व्यक्तित्व के चार नए सोपान

February 2003

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व्यक्तित्व को यदि परिभाषित करना हो तो हमें कई बातों पर ध्यान देना होगा। सर्वप्रथम यह देखना होगा कि हममें समझदारी किस हद तक है। कार्य के प्रति हमारी लगन और निष्ठा कितनी है। भावनाओं और संवेदनाओं का स्तर क्या है एवं मानवीय गुणों और नैतिक मूल्यों में से कितनों को हम किस परिमाण में धारण किए हुए हैं। मोटेतौर पर समग्र व्यक्तित्व इसी परिधि में आता है और यह बताता है कि सामने वाला आदमी कैसा और किस चरित्र का है।

आधुनिक अध्येताओं और मनीषियों ने व्यक्तित्व निर्धारित करने के चार तत्त्व गिनाए हैं—आई॰ क्यू॰ (इंटेलीजेंस कोशंट या बुद्धिलब्धि), पी॰ क्यू॰ (पैशन कोशंट या धुनलब्धि), ई॰ क्यू॰ (इमोशनल कोशंट या भावनात्मक लब्धि) एवं एस॰ क्यू॰ (स्प्रिचुअल कोशंट या आध्यात्मिक लब्धि) इन लब्धियों के आधार पर ही कोई व्यक्ति बड़ा−छोटा, भला−बुरा कहलाता और सम्मान अपमान का भागी बनता है। जिनमें ये लब्धियाँ जितने अंशों में पाई जाती हैं, उनकी सफलता उन−उन क्षेत्रों में उसी मात्रा में सुनिश्चित समझी जाती है। छोटी लब्धि वाले लोग प्रायः असफल माने जाते हैं और जीवन में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि हस्तगत नहीं कर पाते। इसके विपरीत वे लोग हैं, जिनकी कोशंट (लब्धि) बढ़ी−चढ़ी है। ऐसे आदमी औसत से ऊँचे दरजे के होते हैं और उसी के अनुरूप उन्हें अपने कार्यों के परिणाम मिलते हैं।

आई॰ क्यू॰ व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता की मापक है। साधारण तौर पर किसी के बौद्धिक पैनेपन का अंदाज इसी के द्वारा लगाया जाता है। यह पूर्णतः तर्क पर आधारित होती है और बताती है कि सामने वाला आदमी कितना बुद्धिमान है, पर कई बार यह निर्धारण गलत सिद्ध होता है। संसार में कई व्यक्ति ऐसे भी पाए गए हैं, जिनकी आई॰ क्यू॰ तो अति उच्च थी और जो गणित के कठिन सवालों को बड़ी आसानी से हल कर देते थे, पर जब साधारण कक्षा के गणित के प्रश्न उनके सामने रखे जाते तो बगलें झाँकने लगते। ऐसे में उन्हें सही−सही बुद्धिमान या मूर्ख कहना उचित नहीं। वे एक साथ बुद्धिमान भी थे और मूर्ख भी। मूर्द्धन्यों ने उनकी इस विचित्र स्थिति को ठीक−ठीक अभिव्यक्त करने के लिए नया शब्द गढ़ा और उन्हें ‘ईडियट जीनियस’ का संबोधन दिया। इसके बाद से बुद्धि−मापन के इस तरीके पर अनेक बार सवाल उठाए गए और आपत्ति व्यक्त की गई।

सचाई तो यह है कि औसत आदमी कभी भी सर्वज्ञ होता नहीं। वह किसी एक क्षेत्र में विशेषज्ञ हो सकता है, उसमें उसे विद्वत्ता हासिल हो सकती है, पर दूसरे अन्य क्षेत्रों में उसका ज्ञान साधारण ही होता है और कभी−कभी तो उससे भी कम। ऐसे में बुद्धिलब्धि का उपयोग कर किसी व्यक्ति को विद्वान और अनपढ़ किसान को मूर्ख सिद्ध कर देना उचित न होगा। कृषक को कृषि की बारीकियों के संबंध में जितनी जानकारी होती है, उतनी एक इंजीनियर को नहीं। वह अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ होता है। उसे मूर्ख कैसे कह सकते हैं? बुद्धिलब्धि उसे मूर्ख बताती है, पर यथार्थ में वह ज्ञानवान ही है। यह अंतर्विरोध ही बुद्धिलब्धि पर संदेह व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है। ऐसे कितने ही उदाहरण दिए जा सकते हैं, जो बुद्धिलब्धि को शक के दायरे में ला खड़े करते हों, लेकिन यहाँ उद्देश्य उसकी उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न लगाना नहीं है। आपत्ति सिर्फ उनके निर्धारण के तरीके को लेकर है। वह यदि सही हो जाए तो बुद्धिलब्धि एक उपयोगी तत्त्व साबित होगा और उससे उस मस्तिष्कीय क्षमता का ठीक−ठीक निर्धारण हो सकेगा, जिसे ‘समझदारी’ कहते हैं। जो जितना समझदार होगा, उसकी बुद्धिलब्धि उतनी अधिक होती है। समझदारी के कारण ही आदमी विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति करता और सम्मान पाता है। सफलता समझदारी की देन है। व्यक्ति में यदि समझदारी का माद्दा कम हो तो हर क्षेत्र में उसको असफलता ही हाथ लगेगी। ‘आई॰ क्यू॰’ हममें यह समझ पैदा करती है कि किस कार्य को किस ढंग से, कब करने में वह उपयोगी और लाभप्रद सिद्ध होगा, इसलिए व्यक्तित्व को समृद्ध बनाने की दिशा में इसे पहला तत्त्व माना गया है। 20वीं सदी के प्रारंभ में जब यह अवधारणा सामने आई, तो लोगों ने बड़े उत्साह के साथ इसका स्वागत किया, पर इन दिनों वह उत्साह धीरे−धीरे ठंडा पड़ता जा रहा है, क्योंकि अब ज्ञात हुआ है कि आई. क्यू., ई.क्यू. तथा एस. क्यू. का प्रतिशत ऊँचा न हुआ, तो वह आई. क्यू. फिर बहुत उपयोगी सिद्ध न हो सकेगी। अतएव आई. क्यू. के साथ उसके सहयोगी तत्त्वों का होना बहुत जरूरी है।

पी. क्यू. अर्थात् ‘पैशन कोशंट’। इसे ‘धुनलब्धि’ कहते हैं। किसी कार्य के प्रति व्यक्ति में लगन, धुन और निष्ठा कितनी है, यह पी. क्यू. द्वारा निर्धारित होता है। हम कर्त्तव्यनिष्ठ हैं या नहीं और यदि हैं, तो कार्य के प्रति हममें कितना समर्पण है, यह हमें एक जिम्मेदार व्यक्ति सिद्ध करता और ऐसे लोगों की श्रेणी में ला खड़ा करता है, जिन्हें ‘कर्त्तव्यपरायण‘ कहते हैं। कर्त्तव्यपरायणता एक ऐसी विभूति है, जो हमें प्रगति की ओर ले जाती है। अवगति अकर्मठता का नाम है। जो कर्मठ नहीं होगा और कार्य करने में पूर्ण मनोयोग नहीं लगाएगा, उसका हर काम अयोग्य व्यक्तियों के समान होगा, उससे कोई बहुत बड़ी उम्मीद नहीं की जा सकती। उसका जीवन विफल लोगों के सदृश्य होता है। इसके विपरीत लगनशील व्यक्तियों की चतुर्दिक् प्रशंसा होती है। सब उसका सहयोग करते और साथ निभाते हैं। असहयोग तो वहाँ मिलता है, जहाँ कर्त्तव्य के प्रति उपेक्षा बरती जाती है। प्रोफेसर अरिदम चौधरी अपनी पुस्तक ‘काउंट योर चिकेन बिफोर द हैच’ में धनलब्धि की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि यदि कोई यह सोचता है कि उक्त कार्य वह कर सकता है, तो उसको क्रियान्वित करने में उसे तुरंत जुट जाना चाहिए। लक्ष्य के प्रति समर्पण इस बात का सूचक है कि हमने कितनी गंभीरतापूर्वक प्रयत्न किए हैं। जहाँ गंभीर प्रयास होंगे, परिणाम वहीं उत्साहवर्द्धक हो सकते हैं, किंतु कई बार एकनिष्ठ उद्यम के बावजूद भी सफलता कोसों दूर बनी रहती है। वे कहते हैं कि ऐसे व्यक्तियों को असफल नहीं कहा सकता, कारण कि उनने प्राणपण से प्रयास किए हैं। उसमें किसी प्रकार की कोताही नहीं बरती। उदाहरणस्वरूप वे चे गुएवरा और नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नाम गिनाते हैं। दोनों ही क्राँतिकारी थे। दोनों ने ही देश को आजाद कराने का सपना सँजोया था। यद्यपि वे लक्ष्य−प्राप्ति में सफल न हो सके, इतने पर भी उनकी गणना सफल व्यक्तित्वों में होती है। उनका पैशन कोशंट अति उच्च था।

पैशन कोशंट के बाद दूसरा पी0 क्यू0 अर्थात् परसेवरेन्स कोशंट आता है। परसेवरेन्स कोशंट अर्थात् बाधाओं के बावजूद सतत प्रयत्नशील रहने का माद्दा। कई व्यक्तियों की आँतरिक संरचना ही ऐसी होती है कि वे निरंतर बाधाओं से टकराते रहते हैं और इस क्रम में टूटते नहीं और चिंतित और उदास होते हैं। उन्हें ऐसे विघ्नों से बल मिलता है एवं पराक्रम बढ़ता है। वे चाहते हैं कि ऐसे तनाव के क्षण बराबर उनके जीवन में आते रहें और वे अपने पुरुषार्थ से उन्हें परास्त करते रहें। उन्हें इन क्षणों में हताशा नहीं, आनंद का अहसास होता है। जिन्हें तनाव में जीने का मजा आ गया है और जो इस कला को जानते हैं, वे ही बता सकते हैं कि उन्हें ऐसे पलों में कितनी ऊर्जा मिलती है और इन अवसरों पर वे कितने ओजस्वी बन जाते हैं।

पी0 क्यू0 अर्थात् जिम्मेदारी। जो जिम्मेदार हैं, कार्य के प्रति उनकी ही अपूर्व निष्ठा हो सकती है। वे यह नहीं देखते कि उन्हें सौंपा गया कार्य सरल है या कठिनाइयों से भरपूर। हर स्थिति और परिस्थिति में अड़चनों को झेलते हुए उन्हें पूरा करने के लिए वे सदा संलग्न होते हैं। जिम्मेदार व्यक्तियों की यह पहचान है कि वे कार्य को कल के लिए नहीं टालते। न ऐसा करते देखे जाते हैं कि अपना दायित्व दूसरों पर डालकर स्वयं मौज मनाएँ। उनकी कर्त्तव्यपरायणता उन्हें कभी सुस्त नहीं होने देती, न प्रमाद बरतने देती है।

ई0 क्यू0 या भावात्मक लब्धि व्यक्तित्व का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, जो हमें बतलाता है कि किसी परिस्थिति में व्यक्ति कैसी प्रतिक्रिया करेगा। यह भली और बुरी दोनों हो सकती हैं, पर उच्च ई0 क्यू0 वाले लोग हमेशा संतुलित प्रतिक्रिया करते हैं। वे कठिन परिस्थितियों में घबराते नहीं, इसलिए ऐसे समय में उनमें खीझ, निराशा, भय, क्रोध जैसे निषेधात्मक तत्त्व नहीं दिखलाई पड़ते।

नब्बे के दशक के मध्य में मूर्द्धन्य तंत्रिका विज्ञानी डेनियल गोलमैन ने इस तत्त्व से संसार को परिचित कराया। उनका कहना है कि यह ई0 क्यू0 ही है, जो है स्वयं की और दूसरों की भावनाओं के प्रति सचेत करती है। इसके अतिरिक्त सुखद और दुःखद परिस्थितियों में दक्ष प्रतिक्रिया की योग्यता प्रदान करती है। उनका ऐसा मानना है कि आई0 क्यू0 के उपयोग के लिए ई0 क्यू0 का सीमित उपयोग ही संभव है। इसे उनने प्रयोगों द्वारा सिद्ध भी कर दिखाया। देखा गया कि मस्तिष्क का जो हिस्सा महसूस करता है, उसे यदि क्षतिग्रस्त कर दिया जाए तो दक्षतापूर्वक चिंतन करने की शक्ति कमजोर पड़ जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि ई0 क्यू0, आई0 क्यू0 को प्रभावित करती है। यह एक आध्यात्मिक उपलब्धि है, जो हर अध्यात्मपथ के सच्चे पथिकों में पाई जाती है। जिसमें यह जितनी उच्च होगी, उसे उतना ही आध्यात्मिक माना जायगा। महापुरुषों की ई0 क्यू0 काफी अधिक होती है। यह हमें अपनी भावनाओं पर काबू पाने की प्रेरणा देती है और बतलाती है कि विपरीत परिस्थितियों में किस प्रकार संयमित रहा जाए। इसे ‘ईमानदारी’ कहना चाहिए। हमारा ईमानदारी का प्रयास की हमें ऊँचा उठाता और आगे बढ़ाता है। भावनाओं को परिष्कृत करने के संदर्भ में यह यदि लागू नहीं हुआ, तो अध्यात्म−पथ का अनुसरण करने के बावजूद भी हम उस दिशा में ठीक−ठाक तिल जितना भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे। इसलिए ईमानदारी को न सिर्फ अध्यात्म का वरन् भौतिक जीवन का भी मूल कहा जाना चाहिए। इसमें यदि किसी प्रकार की कमी हुई तो हमारी प्रगति प्रभावित होगी और बाधित भी। ई0 क्यू0 हमें उच्च भावसंपन्न बनाकर सच्चे अर्थों में ईमानदार बनने के लिए प्रेरित करती है।

व्यक्तित्व का अंतिम और उच्चस्तरीय सोपान एस0 क्यृू0 कहलाता है। यह आदमी को आध्यात्मिक बनने की प्रेरणा देता और बुद्धि को चिंतन का एक नया आयाम प्रदान करता है। उच्च आत्मिक लब्धि से युक्त व्यक्ति की सोच सृजनात्मकता से ऐसी ओत−प्रोत होती है कि निषेधात्मक विचारधारा उसका स्पर्श तक नहीं कर पाती। दूसरे शब्दों में, इसी को आध्यात्मिक मनुष्य कहते हैं। अध्यात्म व्यक्ति को खरे सोने की तरह इतना प्रखर और अंतर को ऐसा सुँदर बना देता है, जिसका उपमा अनुपम से दी जा सके। उसका चिंतन, चरित्र और व्यवहार उत्कृष्ट हो जाता है। अंतस् इतना कोमल हो जाता है कि दूसरों की पीड़ा से द्रवित हो उठता है। अहंकार का उसमें नामोनिशान नहीं होता। स्वार्थपरता से हमेशा दूर रहता है। दूसरों के हित में ही अपना हित समझता और अपना अहित करके भी दूसरों का हितसाधन करता है। वह संपत्ति को कुबेर की तरह जोड़ने में विश्वास नहीं करता, उसे लुटाने में आनंद की अनुभूति करता है। उसका एक ही लक्ष्य होता है−सुख बाँटो, दुःख बँटाओ। इससे उसे अंतराल में शाँति और शीतलता का ऐसा अनुभव होता है, मानों साक्षात् गंगा का अवतरण हो गया हो। यह सब उच्च आत्मिक लब्धि से संपन्न व्यक्ति की विशिष्टताएँ हैं।

आत्मिक लब्धि को सर्वप्रथम डाना जोहर और इयान मार्शल ने परिभाषित किया। वे अपनी पुस्तक ‘स्प्रिचुअल इंटेलीजेंस−दि अल्टीमेट इंटेलीजेंस’ में इसका विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए लिखते हैं कि आध्यात्मिक विचारधारा को संचालित करने वाला मस्तिष्क में एक केंद्र होता है। इसका नाम ‘गॉड स्पॉट’ दिया गया, जिसकी खोज प्रख्यात तंत्रिका मनोविज्ञानी माइकल परसिंजर एवं मूर्द्धन्य तंत्रिका शास्त्री वी0 एस0 रामचंद्रन ने नब्बे के दर्शक में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में की। यह केंद्र मस्तिष्क के टेंपोरल लोब्स वाले हिस्से में स्थित होता है। अध्ययन के दौरान जब आध्यात्मिक चर्चाओं में संलग्न व्यक्ति के मस्तिष्क की पॉजीट्रान एमिशन टोपोग्राफी द्वारा स्कैनिंग की गई, तो उक्त भाग प्रकाशित पाया गया, जो सिद्ध करता था कि वह हिस्सा उस मध्य सक्रिय था। इस ‘गॉड स्पॉट’ के द्वारा लेखकद्वय यह तो सिद्ध नहीं कर सके कि भगवान का अस्तित्व है या नहीं, पर वे इस निश्चय पर सुनिश्चित तौर पर पहुँच गए कि मस्तिष्क की प्रोग्रामिंग उस अंतिम प्रश्न को जानने की दृष्टि से की गई है, जिसकी जिज्ञासा हर दार्शनिक को रहती है कि वह कौन है, कहाँ से आया है और अतंतः कहाँ चला जाएगा।

आत्मिक लब्धि को इन प्रश्नों के उत्तर पाने की दिशा में प्रारंभिक चरण कहा जा सकता है। जिनकी एस. क्यू. ज्यादा होती है, देखा गया है कि उनमें इस प्रकार के गूढ़ प्रश्नों के प्रति उत्कंठा भी अत्यधिक होती है। इन सवालों का वास्तविक हल अध्यात्म ही दे सकता है, इसलिए ऐसे व्यक्ति आध्यात्मिक होते हैं। सच्चे अर्थों में इन्हें ‘बहादुर’ कहेंगे।

समझदारी, जिम्मेदारी, ईमानदारी और बहादुरी के इन चार उपादानों से समग्र और संतुलित व्यक्तित्व बनता है। इन्हें निर्धारित करने वाले चार तत्त्व आई. क्यू., पी. क्यू., ई. क्यू. और एस. क्यू. हैं, जिनमें जितने परिमाण में यह पाए जाएँगे, उन्हें उसी स्तर का व्यक्ति समझा जाएगा।


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