समय की माँग है श्रेष्ठ साहित्य

February 2003

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मानव जीवन के लिए मानव स्वयं एक अबूझ पहेली बना हुआ है। आदिकाल से स्वयं को अधिकाधिक जानना उसके समस्त प्रयत्नों का मूलाधार रहा है। वह कौन है? कहाँ से आया है? जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्या है? जीवन जीने की श्रेष्ठ कला कौन सी है? ऐसे अनेकों प्रश्न उसे सतत् प्रयत्नशील रहने के लिए प्रेरित करते आये हैं। इन्हीं प्रयत्नों के अंतर्गत अध्यात्म तथा दर्शन का सृजन किया गया। किन्तु वे साधारण बुद्धि के लिए सहज बोधगम्य नहीं है। अतः साहित्य रचा गया ताकि सरल एवं सर्वसुलभ माध्यम से जीवन सत्य का ज्ञान हो सके। साहित्य में आनन्द रस का समावेश उसे रुचिकर भी बना देता है। इस प्रकार समाज में जीवन मूल्यों की स्थापना का श्रेय श्रेष्ठ साहित्य को विशेष रूप से जाता है। लघु कहानियों व आख्यायिकाओं ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

इतिहास यथार्थ होकर भी भावदृष्टि से असत्य है जबकि कथा साहित्य काल्पनिक होकर भी सत्य है। आदि से अन्त तक इतिहास धोखाधड़ी, हत्या, लूटपाट, अमानवीय घटनाओं का एक ऐसा विवरण है जो मन को आनन्द के स्थान पर वेदना, रोष एवं ग्लानि से भर देता है। ऐसे इतिहास को सुन्दर नहीं कहा जा सकता और जो सुन्दर नहीं, वह सत्य भी नहीं हो सकता। सत्य वही है जो आनन्दमय भी हो और कल्याणकारी भी। मनुष्य ने संसार में जो सत्य, शिवत्व और सुन्दरत्व प्राप्त किया और प्राप्त कर रहा है, वही साहित्य है।

आदिकाल से आख्यायिका साहित्य का एक मुख्य अंग रही है। समय तथा रुचि के अनुसार इसकी शैली अवश्य परिवर्तित होती रही है। प्राचीनकाल में यह कौतुक उत्पन्न करने अथवा आध्यात्मिक विषयों के प्रतिपादन की दृष्टि से लिखी जाती थी। भागवत पुराण तथा उपनिषद् में आध्यायिकाओं के द्वारा आध्यात्मिक रहस्यों को समझाया गया है। जातक कथाओं और बाइबिल में भी आध्यायिकाओं का आश्रय लेकर धार्मिक सूत्रों को जन-जन के लिए सुलभ बनाया गया। इस प्रकार सुरुचिपूर्ण माध्यम से जीवन सत्य को समझाना आसान हो गया।

स्वादिष्ट से स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ का लगातार सेवन नवीनता के अभाव में अरुचिकर लगने लगता है। उसी प्रकार एक ही तरह के काव्य नाटक पढ़ते-पढ़ते आदमी ऊब जाता है। वह कोई नई वस्तु चाहता है जिसकी उत्कृष्टता भले ही अधिक न हो। हमारे यहाँ प्राचीनकाल में साहित्य की जो मर्यादाएँ बाँधी गयी थीं, उनका उल्लंघन वर्जित था; अतएव काव्य, नाटक, कथा किसी में भी हमने प्रगति नहीं की। जबकि पश्चिम में इसी नवीनता की भूख ने साहित्य में क्रान्ति मचा दी। वहाँ शैली में क्रान्तिकारी परिवर्तन तो हुआ पर उनमें जीवन तत्त्वों के समावेश पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया।

शेक्सपियर के नाटक अनुपम है; पर उनमें जीवन की समस्याओं का कोई समाधान नहीं। आज के नाटकों को उद्देश्य कुछ और है, आदर्श कुछ और है, विषय कुछ और है, शैली कुछ और है। कथा साहित्य में भी विकास हुआ। उसकी शैली पूर्ण रूपेण परिवर्तित हो गयी। उपन्यासों तथा आख्यायिकाओं की कला हमने पश्चिम से ही सीखी। ‘अलिफ लैला’ तथा देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ आदर्श थे। उनमें बहुरूपता थी, वैचित्र्य था, कौतुहल था, प्रेम था पर उनमें जीवन की समस्याएँ न थीं, मनोविज्ञान के रहस्य न थे, अनुभूतियों की इतनी प्रचुरता न थी, जीवन सत्य का स्पष्टीकरण नहीं था।

यूरोप के प्रतिभाशाली महान् लेखकों ने लघु कहानियों-आध्यायिकाओं के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया। बालजाक, मोपासाँ, चेखव, टॉलस्टाय, मैक्सिम गोर्की आदि के प्रयासों से छोटी कहानियों ने साहित्य के सभी अंगों पर विजय प्राप्त कर ली। हिन्दी की प्रत्येक पत्रिका में भी आज तीन-चार कहानियाँ मिलना स्वाभाविक है।

लघु कहानियों के इस बढ़ते प्राबल्य का मुख्य कारण मानव जीवन में बढ़ते संघर्ष और व्यस्तता है। जीवन संघर्ष में मनुष्य स्वयं को भी भूल जाता है। मनोरंजन की आवश्यकता स्वास्थ्य की दृष्टि से न होती और बिना किसी तनाव के अट्ठारह घण्टे कार्य करते रहना संभव होता तो मनोरंजन का नाम भी नहीं लिया जाता। लेकिन प्रकृति के समक्ष हम विवश हैं। अतः कम से कम समय में अधिक से अधिक मनोरंजन की चाह बनी रही। जिस उपन्यास को पढ़ने में कई दिन लगते हैं; उसका आनन्द सिनेमाघर अथवा दूरदर्शन-वीडियो पर ढाई-तीन घण्टे की फिल्म देखकर लिया जा सकता है। एक-आध घण्टे के दूरदर्शन धारावाहिक भी अच्छा मनोरंजन कर देते हैं। प्रतिस्पर्धा के इस युग में लघु कहानियाँ ही विज्ञान के अत्याधुनिक मनोरंजन के साधनों से होड़ ले सकती हैं। अतः कहानी ऐसी हो जो कम से कम शब्दों में कही जाय, एक-एक वाक्य, एक-एक शब्द महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली हो, प्रारंभ से अन्त तक पाठक मुग्ध भाव से पढ़ता रहे, कुछ ताजगी हो, कुछ विकास हो और इसके साथ ही कुछ तत्त्व भी हो। तत्त्वहीन कहानी से चाहे मनोरंजन भले हो जाये, मानसिक तृप्ति नहीं होती। यह सच है कि हम कहानियों में उपदेश नहीं चाहते, लेकिन विचारों को उत्तेजित करने के लिए मन के सुन्दर भावों को जागृत करने के लिए, कुछ न कुछ अवश्य चाहते हैं। वही कहानी सफल होती है, जिसमें मनोरंजन और मानसिक तृप्ति में से एक अवश्य उपलब्ध हो।

सबसे अच्छी कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर आधारित हो। साधु पिता का अपने कुव्यसनी पुत्र की दशा से दुःखी होना मनोवैज्ञानिक सत्य है। पिता के मनोवेगों को चित्रित करना और तदनुकूल उसके व्यवहारों को प्रदर्शित करना, कहानी को आकर्षक बना सकता है। बुरा व्यक्ति भी बुरा नहीं होता। उसमें कहीं न कहीं देवता अवश्य छिपा होता है, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। उस देवता को खोलकर दिखा देना सफल आख्यायिक का काम है। विपत्ति पर विपत्ति पड़ने से मनुष्य कितना दिलेर हो जाता है, यहाँ तक कि वह बड़े से बड़े संकट का सामना करने के लिए ताल ठोंककर तैयार हो जाता है। उसकी सारी दुर्बलता भाग जाती है। और हृदय के किसी गुप्त स्थान में छिपी शक्तियाँ जागृत होकर ऐसे-ऐसे कारनामे करवा देती हैं जो सामान्य क्रम से कदापि सम्भव न थीं। उन गुप्त शक्तियों का लेखनी से प्रभावशाली प्रकटीकरण एक योग्य कलाकारिता है। एक ही घटना या दुर्घटना भिन्न-भिन्न प्रकृति के मनुष्यों को भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित करती है।

हम कहानी में इसको दिखा सकें तो वह अवश्य आकर्षक होगी। जीवन की विभिन्न समस्याएँ उनमें फँसे व्यक्ति के द्वन्द्व और उनका समाधान कहानी को रोचक बना देता है।

कहानियाँ कुछ घटना प्रधान होती हैं और कुछ चरित्र प्रधान। चरित्र प्रधान कहानियों के द्वारा चरित्र के एक अंग को ही इस प्रकार चित्रित किया जाये कि कहानी का सार शाश्वत सत्य पर आधारित तथा सर्वमान्य हो और उसमें जीवन को प्रभावित करने वाली गहराई हो। चरित्र इतने आकर्षक हों, सजीव हों कि पाठक थोड़े परिचय के बाद ही उससे आत्मीयता अनुभव करें अथवा स्वयं को उसके स्थान पर समझने लगे। ऐसे प्रभावशाली चरित्र-चित्रण से मानव हृदय वास्तविक जीवन चरित्रों से भी अधिक प्रभावित होता है। उन काल्पनिक चरित्रों के दुःख से हम भी दुःखी होते हैं और उनकी प्रसन्नता से हर्षित होते हैं। रूखे-पाषाण हृदयी व्यक्ति की अन्तरात्मा भी कहानी की हृदय विदारक घटनाओं पर रो उठती है। कथा के ऐसे चरित्र मानवीय मस्तिष्क पर अपना विशेष प्रभाव इसलिए डालते हैं क्योंकि उनके और हमारे मन के बीच जड़ता का वह पर्दा नहीं होता जो एक मनुष्य के हृदय को दूसरे मनुष्य के हृदय से दूर करता है।

अतः कहानियाँ छोटी तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और यथार्थ जीवन के स्वाभाविक चित्रण को लक्ष्य मानकर लिखी जायें। उनमें कल्पना का कम और अनुभूतियों का अधिक आधार लिया जाये। इसका अर्थ यह नहीं कि पूर्णतया वास्तविक जीवन चित्रण ही किया जाये। अनुभूतियाँ ही रचनाशील भावना से अनुप्राणित होकर कहानी बन जाती हैं। उसमें कई रसों, कई चरित्रों और कई घटनाओं के स्थान पर केवल एक प्रसंग का, चरित्र की एक झलक का सजीव हृदयस्पर्शी चित्रण हो। लेखन का आधार कोई रोचक दृश्य अथवा स्थूल सौंदर्य न होकर कोई ऐसी प्रेरणा हो जो पाठक की सुन्दर भावनाओं को स्पर्श कर सके। उसमें छिपे देवत्व को झकझोर कर जगा सके। हेरियट स्टो के उपन्यास ‘टॉम काका की कुटिया’ ने सम्पूर्ण अमेरिका के हृदय को मथ डाला था। वर्तमान समय की यही पुकार है कि प्रतिभाशाली भावमयी लेखनी इस दिशा में चल पड़े और पाठकों को मनोरंजन के साथ सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें और संघर्ष में जीवन सत्यों की रक्षा करने की प्रेरणा और शक्ति दे।


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