क्रोध को छोड़ो—अभिमान को त्यागो

February 2003

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स्थविर अनिरुद्ध इन दिनों भगवान् तथागत के साथ कपिलवस्तु आए हुए थे। कपिलवस्तु स्थविर अनिरुद्ध का गृहनगर था। यहाँ की वायु में उनके बचपन की सुगन्ध रची-बसी थी। उनकी किशोरावस्था की उमंगे समायी थी। यहाँ के मृतिकाकणों में उनके जीवन के असंख्य स्मृतिकण बिखरे हुए थे। इस नगरी में पाँव रखते ही उनके मानस पटल पर अनायास ही यादों के अनेकों रंग उभर आए। यादों की असंख्य जलउर्मियाँ उनके मानस सरोवर में तरंगित हुई। शास्ता ने उनकी इस मनोदशा को सहज ही जान लिया। करुणा के अवतार भगवान् की करुणा अपने इस शिष्य पर सहज ही बरस पड़ी।

भगवान् ने करुणा से आपूरित नेत्रों से उनकी ओर ताका। फिर पास में खड़े आनन्द, रेवत एवं तिष्य आदि भिक्षुओं की ओर उन्मुख होकर बोले- भिक्षुओं! कपिलवस्तु बहुत ही सौंदर्यशाली नगर है। इसकी शोभा अनुपम है। तुम सब वत्स अनिरुद्ध के साथ जाकर कपिलवस्तु नगर का भ्रमण कर आओ। भगवान् की इस भक्त वत्सलता ने अनिरुद्ध के अन्तःकरण को भक्ति से संवेदित कर दिया। उसने श्रद्धा विभोर होकर उन्हें प्रणाम किया और भिक्षुओं के साथ नगर भ्रमण के लिए चल पड़े। बढ़ते कदमों के साथ नगर के चतुष्पथ, वीथियाँ एक बार फिर से उनकी स्मृतियों को कुरेदने लगी।

स्मृतियों के संस्पर्श के इस अहसास के साथ वह उस गृहद्वार पर जा पहुँचे जहाँ उनका बचपन गुजरा था। उनके परिवार के स्वजन, पड़ोस के स्नेहीजन उन्हें अपने बीच में इस तरह अचानक पाकर खुशी से फूले न समाए। हर्ष विभोर मन से उन सबने स्थविर अनिरुद्ध का स्वागत किया। बचपन और किशोरावस्था के अनेकों मित्र भी उनसे मिलने आए। इन सबके बीच में अनिरुद्ध की आँखें किसी और को ढूंढ़ रही थी। उन्हें इस तरह किसी को तलाशते देखकर उनकी माँ ने पूछा- किसे ढूंढ़ रहे हो पुत्र? अनिरुद्ध ने बड़े बुझे मन से कहा- रोहिणी नहीं आयी माँ। रोहिणी उनकी सगी बहिन थी। बचपन से युवावस्था में प्रथम पग रखने तक दोनों ने हर पल साथ बिताया था। न जाने कितनी स्नेह-स्मृतियाँ सजी और सँवरी थी मन में। उनके आने की खबर सुनकर रोहिणी का न आना किसी आश्चर्य से कम न था। माँ भी उसके बारे में कुछ नहीं बोली। बस चुप-चाप उठकर बुलाने के लिए चली गयी।

थोड़े समय बाद रोहिणी सामने थी। परन्तु अपना मुँह ढ़ककर आयी थी। स्थविर अनिरुद्ध बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने उससे पूछा कि पहले तो तू आयी नहीं। अब आयी भी है तो मुँह ढँक कर आयी है। इसका कारण क्या है? रोहिणी ने कहा, भ्राता! मेरा चेहरा अनायास विकृत हो गया है। सारे चेहरे पर फफोले हो गए हैं। मैं छवि रोग से पीड़ित हूँ। इसलिए पहले मैं लज्जावश नहीं आयी। आपने बुलाया तो आयी हूँ। लेकिन मुँह ढ़ककर आयी हूँ। क्योंकि मेरा मुख अब दिखाने योग्य नहीं रहा।

बहिन की यह स्थिति देखकर अनिरुद्ध को अपने जीवन के विगत वर्ष स्मरण हो आए। जब उसकी बहिन का अप्रतिम सौंदर्य सर्वत्र चर्चा का विषय था। अपनी स्मृतियों में उन्होंने रोहिणी की एक पूर्व झलक देखी, अंग राग से मंडित मुख, शरीर सुगन्ध में सराबोर। उसके अधर बिम्बाफल थे, भृकुटियाँ विजय के संकल्प वाले धनुष सी तनी थीं। आकर्ण आम्र के फाँक सी आँखों में उल्लास के भंवर पड़ा करते थे। चीनाँशुँक जैसे शुभ्र, भृसण कपोलों में कूप बनते और हँसने पर चन्द्रिका की बौछार सी होती रहती। वही रोहिणी आज इस तरह मुँह ढापे, वह अपनी स्मृतियों से उबरते हुए सोच में डूब गए।

फिर अगले ही पल उन्होंने स्वस्थचित्त होकर हँसते हुए कहा, छोड़ इसकी फिकर। भगवान् का आगमन हुआ है। उनके साथ अनेकों भिक्षु गाँव में आए हैं। उनके ठहरने के लिए एक विशाल भवन बनवाना है, तू उस भवन को बनवाने में लग जा। अपने भाई की यह बात रोहिणी के मन में समा गयी। परन्तु उसके पास इतने रुपये नहीं थे। लेकिन उसने अपने सारे गहने, जेवर बेच दिए और भिक्षुओं के लिए भवन बनवाने में लग गयी। वह इस काम में ऐसा रमी कि अपने रोग को भूल ही गयी। और सबसे सुखद आश्चर्य तो तब हुआ जब भवन बनवाते-बनवाते निन्यानवे प्रतिशत रोग अनायास ठीक हो गया। फिर भी संकोचवश भगवान् के दर्शन को न जा पायी।

उसके द्वारा बनवाए भवन में भगवान् अपने भिक्षुओं के संग पधार चुके और वह स्वयं न आ पायी। यह अचरज सभी को था। परन्तु करुणावतार बुद्ध ने बड़े ही प्रेम से उसे बुलवाया। शास्ता के इस तरह बुलाने पर जब वह गयी तो उन्होंने पूछा, कि वह क्यों नहीं आयी? उसने कहा प्रभु, मेरे शरीर में छवि रोग उत्पन्न हो गया था, उसी से लज्जित होकर नहीं आयी। हालाँकि आपके लिए भवन बनवाने के सत्पुण्य से निन्यानवे प्रतिशत ठीक हो गया है, लेकिन एक प्रतिशत अभी भी बाकी है। अपना कुरूप चेहरा आपको कैसे दिखाऊँ? इसीलिए बचती रही। लेकिन जब आपने आदेश देकर बुलवाया है, तो आयी हूँ, क्षमा करें।

भगवान् ने गम्भीर स्वर में कहा, जानती हो पुत्री, यह रोग किस कारण हुआ है? नहीं भन्ते, वह बोली। भगवान् बोले- तेरे क्रोध के कारण। यह अत्यन्त क्रोध का फल है। और इसीलिए देख कि करुणा से अपने आप दूर हो चला है। तुझे अपने रूप का बड़ा अभिमान था। उस अहं के कारण ही तुझे क्रोध होता था। भिक्षुओं के लिए भवन बनवाने में तू भूल गयी अपने को। तेरा अहंभाव विस्मृत हो गया। तू कुछ इस तरह संलग्न हो गयी इस करुणापूर्व कृत्य में कि अहंकार को बचने का कोई स्थान ही न रहा। इसलिए देख तेरा रोग अपने आप ही दूर हो चला है। लेकिन पूरा दूर नहीं हो पाया। क्योंकि तेरा अहंकार छूटा तो है, परन्तु बोधपूर्वक नहीं छूटा है। इसलिए एक प्रतिशत रोग बचा हुआ है।

रोहिणी भगवान् की बातों को सुखद आश्चर्य के साथ सुन रही थी। भगवान् बिना रुके अभी भी कह रहे थे- पुत्री! तूने करुणा की तो लेकिन जान-बूझ कर नहीं की है। मूर्छा में की है। भाई ने कहा है इसलिए की है। तेरे भीतर से सहज स्फूर्त नहीं है। इसलिए एक प्रतिशत बच रहा है। जाग! जो अभी तू करुणा कर रही है, होश से कर। और जो अहंकार तूने काम में भूलकर भुलाया, उसे जानकर विसर्जित कर दे। इस बात को सुनकर रोहिणी अपने में डूब गयी। भगवान् की करुणा की वृष्टि से उसने अपने अस्तित्त्व में अनुभव किया। अपनी भाव समाधि की दशा से जब वह उबरी तो देखा उसका सारा रोग चला गया। तब भगवान् ने पास में खड़े भिक्षुओं से ये गाथाएँ कहीं-

क्रोधं जहे विप्पजहेय्य मानं सञ्मोजनं सब्बमतिक्कमेय्य। तं नामरुपस्मि असज्जमानं अकिञ्चनं नानुपातन्ति दुक्खा॥

यो वे उप्पतितं कोधं रथं मन्तं व धारये। तमहं सारथिं ब्रूमि रस्मिग्गाहो इतरो जनो॥

अक्कोधेन जिने कोधं असाधु साधुना जिने। जिने कदरिषं दानेन सच्चेन अलिकवादिनं॥

सच्चं भणे न कुञ्झेयं दज्जाप्यस्मिम्पि याचितो। एतेह तीहि ठानेहि गच्छे देवान सन्तिके॥

क्रोध को छोड़े, अभिमान को त्याग दे, सारे संयोजनों के पार हो जाय। इस तरह नाम, रूप में आसक्त न होने वाले तथा अकिंचन पुरुष को दुःख नहीं सताते। जो चढ़े हुए क्रोध को भटक गए रथ की भाँति रोक लेता है, उसी को मैं सारथी कहता हूँ। दूसरे तो केवल लगाम थामने वाले हैं। अक्रोध को क्रोध से जीते। असाधु को साधु से जीते। कृपण को दान से जीते और झूठ बोलने वाले को सत्य से जीते। ‘सच बोले, क्रोध न करे। माँगने पर थोड़ा अवश्य दे। इन तीन बातों से मनुष्य देवताओं के पास जाता है।’ भगवान् की इन गाथाओं के श्रवण ने उपस्थित सभी भिक्षुओं को गहरे मनन और निदिध्यासन के लिए बरबस प्रेरित किया।


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