अपनों से अपनी बात- - युगचेतना अभ्युदय-अवतरण की हीरक जयंती के प्रत्यक्ष कार्यक्रम

March 2001

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अब संगठन-प्रशिक्षण का आधार इस तरह बनेगा

युगवंसत (29/1/2001) से युगचेतना के अवतरण की हीरक जयंती वर्ष का शुभारंभ हो गया। यह आगामी वसंत (17/2/2002) पंचमी तक चलेगा। यह वर्ष विशेष शक्ति-सौभाग्य के अनुदान लेकर आया है। पर यह मिलेंगे उन्हें ही, जो युगदेवता की कसौटी पर खरे सिद्ध हों। व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों ही स्तरों पर अब ऐसे संघबद्ध प्रयास किए जाने चाहिए कि हमारी रचनात्मक छवि सभी के समक्ष उभरकर आ सके। इन प्रयासों का आधार एक ही होगा। सशक्त-समर्थ-सुव्यवस्थित संगठन। इस एक वर्ष में संगठन का ढाँचा इतना मजबूत हो जाना चाहिए कि जन-जन को अशासकीय स्तर पर कार्य कर रहा यह विराट् आध्यात्मिक-पारमार्थिक संगठन गायत्री परिवार अलग से खड़ा दिखाई दे, जो राष्ट्र को समर्थ-सशक्त बनाने हेतु सदैव तैयार है।

संगठन का सशक्त आधार

जाग्रत् आत्माओं की जीवन-साधना एवं उस आधार पर विनिर्मित संगठन की धुरी पर ही अगले दिनों हमारे सारे क्रिया−कलाप चलेंगे। जैसा कि सभी जानते हैं, परमपूज्य गुरुदेव जीवनभर कहते रहे, लिखते रहे कि यह गायत्री परिवार ईश्वरीय योजना को प्रत्यक्ष जगत् में लागू करने के लिए दैवी संकल्प के साथ बनाया गया संगठन है। विभिन्न शाखाओं-मंडलों में बँटे परिवार को सक्रिय-संगठित समूह (स-3) बनाने तथा उनके संचालन हेतु समर्थ समयदानी-सहयोगी समूह (स-4) गठित करने की बात विगत डेढ़ वर्ष से सतत समझाई जाती रही है। इसमें स-4 वाला वर्ग वह है, जो प्राणवान् है, पुरोहित-प्रशिक्षक स्तर का है। इन समयदानियों के माध्यम से जन-जन को युग-साधना से जोड़ने के लिए योजनाबद्ध प्रयास करने की बात सतत कही जाती रही है। विगत सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ में सबने इसे गंभीरतापूर्वक समझा भी व अपनाने हेतु स्वयं को तत्पर भी किया है।

सात आँदोलन-सात विधाएँ

अब इस वर्ष के लिए घोषित सात आँदोलनों को गति देने की बात आती है। उन सभी को अब संगठित करना होगा, जो इस दिशा में रुचि और उत्साह रखते हैं, उस विधा से जुड़े हैं अथवा गायत्री परिवार के सात आँदोलनों में से किसी एक या अधिक प्रकल्पों से जुड़कर अपनी विभूति-प्रतिभा का योगदान समाज को देना चाहते हैं। सभी जानते हैं कि साधना, शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, पर्यावरण संरक्षण, नारी-जागरण, व्यसन-मुक्ति एवं कुरीति-उन्मूलन आँदोलन इन सात खंडों में रचनात्मक क्रिया–कलापों को बाँटा गया है। यही हमारे शीघ्र आरंभ होने जा रहे देव-संस्कृति विश्वविद्यालय की विधाएँ भी हैं। विभूतियों के सुनियोजन की बात इन विधाओं के संदर्भ में ही विगत एक वर्ष से सतत की जा रही है। अब क्षेत्रीय स्तर पर इन सातों आँदोलनों से जुड़े परिजनों को संगठित करने की बात आती है, तभी वह प्रक्रिया वहाँ सुव्यवस्था से संचालित की जा सकेगी एवं सफलता उनके कदम चूमेगी।

आँदोलन समूह या ‘आस’

एक प्रक्रिया अपने परिजनों को तुरंत करनी होगी ‘आँदोलन समूहों’ का गठन। ये आँदोलन को गति देने के लिए हर क्षेत्र में आँदोलन विशेष के प्रति रुचि रखने वालों के समूह होंगे। वे गायत्री परिवार से जुड़े नैष्ठिक परिजन भी हो सकते हैं एवं किसी अन्य संगठन से जुड़े हुए हमारे प्रति शुभेच्छा लिए हुए उस आँदोलन के प्रति निष्ठावान् व्यक्ति भी। दोनों का समन्वित स्वरूप उस समूह का निर्माण करेगा। इनको दो स्तरों पर गठित किया जा सकेगा, पहला स्थानीय, दूसरा क्षेत्रीय। स्थानीय ‘आस’ (आँदोलन समूह का संक्षिप्त) वे होंगे, जहाँ स्वाभाविक रूप से जो आँदोलन गति पकड़ ले, उससे संबद्ध जिम्मेदार लोगों का वह समूह कार्य करने लगे। इनमें आँदोलन के लिए समय दे सकने वाले उत्साही, अनुशासित कार्यकर्त्ता होने चाहिए। ऐसे व्यक्ति भी हों, जो आँदोलन की तकनीकी जानकारी रखते हों, विशेष स्तर के हों तथा प्लानिंग क्रियान्वयन की विधा में सक्षम हों। इसमें उन्हें भी शामिल किया जा सकता है, जो समय तो नहीं दे सकते, न ही उनके पास तकनीकी क्षमता है, किंतु अपने साधन व प्रभाव से आँदोलन को गति दे सकते हैं। समाज में उनकी अच्छी स्थिति भी है एवं जनसेवा के इन कार्यों में वे आगे बढ़-चढ़कर योगदान देते रहते हैं। उनका पत्र, फोन या उपस्थिति भी कभी-कभी आँदोलन को गति देने में एक महती भूमिका निभाती है। ऐसे समर्थों को भी ‘आस’ का एक अंग माना जाना चाहिए।

अभी आँदोलन समूहों को एक सामयिक संगठित इकाई भर मानकर बनाए जाने को कहा जा रहा है। समय-समय पर जैसे-जैसे नए कार्यकर्त्ता जुड़ेंगे, इसका स्वरूप बदलता रहेगा। ये छोटी इकाइयाँ आधार बनेंगी क्षेत्रीय स्तर पर गति पकड़ने वाले आँदोलन समूहों की।

क्षेत्रीय मंडल या ‘क्षेम’

किसी क्षेत्र में, गाँवों का समुच्चय, ब्लॉक, नगर या जिले में जब अनेक स्थानों पर कोई एक ही आँदोलन गतिशील होने लगेगा, तो उन्हें व्यापक जनसंपर्क की, एक-दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाने की आवश्यकता महसूस होने लगेगी। स्थान-स्थान पर जो ‘आस’ गठित होंगे, उनके सक्षम प्रतिनिधि समयानुसार क्षेत्रीय स्तर पर मिल-बैठकर आँदोलन के क्षेत्र को अधिक व्यापक बनाने व स्वरूप को अधिक प्रभावी करने हेतु परामर्श कर सकते हैं। एक विशेष आँदोलन के जहाँ क्षेत्रीय स्तर पर ‘आस’ के प्रतिनिधि मिल-जुलकर कार्य योजना बनाने लगें, तो उन्हें उस आँदोलन का क्षेत्रीय मंडल (क्षेम) कहा जाएगा।

भगवान् कृष्ण ने गीता में कहा है, योगक्षेमं वहाम्यहम्। श्रेष्ठ उद्देश्यों के लिए आवश्यक साधनों को जुटाना, उनका संकलन करना जहाँ योग है, वहाँ प्राप्त निधि का समुचित संरक्षण-सुनियोजन क्षेम कहा जाता है। परमपूज्य गुरुदेव ने योग का प्रवाह अनुकूल वातावरण पैदा करके बना दिया है। ऋषि तंत्र उज्ज्वल भविष्य लाने हेतु सही सशक्त प्रवाह बनाने का योग बिठा रहा है। अब इस सुयोग को जिम्मेदारीपूर्वक सुनियोजित कर देना क्षेम का कार्य है।

शक्तिपीठ-प्रज्ञा संस्थान समर्थ बनें

परमपूज्य गुरुदेव ने 1979 में जब शक्तिपीठों की योजना प्रस्तुत की थी, तो उनकी परिकल्पना थी कि वे आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित 4 मठों की तरह चौबीस केंद्रों का निर्माण करेंगे, जो साँस्कृतिक नवजागरण का कार्य करेंगे। पूज्यवर कहते थे कि देश में मंदिरों की कमी नहीं है। हम तो जन-जागृति के केंद्र बनाना चाहते हैं, जहाँ से सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन को दिशा देने वाले रचनात्मक कार्यक्रम चलें। ये आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार भी करेंगे एवं वेदमाता गायत्री को घर-घर पहुँचाएँगे।

समझा जाना चाहिए कि पूज्यवर का आशय कभी भी यह नहीं था कि गायत्री मंदिर ऐसे केंद्र बनें, जहाँ मात्र घंटी बजती हो, पूजा-अर्चा होती हो। वे सारे राष्ट्र के वातावरण को गायत्रीमय बनाना चाहते थे, आध्यात्मिक क्राँति लाना चाहते थे एवं उसी के लिए ऊर्जा संचार केंद्रों की स्थापना कर रहे थे। बाद में चौबीस से संख्या बढ़ाकर दो सौ चालीस तक जा पहुँची। आज छोटे-बड़े सभी देवालय-पीठ मिलाकर कुल संख्या प्रायः ढाई हजार तक जा पहुँची है। संख्या भले ही बढ़ गई हो, पर मूल उद्देश्य वह न रहा, जो कभी गुरुसत्ता ने सोचा था। सभी ऐसे हैं, यह बात तो नहीं, पर अधिकाँश ऐसे हैं, जो गायत्री माता की प्रतिमा वाले मंदिर बनाकर औपचारिकता पूरी करके संतुष्ट हैं अथवा जहाँ व्यावसायिक गतिविधियाँ चल रही हैं। अब इस हीरक जयंती वर्ष में सारे भारतव्यापी संगठन के साथ केंद्र ने संकल्प लिया है कि सारे शक्तिपीठों, प्रज्ञासंस्थानों का ढाँचा सुव्यवस्थित बनाया जाए। उन्हें सही अर्थों में ऊर्जाकेंद्र बनाया जाए। इसके लिए पीठों का, प्रज्ञा संस्थानों का नए सिरे से नामकरण करके वर्गीकरण करना जरूरी है।

पीठों का वर्गीकरण अब इस प्रकार से होगा

गायत्री मंदिर वे कहे जाएँगे जहाँ एक कोठरी में गायत्री माँ की प्रतिमा भर स्थापित कर दी गई है एवं किसी तरह पूजा-आरती की व्यवस्था वहाँ हो गई है। बस इसके अलावा वहाँ कुछ और नहीं हो रहा। गायत्री साधना केंद्र वे कहे जाएँगे, जहाँ मंदिर के साथ गायत्री उपासना सिखाने, संस्कार कराने तथा युगसाहित्य जन-जन को उपलब्ध कराने जैसी गतिविधियाँ नियमित रूप से चलती हैं। नवरात्रियों में कभी-कभी वहाँ साधनाएँ भी संपन्न होती हैं एवं वर्ष में कुछ दिन यज्ञ होता रहता है।

उक्त दोनों तंत्रों में भले ही बोर्ड प्रज्ञापीठ/शक्तिपीठ का लगा हो, लेकिन केंद्रीय संगठन तंत्र के अंतर्गत उन्हें वह प्रतिष्ठा नहीं दी जाएगी। हाँ, यदि वे हीरक जयंती वर्ष के इस संगठन के पुनर्गठन क्रम में अपने आपको अपग्रेड कर लें, अपना स्तर बढ़ा लें, तो उन्हें सर्वे करने गए केंद्रीय पर्यवेक्षकों को दिए प्रमाणों के आधार पर मान्यता मिल जाएगी।

तीसरा स्तर है शक्तिपीठ या प्रज्ञापीठ का। यह मान्यता उन चुने हुए संस्थानों को दी जाएगी, जो विभिन्न कसौटियों पर खरे उतरते हों, जो पूज्यवर ने बनाई हैं। ये इस प्रकार हैं- (अ) संस्थान या पीठ के लिए बनाया गया ट्रस्ट केंद्रीय नियम व्यवस्था के अनुरूप पंजीकृत हो। जमीन, ट्रस्ट, भवन आदि सभी कानूनी स्तर पर निर्विवाद हों।

(ब) ट्रस्टीगणों में पारस्परिक तालमेल हो, वे निर्धारित आचार-संहिता का पालन भी कर रहे हों तथा उस क्षेत्र में युगचेतना के विस्तार के लिए सक्रिय हों।

(स) शक्तिपीठ या प्रज्ञापीठ के साथ निकटस्थ शहर या जिले की संगठित इकाइयाँ स 3, स 4 पर्याप्त संख्या में जुड़ी हों एवं पारस्परिक विश्वास-सहयोग के साथ कार्य करने की स्थिति में हों।

(द) साधना सामूहिक स्तर पर तथा कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण के लिए इनके पास समुचित स्थान व संसाधन हों।

(इ) क्षेत्रीय मंडलों द्वारा चलाए जा रहे आँदोलनों के लिए व स्थान सुलभ करा सकें, कोई एक या अधिक आँदोलन को गति देने हेतु तैयार हों अथवा उनका मार्गदर्शन-सहयोग देने के लिए समर्थ समयदानियों की व्यवस्था सँभाल सकते हों।

शक्तिपीठों पर प्रशिक्षण सत्र

जैसा कि पिछले अंक में भी लिखा था, केंद्र की तरह ही क्षेत्रों में, शक्तिपीठों में जिन्हें उपर्युक्त मानदंडों पर खरा पाया जाएगा, साधना सत्र चलाए जाएँगे। साधना आँदोलन को गति देने के लिए ये सत्र प्रतिमाह चलेंगे, संचालन केंद्रीय तंत्र का होगा। इसके अतिरिक्त एक कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण सत्र भी चलाने हेतु उन्हें कहा जा रहा है। अभी जनवरी माह में वसंत पर्व तक 60 शक्तिपीठों पर एक-एक दिन के सत्र चलाकर एक प्रयोग किया गया, जो बड़ा सफल रहा। प्रथम दृष्टि में जो बड़े समर्थ-महत्त्वपूर्ण पीठ दिखे, वहीं पर ये आयोजन किए गए। अब इनकी संख्या अधिक होगी। इस वर्ष कम-से-कम 200 शक्तिपीठें इस योग्य हो जानी चाहिए कि दो-तीन माह के अंतराल पर एक साधना सत्र एवं एक कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण सत्र चला सकें। ये सत्र पाँच-पाँच दिन के होंगे। क्षेत्रीय स्तर पर विभूतियों के मंथन के क्रम में ढेरों नए व्यक्ति जुड़े हैं। ये सभी शाँतिकुँज तो आ नहीं सकते। दूसरे संख्या इतनी बड़ी है कि इस कार्य में बिना पीठों की भागीदारी हुए एक बड़ी संख्या को साधक बनाना, प्रशिक्षित समयदानी बनाना संभव नहीं है। इसीलिए क्षेत्रीय प्रशिक्षण का ढाँचा बनाया गया है।

किन-किन शक्तिपीठों पर यह सत्र चलें, यह निर्धारण वसंत पर लौटी केंद्रीय प्रतिनिधि टोलियों से प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर हो चुका होगा एवं यह अंक आपके हाथ में पहुँचने सातों आँदोलनों को गति देने के लिए भी होगा एवं अपने क्षेत्र में संगठन को व्यवस्थित आधार देने का भी। इनकी भी तारीखें यथासमय निर्धारित हो परिजनों को उपलब्ध होंगी।

इस माह कम-से-कम सभी पीठें नवरात्रि साधना (25-3 से 2-4-01) हेतु सामूहिक आयोजन अवश्य कर लें। इससे भावी साधना सत्रों का आधार बन जाएगा।

केंद्र का प्रशिक्षण तंत्र अब ऐसा होगा

शाँतिकुँज में नौ दिवसीय साधना सत्र सतत चलते रहते हैं। वे तथा एक माह के युगशिल्पी सत्र यथावत् चलेंगे। मात्र ग्रीष्म ऋतु में 15 मई से 30 जून तक 5-5 दिन के तीर्थसेवन सत्र चलेंगे, जो कि हर वर्ष चलते हैं। इस अवधि में नौ दिवसीय सत्र नहीं चलेंगे। इनके अतिरिक्त अब इस वसंत से एक-एक माह के (पूर्व में पंद्रह दिन के) परिव्राजक सत्रों का क्रम भी आरंभ हो गया है। प्रतिमाह रचनात्मक संकाय के दो सत्र नियमित रूप से विगत 3 वर्षों से चल रहे हैं।

इनके अतिरिक्त पाँच दिन के विशेष साधना सत्र (1 से 17 मार्च 2001 तथा आश्विन नवरात्रि 2001 से चैत्र नवरात्रि 2002 तक) चलाए जाने की घोषणा विगत अंक में की गई थी। यह सत्र प्राण-प्रत्यावर्तन स्तर के होंगे। एक कक्ष में एक ही साधक रहेगा। पूर्ण एकाँत एवं मौन साधना के साथ निर्धारित जप, प्राणयोग, ध्यानयोग आदि की साधनाओं में रत रहना होगा। टेपरिकॉर्डर से ध्वनि प्रसारण यंत्र द्वारा प्रत्येक कमरे में गुरुदेव के विचार पहुँचाएँगे। पढ़ने हेतु भी साहित्य निर्धारित विचारों को लिए मिलेगा। मात्र यज्ञ एवं अखण्ड दीप-दर्शन के लिए 24 घंटे में एक बार बाहर निकलेंगे, वह भी पूर्णतः मौन की स्थिति में। 1 से 5 मार्च, 7 से 11 मार्च, 13 से 17 मार्च के तीन सत्र इस अंक के पहुँचने तक चल रहे होंगे। यह अभी एक औपचारिक शुरुआत भर है। बाद में फिर आश्विन नवरात्रि 2001 से यह श्रृंखला शीत, वसंत व उसके बाद चैत्र नवरात्रि 2002 तक चलेगी, जिसमें प्रायः तीस से अधिक सत्र संपन्न होंगे।

आँदोलन प्रधान सत्र दूसरे विशिष्ट सत्र होंगे, जो सप्त आँदोलनों की क्रियापद्धति के प्रशिक्षण हेतु चलेंगे। ये भी पाँच दिवसीय होंगे एवं आगामी अप्रैल माह से आरंभ होकर 15 मई तक तथा फिर जुलाई से अक्टूबर तक चलेंगे। विभिन्न विधाओं के लिए भिन्न-भिन्न सत्र होंगे। इनकी सूचना भी प्रज्ञा अभियान पाक्षिक के फरवरी अंकों से ली जा सकती है।

महिला जागरण सत्र

यह हीरक जयंती परमवंदनीया माताजी की भी है, अखण्ड दीपक की भी, जिसकी साक्षी में करोड़ों का जप संपन्न हो चुका है। परमवंदनीया माताजी ने ही 1972-73 में नारी जागृति आँदोलन की बागडोर अपने हाथ में ली थी, जिसकी परिणति देवकन्याओं की क्षेत्रीय परिब्रजा में हुई। अब इस ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला शक्ति जागरण वर्ष’ में, हीरक जयंती वर्ष में हमारे सात में से एक आँदोलन महिला जागरण को विशेष रूप से हाथ में लिया जा रहा है। उसके लिए केंद्र में शाँतिकुँज की ब्रह्मवादिनी बहनों का सुव्यवस्थित प्रशिक्षण आरंभ हो चुका है। क्षेत्र की अग्रणी भूमिका निभाने वाली बहनों के लिए ग्रीष्म के बाद प्रशिक्षण सत्र केंद्र में चलाए जाएँगे। महिला मंडल मला संगठन इस बीच स्वयं को व्यवस्थित कर लें, ताकि वे सभी आँदोलन अपने बलबूते चला सकें, दीप यज्ञ, संस्कार भी करा सकें। उनके क्षेत्रीय प्रशिक्षण हेतु भी केंद्रीय बहनों की टोलियाँ इस वर्ष निकलेगी, जिनकी घोषणा समयानुसार की जाती रहेगी।

संगठन-सुगठन-प्रशिक्षण ही इस हीरक जयंती वर्ष के मूल मंत्र हैं। हर परिजन से अपेक्षा रहेगी कि वे हर वर्ष की तरह आगे बढ़-चढ़कर युगचेतना के अवतरण की, अभ्युदय की इस हीरक जयंती को उसी उत्साह के साथ मनाएँगे, जैसे कि विगत दो विशिष्ट वर्षों को वे मनाते रहे हैं। इस वर्ष हमारा संगठन इन प्रशिक्षण सत्रों द्वारा कई गुना बड़ा व व्यवस्थित हो जाएगा। यही इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य का आधार बनेगा।


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