एक बार बारह वर्ष तक लगातार दुर्भिक्ष पड़ा। पृथ्वी पर बढ़ते अनाचार को देखकर, दुरात्माओं को दंड देने के लिए इंद्रदेव ने कुपित होकर वर्षा का अनुदान देना बंद कर दिया। चारों ओर जलाभाव, अन्नाभाव, लूट−खसोट के कारण त्राहि−त्राहि मच गई। मनीषियों ने विचार किया कि तप और त्याग से ही देव−शक्तियों को प्रसन्न किया जा सकता है। इसके लिए नरमेध यज्ञ रचाया गया, ताकि देवताओं को यह आश्वासन दिलाया जा सके कि धरतीवासियों ने उत्कृष्टता व आदर्शवादिता की परंपरा अपनाना आरंभ कर दिया है। हिचकिचाहट यह थी कि पहले कौन करे?
इस सन्नाटे को चीरकर एक व्यक्ति आगे बढ़ा, नाम था शुनःशेष । उसने यज्ञ के अध्वर्यु और ऋत्विजों को संबोधित कर कहा, यज्ञीय बलिदान के लिए सर्वप्रथम मैं स्वयं को प्रस्तुत करता हूँ। उसका आत्मप्रतिवेदन सुनते ही सहस्रों की भीड़ लग गई, जो परहितार्थाय बलि देना चाहते थे। मनुष्यों की बदली मनोवृत्ति का परिचय पाकर आशुतोष शिवजी प्रसन्न हुए और विपुल वर्षा की व्यवस्था अनुदान रूप में कर दी गई।