आचार्य अग्निवेश से उनके शिष्य ने पूछा, भगवान, आप बताते हैं कि रोग निवारण अकेला ही काफी नहीं, दुर्बलता मिटाने हेतु स्वास्थ्य−संवर्द्धन भी जरूरी है। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मात्र स्वास्थ्य को बढ़ाकर रोग को समूल मिटाया जा सके।
आयुर्वेद के मर्मज्ञ विद्वान आचार्य गंभीर स्वर में बोले, वत्स, किसी भी पोषक तत्त्व की उपयोगिता तभी है, जब विजातीय द्रव्यों को शरीर से हटा दिया गया हो। इसीलिए आयुर्वेद में शोधन को प्राथमिकता और स्वास्थ्य−निर्माण को द्वितीयता दी जाती है। शोधन न किया गया, तो रोग अपनी जड़ जमाए बैठा रहेगा और शेष बाह्योपचार मात्र बनकर रह जाएँगे।
गोपियों ने एक बार बाँसुरी से पूछा, “सुभगे, तुम्हें कृष्ण स्वयं हर समय ओठों से लगाए रहते हैं। हम सब उनकी कृपा पाने के लिए बहुत प्रयत्न करती हैं, परंतु सफल नहीं होती, जबकि तुम बिना प्रयत्न किए ही उनके अधरों पर रहती हो।”
“बिना प्रयत्न किए नहीं गोपियों”, मुरली बोली, “मैंने भी प्रयत्न किया है। जानते हो मुझे मुरली बनने के लिए अपना मूल अस्तित्व ही खो देना पड़ा है।”
गोपियों की तब समझ में आई। बाँसुरी अपने आप में खाली थी। उसमें स्वयं का कोई स्वर नहीं गूँजता था। बजाने वाले के ही स्वर बोलते थे। बाँसुरी को देखकर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह कभी बाँस रह चुकी है, क्योंकि न तो उसमें कोई गाँठ थी और न कोई अवरोध।
गोपियों को भगवान कृष्ण का प्यार पाने का अनूठा सूत्र मिल गया।