सही मर्म ज्ञात हुआ (kahani)

February 2003

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संत फ्राँसिस ने एक कोढ़ी को चिकित्सा के लिए धन दिया, वस्त्र दिए व उसकी सफाई आदि कर सेवा−सुश्रूषा की। एक गिरजाघर की मरम्मत के लिए दुकान की कपड़े की गाँठें बेचकर सारा धन दे दिया। उनके पिता को जब यह पता चला, तो उन्हें मारा—पीटा गया व संपदा के उत्तराधिकार से वंचित करने की धमकी भी मिली।

पिता की धमकी सुनते ही वे घर से निकल पड़े, यह कहकर कि आपने आज मुझे एक बहुत बड़े मोह—बंधन से मुक्त कर दिया। ऐसी संपत्ति को मैं दूर से ही प्रणाम करता हूँ। पिता के दिए कपड़े भी वापस कर, उत्तराधिकार में मिल सकने वाली भारी संपदा को लात मारकर वे घर से निकल गए। कालाँतर में ईसाई धर्म के व्यापक विस्तार में उनका कितना बड़ा योगदान रहा, यह सभी जानते हैं। लोकसेवी अपने मार्ग में बाधा बनने वाली संपदा से मोह न रखकर विश्वमानव की सेवा की ही बात विचारते हैं।

एक संत के पास एक छोटी−सी झोंपड़ी मात्र थी, जिसमें वह सो सकते थे। एक दिन जोरों की वर्षा हुई, किसी ने दरवाजा खटखटाते हुए आवाज दी, क्या अंदर जगह है? संत ने कहा, इसमें एक व्यक्ति सो सकता है, लेकिन दो बैठे रह सकते हैं। आप अंदर आ जाइए। उसे अंदर ले लिया गया और वे दोनों बैठ गए। इतने में ही फिर किसी ने कुँडी खटखटाई। जगह है क्या? संत ने जवाब दिया, यहाँ दो आदमी बैठ सकते हैं, किंतु तीन खड़े रह सकते हैं। दरवाजा खोल दिया गया। तीनों ने वह बरसात की रात खड़े होकर काटी। आध्यात्मिक−समाजवाद की यह व्यावहारिक परिभाषा यदि मनुष्य अपना ले, तो संसार कष्टों से मुक्त हो जाए।

जयनगर पर शत्रुओं का आक्रमण हुआ और वहाँ के राजा को स्त्री−बच्चों सहित रात्रि के अंधेरे में भागना पड़ा। दूर पहुँचने पर एक वृक्ष की छाया में बैठकर राजा−रानी विचार करने लगे कि अगले दिनों उदरपूर्ति किस प्रकार होगी। रानी ने सुझाया, आपने जीवन भर बहुत दान−पुण्य किया है, उसी में से थोड़े−से कुशीनगर नरेश को बेचकर धन प्राप्त कर लिया जाए। कुशीनगर का राजा लोगों के पुण्य खरीदने के लिए प्रसिद्ध था।

राजा सहमत हो गए, पर भूखे पेट कुशीनगर तक पहुँच कैसे जाए? रानी को एक उपाय सूझा, वह बोली, ग्रामीणों के घरों में जाकर आटा पीसेंगे और नित्य के खाने में से जो बचेगा, उसे जमा करती जाऊंगी।

राजा उस दिन रोटी सेंक रहे थे। भोजन के पूर्व ही एक भिखारी वहाँ आ पहुँचा। उसने जब क्षुधित मुद्रा में रोटी माँगी तो राजा हतप्रभ रह गए। अगर यह भी दे दिया, तो खाएँगे क्या? खाएँगे नहीं, तो दूसरे राज्य में कैसे पहुँचेंगे? रानी बोली, हम एक दिन और भूखा रह लेंगे, पहली वरीयता इसकी है। रानी की सलाह पर राजा ने सारी रोटियाँ उसे दे दीं व पूरा परिवार आगे चल पड़ा भूखे पेट।

मार्ग−व्यय के लायक आटा हो गया, तो उसे लेकर राजा बनाते−खाते दस दिन में कुशीनगर पहुँचे। राजा को अपना अभिप्राय सुनाया। उत्तर मिला, धर्मकाँटे पर चले जाइए, जो ईमानदारी का कमाया हो, उसे एक पलड़े में रख दीजिए। काँटा आपको उसी आधार पर स्वर्णमुद्राएं दे देगा।

जयनगर राजा ने अपने पुराने पुण्यों का विवरण काँटे के पलड़े में रखा, पर उससे कुछ भी न मिला। उपस्थित पुरोहित ने कहा, आपने परिश्रमपूर्वक जो कमाया और दान किया हो, उसी का विवरण लिखें।

राजा को पिछले दिनों भिखारी को दी हुई रोटियाँ याद आई। उनने उसका ब्यौरा लिखकर तराजू में रखा। दूसरे पलड़े ने उसके बदले सौ स्वर्ण मुद्राएँ गिन दीं।

पुरोहित ने कहा, उसी दान का पुण्यफल होता है, जो ईमानदारी से परिश्रमपूर्वक कमाया गया हो। राजा को दान का सही मर्म ज्ञात हुआ।


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