कल्पना अंतर्मुखी बने, धारणा का स्वरूप ले ले

February 2003

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अन्तर्यात्रा विज्ञान की कड़ियाँ योग साधकों को उनकी साधना से जोड़ रही हैं। इन कड़ियों के द्वारा साधक अपनी साधना से जुड़ते हैं, गूँथते हैं। एक कड़ी के बाद एक नयी कड़ी उनमें योग साधना का नया आयाम उद्घाटित करती है। यही कारण है कि अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रति साधकों की अभिरुचि-अभीप्सा का रूप ले चुकी है। इसके पठन-चिंतन, मनन व निदिध्यासन को भी उन्होंने अपनी साधना का एक अनिवार्य व अविभाज्य अंग मान लिया है। इस अपूर्व साधना ने उनके जीवन में कई अलौकिक अनुभूतियों व उपलब्धियों के द्वार भी खोले हैं। साधना पथ के इन प्रगति द्वारों का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। योग कथा की विगत कड़ी में आगत कड़ी कुछ यूँ जुड़ती रहेगी जैसे भक्त व भगवान् की भावनाएँ जुड़ती हैं, शिष्य और गुरु के हृदय जुड़ते हैं।

योग कथा की ऐसी ही विगत कड़ी में साधक जनों ने पंचवृत्तियों में से दूसरी वृत्ति विपर्यय के बारे में पढ़ा था। महर्षि पतञ्जलि ने साधकों को प्रबोध किया कि विपर्यय एक मिथ्या ज्ञान है। इसे असत् ज्ञान भी कहते हैं। हम किसी वस्तु व्यक्ति या विचार के बारे में जो झूठी धारणाएँ इकट्ठा करते हैं, वही हमारा विपर्यय है। यह और कुछ नहीं बस अपने चित्त की भ्रमित स्थिति है। अब अगले यानि कि समाधिपाद के नवें सूत्र में योग सूत्रकार महर्षि तीसरी वृत्ति का खुलासा करते हुए कहते हैं-

‘शब्द ज्ञानानुयाती वस्तु शून्यो विकल्पः’॥1/9॥

अर्थात् शब्दों के जोड़ से हर एक का परिचय है। हम सभी अपने जीवन के क्षणों को कल्पनाओं से संवारते रहते हैं। कई बार ये कल्पनाएँ हमारे अतीत से जुड़ी होती हैं और कई बार हम इन कल्पनाओं के धागों से अपने भविष्य का ताना-बाना बुनते हैं। हम में से बहुसंख्यक कल्पना करने के इतने आदी हो चुके हैं कि मन ठहरने का नाम ही नहीं लेता। किसी भी कार्य से उबरते ही कल्पनाओं के हिंडोले में झूलने लगता है। भाँति-भाँति की कल्पनाएँ, रंग-बिरंगी और बहुरंगी कल्पनाएँ, कभी-कभी तो विद्रूप और भयावह कल्पनाएँ चाहे-अनचाहे हमारे मन को घेरे रहती हैं। कभी हम इनकी सम्मोहकता में खो जाते हैं, तो कभी इनकी भयावहता के समक्ष हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। स्थिति यहाँ तक है कि कल्पना रस हमारा जीवन रस बन चुका है।

कल्पना रस में डूबे और विभोर रहने के बावजूद हमने इसे ठीक तरह से पहचाना नहीं है। परम पूज्य गुरुदेव इस सम्बन्ध में कहा करते थे- कल्पनाएँ सदा ही कोरी और खोखली नहीं होती, इन्हें ऊर्जा व शक्ति के स्रोत के रूप में भी अनुभव किया जा सकता है। जो योगी ऐसा कर पाते हैं, वे ही सही ढंग से मन की विकल्प वृत्ति का सदुपयोग करना जानते हैं। कैसे किया जाय यह सदुपयोग? इस प्रश्न का पहला बिन्दु है कि कल्पना में निहित शक्ति को उसकी सम्भावनाओं को पहचानिये। यह समस्त सृष्टि ब्रह्म की कल्पना ही तो है हम सब उसके सनातन अंश हैं। ऐसी स्थिति में हमारी कल्पनाओं में भी सम्भावनाओं के अनन्त बीज छुपे हैं।

कल्पना में समायी शक्ति की सम्भावनाओं पर विश्वास करने के बाद दूसरा बिन्दु है - कल्पनाओं की दिशा। गुरुदेव का कहना था हमें सदा ही विधेयात्मक कल्पनाएँ करनी चाहिए। क्योंकि निषेधात्मक कल्पनाएँ हमारी अन्तः ऊर्जा को नष्ट करती हैं। जबकि विधेयात्मक कल्पनाएँ हमारे अन्तः करण को विशद् ब्रह्मांड की ऊर्जा धाराओं से जोड़ती हैं। उसे ऊर्जावान् और शक्ति सम्पन्न बनाती है। इस तकनीक का तीसरा बिन्दु है - कल्पनाओं को अपनी अभिरुचि के अनुसार अन्तः भावनाओं अथवा विवेकपूर्ण विचार से जोड़ना। इस प्रक्रिया के परिणाम बड़े ही सुखद और आश्चर्यजनक होते हैं। अन्तः भावनाओं से सँयुक्त होकर कल्पना कला को जन्म देती है। जबकि विवेकपूर्ण विचार से जुड़कर कल्पना शोध की सृष्टि करती है।

काव्य कला सहित विश्व-वसुधा की समस्त कलाएँ प्रायः इसी रीति से जन्मी, पनपी एवं विकसित हुई हैं। विश्व को चमत्कृत कर देने वाली शोध सृष्टि भी कल्पनाओं के तर्क पूर्ण विवेकयुक्त विचार से सम्बद्ध होने से हुई है। अन्तः भावनाओं एवं तर्कपूर्ण विचार से कल्पना के जुड़ने से इन दोनों के अलावा एक अन्य सुखद परिणति भी होती है। और वह परिणति है- जीवन जीने की कला का विकास। जीवन में एक अपूर्व कलात्मकता,लयबद्धता का सुखद जन्म। इस सत्य से प्रायः बहुत कम लोग परिचित हो पाते हैं। लेकिन जो परिचित हो जाते हैं-उनका जीवन सुमधुर काव्य की भाँति सुरीला, संगीत की तरह लययुक्त एवं नवीन शोध की भाँति आश्चर्यजनक उपलब्धियों का भण्डार हो जाता है।

उचित कल्पना का संस्पर्श पाकर जीवन बड़े ही आश्चर्य रीति से बदल जाता है। यह बदलाव ऐसा होता है जैसे कि पारस लोहे के काले-कलूटे टुकड़े को छूकर सुगन्धित स्वर्ण बना दिया हो। कहानी एमिली जेन की है। जो पहले अपने बचपन में कूड़ा-करकट बीनती थी। बाद में विश्व विख्यात अभिनेत्री बन गयी। उसकी जीवन कथा-‘वन्डर ऑप वर्डस’ के लेखक जेम्स एलविन का कहना है कि एमिली जब छोटी थी एक दिन वह कूड़ा-करकट से कुछ बीन रही थी। बीनती-बीनती वह थक गयी। साथ कुछ लड़के-लड़कियाँ और भी थे। मनोरंजन के लिए सब मिलकर नाचने लगे। तभी वहाँ से अनविन रोजर्ट का गुजरना हुआ।

रोजर्ट ने बच्चों के बीच नृत्य करती हुई एमिली को देखा। उसे संकेत से पास बुलाया और धीरे से कहा प्यारी बच्ची! तुम अद्वितीय हो, सौंदर्य और कला का अपूर्व मिश्रण तुममें है। तुम चाहो तो क्या नहीं कर सकती? सचमुच ही मैं कुछ भी कर सकती हूँ- एमिली ने पूछा। हाँ तुम कुछ भी कर सकती हो। इस एक कल्पना ने अन्तः भावनाओं एवं तर्कपूर्ण विवेक युक्त विचारों से मिलकर एमिली को नया जन्म दिया, वह एमिली जो कला की देवी मानी जाने लगी। तभी तो परम पूज्य गुरुदेव कहते थे- कल्पना को ख्याली पुलाव मत बनाओ। उसे अपनी शक्ति समझो। अपना ऊर्जा स्रोत बनाओ।

कल्पनाओं को यूँ भटकने देना, यूँ ही बहकने देना और उस बहाव में स्वयं भी भटकने व बहने लगना न केवल कल्पना शक्ति की बर्बादी है, बल्कि इससे जीवन भी बर्बाद होता है। ऐसे में विकल्प की यह वृत्ति क्लेश उत्पादक बन जाती है। लेकिन इसका सदुपयोग होने से यह क्लेश निवारक बन जाती है। बस सब कुछ हम साधकों पर है कि उसे अपनी साधना का साधक तत्त्व बनाते हैं या फिर उसे बाधक बने रहने देते हैं। हमारी योग साधना के खरे होने की कसौटी इसे अपनी साधना का साधक तत्त्व बनाने में है। इस विकल्प वृत्ति की साधना यदि बहिर्मुखी हो तो हमें साँसारिक उपलब्धियों के वरदान देती है और यदि इसे अन्तर्मुखी करलें, कल्पना हमारी धारणा का स्वरूप ले ले तो हमें यौगिक विभूतियों के वरदान देती है। यह सब कैसे और किस तरह होगा इसका विवरण अगली कड़ी की विषय वस्तु बनेगी। इसमें चौथी वृत्ति ‘स्मृति’ में समायी शक्ति का उद्घाटन किया जायेगा। योग साधक इस अगली कड़ी की प्रतीक्षा साधनारत रहते हुए करें।


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