सिकंदर विश्वविजेता के मद में चूर था। भारत में उसने संतों की महत्ता व उन्हें प्राप्त सिद्धियों के विषय में खूब सुना था। जहाँ उसका डेरा लगा था, उसके समीप ही एक साधु की झोंपड़ी थी। उनकी ख्याति सुनकर वह वहाँ पहुँचा, चेहरे पर छाई तेजस्विता से प्रभावित हुआ, पर देखा कि उनके पास पहनने को न वस्त्र हैं, न रहने को ठीक स्थान। धन के गर्व में मदमत्त हो सिकंदर बोल उठा, महाराज, आपकी मैं क्या सेवा कर सकता हूँ? संत ने कहा, तू क्या सहायता करेगा, मेरा तो एकमात्र आश्रयदाता परमपिता परमात्मा है। कृपा करनी ही हो, बस इतनी कर कि मेरे लिए धूप छोड़ दे, जिसके मार्ग में तू खड़ा है। संत की निस्पृहता से प्रभावित सिकंदर मौन हो लौट गया।
ऋषि धौम्य ने नवागत शिष्य आरुणि की प्रथम दिन ही कठोर परीक्षा ली। उस दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी। गुरु ने शिष्य से कहा, “बेटा आरुणि बारिश में कहीं खेत की मेंड़ टूट न गई हो। सब पानी निकल जाएगा। तुम जाओ और देखो तो जरा, मेंड़ टूट गई हो, तो बाँध आना।”
आरुणि तत्काल उठा। सचमुच खेत की मेंड़ टूट गई थी। पानी का बहाव बहुत तेज था। सब उपाय कर देखे, परंतु मेड़ रुकी नहीं। अब कोई उपाय न देख आरुणि स्वयं उस स्थान पर लेट गया। इस प्रकार पानी के रोके रहने में उसे सफलता मिल गई।
बहुत रात गए तक भी एक वहीं लेटा रहा, आश्रम न लौटा तो ऋषि को चिंता हुई। वे उसे खोजने खेत पर चल दिए। देखा तो छात्र पानी को रोके मेंड़ के पास बेहोश पड़ा है। देखते ही गुरु की आँखें भर आई। उन्होंने शिष्य को कंधे पर उठाया तथा आश्रम की ओर चल दिए।
उपचार—परिचर्या के बाद आरुणि ठीक हुआ तो ऋषि ने अपने तपोबल के प्रभाव से उसे जीवन विद्या में पारंगत बना दिया।