सरिता भाग रही थी सागर से मिलने के लिए। मार्ग में रेगिस्तान का बीहड़ पड़ता था। मरुस्थल की रेत सरिता को सोखे डाल रही थी। थोड़ी दूर जाकर वह मात्र गीली रेत हो गई। सपना टूटकर चकनाचूर हो गया। उद्गम स्रोत से वह जल लेकर पुनः तीव्र वेग से चल पड़ी, पर फिर उसकी वैसी ही दुर्गति हुई। ऐसा अनेक बार हुआ झुँझलाकर , निराश होकर उसने रेत से पूछा, “क्या सागर से मिलने का मेरा सपना कभी पूरा नहीं होगा?” रेत ने कहा, “मरुस्थल को पार करके जाना, तो संभव नहीं है, पर तू अपनी संपदा बादलों को सौंप दे। वे तुझे सागर तक पहुँचा देंगे।” अपने अस्तित्व को मिटाकर अद्भुत समर्पण का उससे साहस बन नहीं पा रहा था, पर रेत का परामर्श उसे सारगर्भित जान पड़ा। श्रद्धा ने समर्पण की प्रेरणा दी। बादलों पर बूँदों के रूप में सवार होकर वह अपने प्रियतम सागर में जा मिली।
सच्चा समर्पण हो तो भक्त का भगवान से मिलन कठिन नहीं होता, नदी की तरह सुगम बन जाता है।