पेड़ की छाया में पाँच लड़कियों से पढ़ाना आरंभ किया था, वैसे ही यह विद्यालय तुम्हें ही चलाना है। हम जो भी कार्य आरंभ करते हैं, वह विशाल बन जाता है। ऋषियों की वाणी कभी व्यर्थ नहीं जाती। मेरी लड़की उर्मिला सात वर्ष तक शाँतिकुँज में वंदनीया माताजी के प्रशिक्षण में रही। पाँच लड़कियों से उसने उस ग्रामीण संकुल में पढ़ाना आरंभ किया। आज इस स्कूल में, जिसका नाम ‘श्रीराम कन्या विद्यालय’ रखा गया है, लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा लड़कियाँ पढ़ती हैं। तीन शिक्षिकाएँ स्थायी रूप से कार्यरत हैं। बाद में 18 अप्रैल, 1982 को गाँव में एक दीपयज्ञ हुआ और एक कन्या महाविद्यालय बनाने का संकल्प लिया गया। परमवंदनीय माताजी ने संस्कारित शिलाएँ महाविद्यालय भवन के निर्माण हेतु आशीर्वादस्वरूप भेजीं।

परमपूज्य गुरुदेव के मेरे गाँव आगमन, वह भी तब, जबकि विदाई की पूर्व वेला में उनका एक−एक दिन बड़ा महत्वपूर्ण था एवं तीन दिन वहाँ निवास ने मुझे कृतकृत्य कर दिया। मेरे प्रति कितना प्रेम है, इसका एहसास करा दिया। एक प्रकार से ऋण से भी लाद दिया।

जैसे ही मैंने विदाई समारोह (16 से 20 जून, 1972) के समाचार सुने, मेरा भी मन करने लगा कि मैं भी इसमें सम्मिलित होऊँ। मैंने भी आने संबंधी पत्र लिखा। तत्काल उत्तर आया कि हनुमान ने भगवान राम के पहुँचने से पूर्व लंका में सारी व्यवस्था बना दी थी। तुम्हें वहाँ की सारी व्यवस्था हमारे आगमन के पूर्व करनी है, ताकि हमारे हिमालय प्रस्थान के बाद माताजी को कोई असुविधा न हो। पत्र पाकर कर्त्तव्य−बोध हुआ। मैं जी−जान से सारी तैयारियाँ करने में जुट गया। भगवान श्री का पत्र आया कि प्रयास करना कि हमारे आने से पूर्व टेलीफोन लग जाए। टेलीफोन इंस्पेक्टर का ऑफिस ऋषिकेश था। संयोग से वह ‘अखण्ड ज्योति’ पढ़ता था। तत्काल शाँतिकुँज आया। सर्वे किया व एक नियम शुल्क जमा कराने को कहा। काम शुरू हो गया व ऋषियुग्म के आने के पूर्व ही फोन लग गया। इसे मैं उनकी अनुकंपा ही मानता हूँ कि सारी व्यवस्था हो गई, नहीं तो मैं अल्पशिक्षित यह सब कैसे कर पाता।

गुरुदेवश्री 20 जून को शाम आठ बजे माताजी व अखण्ड दीपक के साथ आए एवं दस दिन बाद सबको सोता छोड़ अज्ञातवास के लिए विदा हो गए। एक साल बाद वे हिमालय से लौटे। आते ही युगतीर्थ का विस्तार, कन्या प्रशिक्षण, प्राण− प्रत्यावर्तन, विदेशयात्रा एवं विभिन्न शिविरों के क्रम में लग गए। हिमालय से लौटकर उनने मत्स्यावतार का रूप धारण कर लिया। शाँतिकुँज, गायत्रीनगर, ब्रह्मवर्चस् बने एवं फिर हजारों शक्तिपीठ बनते चले गए। सभी इस लीला को जानते है, पर इस अवधि में मेरे साथ कुछ अलौकिक घटा। मैं ऐसी घटनाओं का साक्षी बना, जो बड़ी विलक्षण थीं।

मेरे एक मित्र दमा से पीड़ित थे। उनके बारे में बताया तो गुरुदेवश्री ने कहा, तुम उन्हें पत्र लिखों कि वे तुलसी का काढ़ा पिएँ। वैसे संभावना यही है कि तुम्हारा पत्र उनको मिले, इसके पूर्व ही वे ठीक हो जाएँ। ऐसा ही हुआ। बाद में हमारे मित्र रामउदार सिंह शाँतिकुँज आए, बोले, स्वप्न में गुरुदेव के दर्शन हुए। उनने छाती पर हाथ फेरकर कहा, तुम्हारी दवा ‘अखण्ड ज्योति’ है। उसे नित्य पढ़ते रहो। उसी दिन से सुधार आरंभ हो गया। अब हम पूर्णतः स्वस्थ हैं। 1976-77 की बात है। पटना से एक इंजीनियर बाबू श्री सत्यतन सिंह जी आए। उनने मुझसे कहा, सीढ़ियों के पास जो शौचालय-कमरा बना है, उसमें निर्माण संबंधी दोष है, जिसमें सुधार जरूरी है। मैंने गुरुदेव भगवान को यह बात बताई। इंजीनियर साहब को बुलाकर उनने चर्चा की। शिविर के बाद उनसे रुकने व नुक्स ठीक करने को कहा। मजदूर लगाकर दुरुस्ती करवा दी गई। इंजीनियर साहब बोले, मेरा पाँच वर्ष का पोता था। बिच्छू के डंक से उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। मेरी पत्नी तथा सभी परिवारीजन इससे दुखी है। तीन लड़कियाँ है, पर लड़का एक ही था। गुरुदेव ने कहा कि यदि बच्चे की आत्मा ने कहीं और जन्म न लिया होगा तो उसी को आपके घर में लौटा देंगे।

इंजीनियर साहब का परिवार लौट गया। वे यहीं रह गए, निर्माण -कार्य देखते रहे। ठीक दस माह बाद पटना से इंजीनियर साहब का पत्र आया कि उसी शक्ल-सूरत का लड़का हुआ है। इंजीनियर साहब ने गुरुदेव के चरण पकड़ लिए। कुछ दिनों बाद परिवार के सभी सदस्य नन्हें शिशु को लेकर आए व आशीर्वाद दिलाकर ले गए। मैं कितना लिखूँ, कितना कहूँ। गुरुदेव भगवान एवं शक्ति का अवतार माताजी के मैंने इतने चमत्कार देखे हैं कि एक पूरा ग्रंथ बन सकता है। सब घटनाओं का मैं स्वयं साक्षी हूँ। यह जानता हूँ कि पात्रता के आधार पर अनुदान बँटता था, फिर वे उस व्यक्ति से काम भी गायत्री के प्रचार-प्रसार का करा लेते थे। ऐसी गुरुसत्ता से मैं जुड़ा, इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles