आत्मा की पुकार

February 2003

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आत्मा ने परमात्मा से याचना की, ‘असतों मा सद्गमय’, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, ‘मृत्योर्मा अमृतम् गमय’। ये तीनों ही पुकारें ऐसी हैं, जिन्हें द्रौपदी और गज की पुकार के समतुल्य समझा जा सकता है। निर्वस्त्र होते समय द्रौपदी ने अपने को असहाय पाकर भगवान को पुकारा था। गज जब ग्राह के मुख में फँसता ही चला गया, पराक्रम काम न आया और जब जौर भर सूँड़ जल से बाहर रह गई तो उसने भी गुहार मचाई। दोनों को ही समय रहते सहारा मिला। एक की लाज बच गई। दूसरे के प्राण बच गए। जीवात्मा की तात्विक स्थिति भी ऐसी ही है। उसका संकट इनसे किसी भी प्रकार कम नहीं।

मोटे तौर पर मनुष्य खाता, सोता, रोब गाँठता और शान दिखाता है, विलास वैभव का यथास्थिति लाभ उठाता है, किंतु यह सारा सरंजाम शरीर तक ही सीमित है। समय गतिशील है। वह तेजी से बदलता और आगे बढ़ता है। इसके साथ ही उपलब्धियों की अनुभूतियाँ भी भूतकालीन बनती जाती हैं। इसी बीच इच्छाएँ प्रबल हो लेती हैं। पिछली उपलब्धियाँ स्मरण आती रहती हैं और उनसे भी अधिक अच्छी स्थिति पाने की ललक उभरती है, लिप्सा जगती है। पिछले दिनों जो मिला था, अगले दिनों उससे भी अधिक पाने का मनोरथ इस आतुरता से उभरता है कि वर्तमान की स्थिति असंतोष से ही भरी रहती है। जो मिल चुका, वह चला आया। जो इच्छित है, उसके मिलने का कोई निश्चित समय नहीं। इसलिए मृगतृष्णा स्तर की प्यास से हर घड़ी गला सूखता रहता है। संतोष और चैन का अनुभव हो नहीं पाता। न विगत को वापस बुलाया जा सकता है और न आगत कोई निश्चित आश्वासन ही देता है। इस स्थिति में अशाँत उद्वेग के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर इस स्थिति का कारण क्या है? इस पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो पता चलता है कि जो असत् था, अस्थिर था, नाशवान था, जाने वाला था, उसे चाहा गया, उसे पकड़ा गया। जो स्थिर था, शाश्वत था, सनातन था, सत् चित् आनंद से युक्त था, उसकी उपेक्षा की गई, उसे गौण समझा गया और उस और से नाता तोड़ लिया गया। इसी भूल का परिणाम है कि भीतर और बाहर से सब प्रकार संपन्न होते हुए भी अभावग्रस्तों की तरह, दीन हीनों की तरह उपेक्षणीय जीवन जिया गया।

‘सत्’ स्थिर आत्मा है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो गुण कर्म स्वभाव में सन्निहित मानवीय गरिमा ही ‘सत्’ है। जो सत् को पकड़ता हे, अपनाता है और धारण करता है, उसका आनंद सुरक्षित रहता है। कस्तूरी का पता चलते ही हिरन ही भाग दौड़ बंद हो जाती है और नाभि से निकलने वाली सुवास से वह हर घड़ी आनंदविभोर रहता है। उसे पश्चात्ताप सिर्फ इस बात का होता है कि जो अपने ही पास था, उसकी जानकारी पहले क्यों नहीं हुई और उसकी तलाश में यत्र तत्र भागता रह कर अपनी शाँति क्यों भंग करता रहा! मानव जीवन से इसकी संगति हू ब हू बैठ जाती है। भीतर से उभरी गरिमा बाह्य जीवन को भी उल्लसित, विकसित, विभूतिवान बना देती है, चिंतन, चरित्र और व्यवहार में ऐसी शालीनता भर देती है, जिसका प्रतिफल दसों दिशाओं में अमृततुल्य अनुदान बरसाता है। आत्मा ने उसी के लिए पुकार की है कि उसे ‘सत्’ की उपलब्धि हो। असत् की ओर आँखें, मूँदकर दौड़ पड़ने की प्रवृत्ति रुके। शाँति का सरोवर सामने रहते हुए सड़न भरी दलदल में घुस पड़ने और चीखने चिल्लाने की आदत पर अंकुश लगे। इतना बन पड़े तो किसी से कुछ माँगना चाहना न पड़े। अपने अंतराल से ही आनंद का ऐसा निर्झर बहे, जो अपने को भी गौरव प्रदान करे और दूसरों का भी हितसाधन करते हुए निहाल बने।

आत्मा की दूसरी पुकार है, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’। हे सर्वशक्तिमान! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। जो क्रम अपनाया गया है, वह अंधकार से भटकने के समान है। रात्रि की तमिस्रा में कुछ पता नहीं चलता कि किस दिशा में चल रहे हैं। यथार्थता का बोध न होने से ठोकर खाते और कंटकों की चुभन से मर्माहत होते हैं। कुछ−का−कुछ समझ में आता है, कुछ का कुछ दीख पड़ता है। शरीरगत सुविधाएँ ही लक्ष्य बनी रहती हैं। जड़ का जड़ता के साथ पाला पड़ता है। चेतना का अमृतकुँभ कहाँ रखा है, इसकी प्रतीति ही नहीं होती। वर्तमान और भविष्य अंधकारमय दीखता है। कुबेर का वैभव तो बटोर लिया जाता है, पर वह अंगार बनकर जलाता रहता है। सुख का एहसास उतने पर भी नहीं हो पाता। उत्तम वस्तु भी घातक एवं निकृष्ट बन जाती है। मनुष्य जीवन में भरी हुई विभूतियां यदि सही रूप से पहचानी और प्रयुक्त की गई होती तो उनका लाभ भी मिला होता, पर अंधकार में तो सर्वत्र भय−ही−भय है। मृत्यु का भय, हानि का भय, अपहरण का भय, अपनों से भय, बिरानों से भय। अंधकार का, अज्ञान का ही दूसरा नाम भय है। इसी भय से मुक्ति के लिए अध्यात्म मार्ग में दीक्षित शिष्य गुरु से प्रार्थना करता है, ‘अज्ञानतिमिरान्धस्य, ज्ञानाँजन शलाकया ... ‘ अर्थात् अज्ञानरूपी अंधकार से अंधी आँखों को ज्ञान का अंजन लगाकर खोल दिया जाए। भय चाहे किसी भी प्रकार का हो, वह हमेशा डरावना होता है। डरावनेपन का अनुभव हम रोज ही करते हैं। इस स्थिति में मनः स्थिति इतनी डाँवाडोल हो जाती है। कि आदमी प्राप्त कुछ करना चाहता है, पर कुछ के बदले कुछ हाथ लगता है। अपने पराए, दीखते हैं और पराए अपने। सुँदर आकृतियाँ भी अँधेरे में भूत−प्रेम जैसी कुरूप और भयंकर लगती हैं। डर से जीवन मर−सा गया है। यह अज्ञान−अंधकार की ही करतूत है। प्रकाश भीतर दबा पड़ा है, वह ऊपर से बरसता नहीं। इस विपन्नता से घिरी हुई आत्मा अपने सृजेता से पुकारती है, “अंधकार से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, ले चल!” भटकाव से निकाल और उस राह पर खड़ा कर, जिसे अपनाकर सफलतापूर्वक लक्ष्य तक पहुँचा जा सके। अँधेरे मार्ग में, डरावने मार्ग में, भटकाव भरे मार्ग में विश्राम करना खतरे से खाली नहीं है। अतएव हमें चिर−परिचित पथ पर ले चल, जो सुरक्षित हो और अंतिम सीमा तक पहुँचाता हो। कदाचित् इसी कारण से कवि जयशंकर प्रसाद का मन मुखरित हो उठा हो—

इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्राँति भवन में टिक रहना, किंतु पहुँचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं।

यह उसी आत्मा की आवाज है, जो चीख−चीखकर टेर लगा रही है कि हमें अध्यात्म के प्रकाश−पथ पर ले चलो, भौतिकता की चकाचौंध में न उलझाओ, क्योंकि यह पथ वहाँ तक नहीं जाता, जो जीवन का चरम लक्ष्य है। अध्यात्म का राजमार्ग ही हमें उस चरम बिंदु पर ले जाकर प्रतिष्ठित कर सकता है, जो हमारा प्राप्तव्य है। सचमुच भगवद्प्राप्ति के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। प्रशस्त राजमार्ग का वही चरमोत्कर्ष है, वह इसी बिंदु पर आकर केंद्रीभूत हो जाता है। यही है अंधकार से प्रकाश की ओर गमन।

तीसरी पुकार जीवात्मा की है कि मृत्यु की ओर नहीं, अमृत की ओर ले चल। कुसंस्कारिता के कषाय−कल्मष, संपर्क−क्षेत्र के प्रचलन उस ओर घसीट लिए जा रहे हैं, जिस ओर मरण−ही−मरण है। आत्महनन के उपराँत जो कुछ हस्तगत होता है, उसे मरणधर्मा ही कहा जा सकता है। आकाँक्षाओं की बाढ़ के बहाव में न धैर्य टिक पाता है, न विवेक। जीवन कूड़े−करकट की तरह एक गंदे नाले में बहा जा रहा है। न किनारा ही दीखता है, न ठहराव, न आश्रय।

मनुष्य को जो जीवन मिला है, वह ऐसी अनुपम संपदा के समान है, जो विभूतियों से भरपूर है, पर उनमें से किसी को भी जाग्रत−जीवंत करने का अवसर नहीं मिला। शरीर को, इंद्रियों को विचारणा को, भविष्य को, सभी को बरबाद करने वाली विडंबना ने चेतना पर आधिपत्य जमाया हुआ है। पत्नी से लेकर संतान तक को ऊँचा उठाने की अपेक्षा नीचे गिराने में ही मोह की पूर्ति होती दिखाई पड़ती है। इसे कहते हैं अनगढ़ समझ, जो अमृत बरबाद करती और विष चाटती है।

हे परमात्मन्! अपनी सत्ता का मरण हो रहा है। मौत एक−एक कदम बढ़ती आ रही है और अब−तब में दबोचने ही वाली है। इससे पूर्व हम अपने अंतःकरण को, आनंद को, भविष्य को निरंतर मारते−कुचलते रहें, हे परमप्रभु! इस महामरण से हमें बचा ले और अपनी गोद में बिठाकर अमृत का रसास्वादन करा दें।


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