राजस्थान के हीरालाल शास्त्री साधारण अध्यापक थे। उनने नौकरी से पेट पालते रहने की अपेक्षा नारी शिक्षा को जीवन का लक्ष्य बनाया और एक छोटे देहात में अपने बल-बूते छोटा कन्या विद्यालय चलाने लगे। लगन और उपेक्षा के आधार पर किए गए कामों में जमीन-आसमान जितना अंतर होता है। लगनपूर्वक चलाए गए कन्या विद्यालय की सार्थकता और लोकप्रियता आकाश चूमने लगी। समर्थन की कमी न रही। छप्पर के नीचे आरंभ किया गया वनस्थली बालिका विद्यापीठ देश की मानी हुई शिक्षण संस्थाओं में से एक है। शास्त्री जी के प्रति जनता की अपार श्रद्धा थी। लोकसेवा ने उन्हें राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर प्रतिष्ठित किया। उनकी स्मृति में डाक टिकटें तक छपीं। इस महान् उपलब्धि के पीछे लोकसेवा की प्रेरणा ही छिपी हुई थी।
काशिराज युवराज संदीप के विकास से संतुष्ट थे। वे प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाते, व्यायाम, घुड़सवारी आदि में प्रवृत्त रहते। समय पर अध्ययन और राजदरबार के कार्यों में रुचि लेना आदि सभी प्रवृत्तियाँ ठीक थीं। एक क्षण भी न गँवाते और न किसी दुर्व्यसन में उलझते, किंतु राजपुरोहित बार-बार आग्रह करते कि उन्हें कुछ वर्षों के लिए किसी संत के सान्निध्य में, आश्रम में रखने की व्यवस्था बनाई जाए। काशिराज सोचते थे कि राजकुमार को इसी क्रम में राजकार्य का अनुभव बढ़ाने का अवसर दिया जाए।
तभी एक घटना घटी। राजकुमार नगर भ्रमण के लिए घोड़े पर निकले। जहाँ वे रुकते, स्नेह भाव से नागरिक उन्हें घेर लेते। एक बालक कुतूहलवश घोड़े के पास जाकर पूँछ सहलाने लगा। घोड़े ने लात फटकारी और बालक दूर जा गिरा। उसके पैर की हड्डी टूट गई। राजकुमार ने देखा, हँसकर बोले, असावधानी बरतने वालों का यही हाल होता है, और आगे बढ़ गए। सिद्धाँततः बात सही थी, पर लोगों को व्यवहार खटक गया। काशिराज को सारा विवरण मिला, तो वे भी दुःखी हुए। राजपुरोहित ने कहा, महाराज! स्पष्ट हुआ है कि युवराज में संवेदनाओं का अभाव है। मात्र सतर्कता-सक्रियता के बल पर वे जनश्रद्धा का अर्जन और पोषण न कर सकेंगे। हो सकता है कभी क्रूरकर्मी भी बन जाएँ। अस्तु समय रहते युवराज की इस कमी को पूरा कर लिया जाना चाहिए। राजा का समाधान हो गया तथा उन्होंने राजपुरोहित के मतानुसार व्यवस्था कर दी।