प्रकृति और मानव मन की उमंग का पर्व−वसंत पंचमी

February 2003

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वसन्त प्रकृति एवं मानव मन के संयोग का सुन्दर पर्व है। प्रकृति अपने समस्त शृंगार के साथ वसन्त का अभिनन्दन करती है। सुरभित आम के बौर और कोयल की कूक से वसन्त के आगमन का संदेश प्रसारित होता है। इस संदेश से मानव मन भी पुलकित एवं पल्लवित हो उठता है। वसन्त मन में नव उमंग व हृदय में सजल भाव को जगाता है। नयी आशाओं एवं कामनाओं को जन्म देता है। सम्भवतः इन्हीं सभी कामनाओं को परिष्कृत और उदात्त करने के लिए सरस्वती पूजन की परम्परा प्रचलित हुई है। सचमुच ही वसन्त उमंग उत्साह और उल्लास तथा बुद्धि विद्या एवं ज्ञान के समन्वय का पर्व है।

ऋतुराज वसन्त के आगमन के साथ ही प्रकृति का सुन्दर स्वरूप निखर उठता है। पतझड़ के पश्चात् पेड़ पौधे नई-नई कोपलों, फूलों से आच्छादित हो जाते हैं। धरती सरसों के फूलों की वासन्ती चादर ओढ़कर शृंगार करती है। विभिन्न प्रकार के पुष्पों की मनमोहक छटा के साथ पलाश के रंग तथा कोयल की कूक सर्वत्र छा जाते हैं। वसन्त पुष्पों के माध्यम से प्रसन्नता व आनन्द का उपहार सौंपता है। वसन्त के आगमन के साथ ही प्रकृति सजीव, जीवन्त एवं चैतन्यमय हो उठती है। वसन्ती बयार में प्रकृति का रूप ‘नवगति-नवलय-तालछन्द नव’ से समन्वित हो जाता है। प्रकृति कुसुम कलिकाओं की सुगन्ध से गमक उठती है। आम के बौर वातावरण को सुरभित कर देते हैं। प्रकृति के इस परिवेश में मानव भी उसके साथ थिरक उठता है तदाकार हो जाता है। प्रकृति और मानव का यह आनन्द वसन्तोत्सव के रूप में प्रकट होता है।

वसन्त प्रकृति और मानव मन की उमंग की प्रतीक है। वसन्त की यह मादक तरंग मनुष्य के रग-रग में आह्लाद और उल्लास की नव स्फूर्ति भर देती है। प्रकृति के इस सुन्दर सजे आँगन में मानव नूतन सौंदर्य बोध को अनगिन आकार देता है। इन्हीं सब कारणों से वसंतोत्सव भारत की सर्वाधिक प्राचीन और सशक्त परम्परा रही है। प्राचीन ग्रन्थों व पुराणों में वसन्त का सुन्दर और सजीव वर्णन मिलता है। भविष्य पुराण के अनुसार वसन्त काल की शुक्ल त्रयोदशी में उल्लास के देव काम और सौंदर्य की देवी रति की मूर्ति बनाकर सामूहिक रूप से उनका पूजन किया जाता है। इन मूर्तियों को सिन्दूर से सजाया जाता है। भविष्यपुराण में वसन्त का चैत्रोत्सव के रूप में वर्णन किया गया है। ‘वर्ष क्रिया कौमुदी’ शैवागम के एक कथन को उद्धृत करती हुई कहती है कि चैत्र शुक्ल चतुर्दशी को मदन महोत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर सभी नये एवं सुन्दर वस्त्र पहनते हैं तथा नृत्य गायन वादन का दौर चलता है। उस काल का वसन्त आज के होलीकोत्सव जैसा प्रतीत होता है। गरुड़ पुराणानुसार वसन्तोत्सव अगहन त्रयोदशी से प्रारम्भ होकर कार्तिक त्रयोदशी को समाप्त होना चाहिए। इस दौरान शिव की विभिन्न मूर्तियों एवं काम व रति के पूजन का विधान है। उत्सव सोल्लास मनाया जाता था।

वात्स्यायन ने अपने ‘सूत्र-ग्रन्थ’ में तथा इसके अनेक टीकाकारों ने वसन्त पर्व का विशद् वर्णन किया है। वसन्त पंचमी के दिन ‘वसन्तावतार’ नामक ऋतु उत्सव मनाया जाता है। भोज ने अपने ग्रन्थ ‘सरस्वती कण्ठाभरण’ में इस उत्सव का बड़े ही सुन्दर ढंग से चित्राँकन किया है। ‘हरिभक्ति विलास’ ग्रन्थ के अनुसार वसन्त पंचमी के दिन वसन्त का उद्भव हुआ। कालिदास ने ऋतु संहार में प्रकृति और मानव सौंदर्य के अनेक पहलुओं का वर्णन किया है। रत्नावली में इसका ‘वसन्तोत्सव एवं मदनोत्सव’ दोनों नामों से उल्लेख हुआ है। उन दिनों सारा गाँव-नगर आमोद-प्रमोदमय हो जाता था। राजपथ केशर मिश्रित अबीर से नहा उठता था। महाकवि भवभूति के मालती माधव में वसन्तोत्सव का शान्त सुन्दर और स्निग्ध चित्र प्रस्तुत किया गया है। इस दिन मदन की पूजा होती है और सभी लोग अबीर कुँकुम से उत्सव मनाते हैं।

प्राचीन ग्रन्थों में वसन्त ऋतु में मदनोत्सव एवं सुवसन्तक नामक दो महत्त्वपूर्ण उत्सवों का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त उदकश्वेडिका, सहकार मंनिका, पुष्पवचायिका, अम्सूषरवादिका, नवपत्रिका आदि उत्सव भी वसन्त ऋतु में मनाये जाने का संकेत मिलते हैं। मथुरा की शुँग ओर कुषान कला में भी वसन्त का उल्लेख मिलता है। मथुरा के शिल्पियों ने वेदिका स्तम्भों पर वसन्त के नये एवं विभिन्न दृश्यों को चित्रित किया है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी प्राचीन काल में वसन्तोत्सव की लोकप्रियता को सहर्ष स्वीकारते हैं। वसन्तागमन से शीतकालीन जड़ता समाप्त हो जाती है। प्रकृति के रंग में प्रकृतिस्थ होकर मानव भी उल्लसित हो उठता है। मनुष्य के अन्दर का यह उल्लास समाज में आह्लादमय उत्सव के रूप में प्रकट होता है। प्रकृति और मानव परिवर्तन के स्वरूप को स्वीकारते हैं। मन की इसी प्रसन्नता से कलाकार अपनी तूलिका में नया रंग भरता है तो कवि भावनाओं को शब्द में गूँथते हैं। प्रकृति भी चैतन्यमय हो उठती है। प्रकृति की चैतन्यता अशरीरी है परन्तु पंचतत्त्वों से विनिर्मित मनुष्य इसका स्पष्ट अहसास करता है। यह प्रभाव एवं परिवर्तन व्यष्टि से समष्टि तक दृष्टिगोचर होता है। अन्ततः यही परिवर्तन लोकपर्व वसन्तोत्सव के तहत मनाया जाता है।

विज्ञजनों के अनुसार वसन्त प्रकृति और मानव के संवेदनशील सम्बन्धों का साकार रूप है। साहित्य के हर विधा में वसन्त का वर्णन मिलता है। अश्वघोष, कालिदास, माघ और भारवि जैसे प्रख्यात् संस्कृत कवियों से लेकर वर्तमान युग के कवियों का शृंगार है “वसन्त” । ऋतुराज वसन्त के बारे में सुमित्रानन्दन पन्त ने इस तरह अपना उद्गार व्यक्त किया है-

लो चित्रशलय सी पंख खोल, उड़ने को है कुसुमित घाटी, यह है अल्मोड़े का वसन्त, खिल पड़ी निखिल पर्वत घाटी।

पं. रामनरेश त्रिपाठी ने वसन्त के बारे लिखा है-’प्रकृति जब तरंग में आती है तब वह गान करती है उसके गीतों में हृदय का इतिहास इस प्रकार व्याप्त रहता है जैसे प्रेम में आकर्षण, श्रद्धा में विश्वास, और करुणा में कोमलता। प्रकृति के गान में मनुष्य समाज इस प्रकार प्रतिबिम्बित होता है जैसे कविता में कवि और तपस्या में त्याग।’ भक्ति और शृंगार के अद्भुत कवि विद्यापति ने वसन्त को शिशु माना है एवं इसके जन्म का सुन्दर चित्रण किया है- ‘माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को प्रकृति पूर्णगर्भा हुई। नौ माह और पाँच दिन व्यतीत होने पर प्रकृति के आँचल में नवजात वसन्त किलकारी करने लगा। वनस्पतियाँ इसकी सेविका बनीं। सर्वत्र उत्साह और उमंग का वातावरण विनिर्मित हो जाता है। शिशु वसन्त को शीतल वायु से बचाने के लिए मेघों ने छाया कर दी है। धतूरा तुरही बजा रहा है और नागकेशर की कली शंखध्वनि कर रही है। कमल की पंखुड़ियों से मधु लाकर भ्रमर बाल वसन्त को सौंप रहे हैं। कमलनाल को जोड़कर वसन्त के कमर में करधनी पहनायी गयी है।’

नव पल्लवों ने वसन्त की शैय्या तैयार की है और केशर ने उसे बधनखा पहनाया है। कदम्ब ने उसे अपने पुष्पों की माला समर्पित की है तथा मधुकारी लोरियाँ गा रही हैं। अरुण रथ पर आरुढ़ सूर्यदेव जन्मपत्री बना रहे हैं तथा कोयल ने उसका नामकरण वसन्त किया है। दक्षिणी वायु पुष्प पराग लेकर उसके शरीर में उबटन लगा रही है। आम्र मञ्जरियाँ उसे हार पहना रही हैं,मेघ उसके नेत्रों में अंजन लगा रहा है। विद्यापति कहते हैं वसन्त अब तरुण हो गया है। विद्यापति ने तरुण वसन्त की कल्पना इस तरह की है-

देखह माह है मन चितलाय, वसन्त विवाहा कानन धलि आय। मधुकर रमनी मंगल गाय, दुजब कोकिल मंत्र पढ़ाय। करुण मकरंद तथोदक नीर, विधु बरिमानी वीर समीर॥

कबीर ने बीजक में वसन्ती राग को बड़े ही सरस एवं सहज ढंग से गाया है-

जाके बारहमास वसन्त हो, तरके परमारथ बूझे विरला कोय, मैं आपऊँ मेस्तर मिलन तोहि, रितु वसन्त पहिरावहु मोहि।

हरिण केशरी नाम से विख्यात सम्राट हर्षवर्धन ने भी वसन्त का गुणगान किया है। वसन्त को हर कवि ने सहजता से स्वीकारा है और अपनी अभिव्यक्ति दी है। इसे पुष्प समय, पुष्प मास, ऋतुराज, पिकानन्द, कामसखा, फलु, मधु माधव के नामों से भी चित्रित किया गया है। वसन्त की इसी अपूर्व महत्ता के कारण ही गीताकार ने स्वयं को ऋतुओं में श्रेष्ठ वसन्त कहा है।

इस पुण्य पर्व पर सरस्वती पूजन का विधान है। वसन्त के नव परिवेश में मानवीय इच्छा आशाएँ एवं कामनाएँ अंगड़ाई लेती हैं। प्रकृति प्रदत्त इन भावों को परिष्कृत व उदात्त बनाने के लिए ज्ञान की देवी सरस्वती का पूजन किया जाता है ताकि इन भावों को नूतन दिशा मिल सके। मानव उत्साह और उल्लास के साथ ही आत्मज्योति को प्रज्वलित कर सके। वह तमस से प्रकाश की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर बढ़कर अमरत्व का दिव्य उपहार प्राप्त कर सके। इसीलिए इस अवसर पर सरस्वती पूजन किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार वसन्त ऋतु में ग्रहों का योग भी माँगलिक प्रकाश में अनुगमन करता है व ग्रहों की ग्रीष्म स्थिति के प्रारम्भिक काल के परिचित स्वरूप का आभास कराता है। इसलिए भी सरस्वती पूजन का विधान है।

सरस्वती सरिता एवं कला की वाग्देवी के रूप में साँस्कृतिक आस्था का चिरकाल से सम्बल रही है। सरस्वती एक ओर जहाँ विलुप्त नदी के रूप में जन संस्कृति का प्रतीक है तो दूसरी ओर देश भूमियों में व्याप्त भारती की साँस्कृतिक चेतना का विकास है। सरस्वती पूजन कला संस्कृति के रूप में सदियों से जनमानस की आध्यात्मिक जिज्ञासा की प्यास बुझाती रही है। यह अनेकता में एकता समेटे हुए चिर प्रेरणास्रोत होकर विवेकशील जीवन का आदर्श भी बनी रही है। असंख्य कवि कलाकारों ने देवी सरस्वती की साकार प्रतिमा को सत्यं शिवं सुन्दरम् भाव से भरा है।

ऋग्वेद में सरस्वती को पवित्रता, शुद्धता, समृद्धता और शक्ति की देवी माना गया है तथा इन्द्र और मरुत देवता से सम्बन्धित किया गया है। ऋग्वेद के कई सूत्रों में सरस्वती का सम्बन्ध यज्ञ देवता इडा और भारती से जोड़ा गया है। ऋग्वेद ने सरस्वती को पवित्र नदी के रूप में भी उल्लेख किया है। शतपथ एवं ऐतरेय ब्राह्मण में यह पुण्य सलिला, नदी देवता और वाकदेवता के रूप में दिखाई देती है। शिवपुराण, वायुपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराणों में इन्हें ब्रह्मा की पत्नी रूप में निरूपित किया गया है। इन पुराणों में सरस्वती को अनेक विद्याओं की, कलाओं की अधिष्ठात्री देवी माना गया है। वैदिक वाङ्मय में सरस्वती का अन्नाती तथा उदकवन्ती के नाम से उल्लेख किया गया है। शिवपुराण में सरस्वती को विराट् विश्व के समान दर्शाया है। वाजसनेयी संहिता को इन्द्र को शक्ति प्रदान करने वाली देवी के रूप अलंकृत किया गया है। दुर्गा सप्तशती के तृतीय चरित्र में महासरस्वती के दिव्य चरित्र का विशद् विवरण प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रन्थ के अनुसार महासरस्वती दुर्गा का एक रूप है। सरस्वती सतोगुण का उत्कर्ष है। महाभारत सरस्वती को इस प्रकार कहा है-

दिव्या आपस्तधौषयः श्रद्धा मेधा सरस्वती, अर्थो धर्मश्च कामश्च विद्युतश्चैव पाण्डवः।

पुराणों में देवी सरस्वती का उल्लेख कई प्रकार से मिलता है। कहीं-कहीं सरस्वती को ब्रह्म की पुत्री माना गया है। भागवत् के तृतीय स्कन्ध में इस बात की पुष्टि हुई है। इसके अनुसार इनका जन्म ब्रह्म के मुख से हुआ है। मत्स्यपुराण में उल्लेख मिलता है कि वेदों में ब्रह्म और सरस्वती का अमूर्त निवास है। सरस्वती का नाम सतरूपा भी है जिसके पर्याय वाणी, वाग्देवता, भारती शारदा, नागेश्वरी इत्यादि है। इन्हें शुक्ल वर्णा, श्वेत वस्त्र धारिणी, वीणा वादिनी तथा श्वेत मदुमासना के नाम से भी जाना जाता है। पुराणों के अनुसार वाल्मीकि, बृहस्पति और भृगु को क्रमशः नारायण, मरीचि तथा ब्रह्म ने सरस्वती मंत्र प्रदान किया था।

सरस्वती की साधना एवं उपासना वसन्त के उल्लास के साथ त्याग तप और आनन्द का परिचायक है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार वसन्त के अग्रदूत श्रीकृष्ण ने सर्वप्रथम सरस्वती पूजन कर विधान किया था। इसके अनुसार-

आदौ सरस्वती पूजा श्रीकृष्णेन् विनिर्मितः, यत्प्रसादान्मुति श्रेष्ठो मूर्खो भवति पण्डितः।

श्रीमद्भागवत ने भी कृष्ण के सरस्वती पूजन की बात को स्वीकारा है। कहते हैं तभी से भारतवर्ष में वसन्त पंचमी के दिन सरस्वती पूजन का क्रम चल पड़ा। सरस्वती की उपासना-आराधना वैदिक धर्मावलम्बियों तक ही सीमित नहीं है। जैन मतावलम्बी भी इनकी उपासना करते हैं। बौद्ध धर्म सरस्वती पूजन की मान्यता प्रदान की है। बौद्ध ग्रन्थ साधनमाला के अनुसार सरस्वती अपने भक्तों को ज्ञान और समृद्धि देती है। तिब्बत में सरस्वती को महासरस्वती, वज्रशारदा और वज्रसरस्वती आदि रूपों में देखा जा सकता है। तिब्बत वासी इन्हें वीणासरस्वती तथा चीन निवासी ‘नीलासरस्वती’ के रूप में मानते हैं।

वीणा, पुस्तक, कमल, हंस और जल के समायोजन से संगीत देवी सरस्वती का कला सौंदर्यमय कल्याणी रूप आराध्य बना रहा है। वीणा हस्त स्वर तंत्री और संगीत कला के समृद्ध रूप को स्पष्ट करती है। पुस्तक लोक शास्त्र में संचित अनुभवों का ‘सरस्वती श्रुती महती व धीमताम्’ के रूप में स्मरण दिलाती है। कमल माधुर्य, सौंदर्य और अनासक्तभाव को रूपांतरित करने वाला है। सरोवर का जल हृदय में भाव समुंदर की ओर संकेत करता है। सरोवर में उठने वाली उर्मियाँ लहरें हृदय रूपी भाव सागर में प्रतिपल-प्रतिक्षण उठने वाली उत्साह एवं उमंग को प्रदर्शित करती हैं। जीवन इसी उमंग और भावनाओं के लय से सतत संचरित होता रहे। इन दिव्य भावों के ध्यान से आस्था अपने पवित्र एवं प्रखर स्वरूप को प्राप्त करती है। इस प्रकार सरस्वती की भावभरी प्रतीकोपासना उपासक को नूतन चेतना एवं नवीन भाव से भर देती है। साथ में वातावरण की सूक्ष्म चेतना प्रकृति के कण-कण में तथा मानव के रग-रग में घुलकर वासन्ती उल्लास बिखेरती रहती है।

भारतीय मनीषा ने शृंगार की देवी सरस्वती को साधना से जोड़कर और भी अमूर्त व अवर्णनीय कर दिया है। प्राचीन काल से ज्ञान रूपी यही विचारधारा समस्त जगत् को अपने भावधारा से सिंचित करती रही है परन्तु रचनाकार की स्थूल दृष्टि एवं विकृत भाव के काया को ही सर्वोपरि मान लेने से विसंगतियाँ उत्पन्न हो गई हैं। काया का शृंगार संकीर्ण मन एवं संकुचित भाव में सिमटकर विकृति एवं सड़ांध उत्पन्न करता है। इसे जन-मन के परिष्कार के लिए ज्ञान एवं कला धारा के रूप में सतत प्रवाहमान होते रहना चाहिए। तभी जीवन में चिरन्तन सहजता एवं प्रफुल्लता आ सकती है। सरस्वती पूजन वसन्त के उमंग के साथ त्याग, तप और आनन्द का पर्व है। इस पर्व को साहित्यकार,रचनाकार एवं कवि ने अपनी रचनाओं में विभिन्न ढंग से स्थान दिया है। इन्होंने देवी सरस्वती की ज्ञान एवं कला दोनों रूपों में उपासना अभ्यर्थना की है। सरस्वती ज्ञान के अनन्त आयाम के साथ-साथ कला की सूक्ष्मताओं एवं वाणी की मधुरता में भी समाहित हुई है। पद्मपुराण इसका इस तरह से उल्लेख करता है-

कण्ठे विशुद्धशरणं षोड्शारं पुरोदयाम्। शाम्भवीवाह चक्राख्यं चन्द्रविन्दु विभूषितम्॥

अर्थात् सरस्वती साधना से कण्ठ से सोलह धारा वाले विशुद्ध शाम्भवी चक्र का उदय होता है वह चन्द्र बिन्दु से विभूषित रहता है। इसका तात्पर्य है सोलह स्वरों की आत्मा चन्द्रामृत से दीप्त रहती है। इसी को शिवसंहिता में देदीप्यमान स्वर्ण वर्ष कमल की सोलह पंखुड़ियों के रूप में प्रदर्शित किया गया है। इस चन्द्र पर ध्यान करने से वाणी सिद्ध होती है।

सरस्वती की काव्य साधना भारतीय साहित्य साधना के क्रमिक विकास का प्राण तत्त्व भी रही है। सरस्वती साधना का यही स्वरूप वाल्मीकि का मूल स्वर बना तथा तमिल के कवि कम्ब के रामायण में निखर उठा। महाभारत में व्यासजी ने आराध्य सरस्वती को इस तरह स्मरण किया है-

नारायणं नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तमं। देवी सरस्वती व्यासं तनो जयमुदीरयते॥

इस तरह देवी सरस्वती का स्वरूप भारतीय संस्कृति में बड़े ही प्रखर और दिव्यता से अंकित हुआ है। एक ओर जहाँ सरस्वती संस्कृति के प्रतिमानों में उतरी है तो वहीं दूसरी ओर भारतीय वैदिक साहित्य से पुराण तथा अन्य धार्मिक साहित्यों में भी उनका स्वरूप दृष्टिगोचर होता है। सरस्वती विद्या और संगीत की सबसे प्राचीन अधिष्ठात्री देवी मानी जाती है। इस तरह वसन्त के इस दिव्य वातावरण में वसन्ती छटा एवं ज्ञान के आलोक का समन्वय एक नवीन एवं अमूर्त भाव का सृजन करना है। साहित्य की दृष्टि से हो या लोक उत्सव के परिप्रेक्ष्य में वसन्त मानवता का महान् संदेशवाहक है। वसन्त में उमंगती और पल्लवित नवीन कामनाओं को ज्ञान और विवेक नई दिशा एवं मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। सरस्वती पूजन अंधकार में उजाले, तमस में सक्रियता तथा शुष्क जीवन में आशा एवं उमंग का संचार करते हुए एक नई दिशा देता है।

अतः वसन्त हर्षोल्लास का पर्व है जिसमें सरस्वती पूजन, बुद्धि, विद्या और ज्ञान के द्वारा भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करता है। विवेक का प्रज्वलन ही इस पर्व का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। वसन्त का पावन दिन ही परमपूज्य गुरुदेव का आध्यात्मिक जन्म दिवस भी है। इसलिए यह पर्व हमारे लिए और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यह संकल्प का पर्व है, मानवता के लिए मर-मिट जाने का पर्व है,जीवन को प्रकृति के साथ एकाकार कर देने का उत्सव है। वसन्त में जीवन आशा उत्साह उमंग से भरा रहे तथा विद्या और बुद्धि का समुचित सुनियोजन होता रहे तभी इस पर्व की सार्थकता सिद्ध हो सकती है।


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