सबसे बड़ा अवलंबन किसी के लिए भी जीवनपथ पर है, सच्चा मार्गदर्शन देने वाला-सत्परामर्श देने वाला सहयोगी, एक ऐसा व्यक्ति जिस पर विश्वास किया जा सके। साधना के क्षेत्र में गहरे उतरने की बात हो अथवा जीवन-संग्राम में पग-पग पर आने वाली बाधाओं से जूझने की, हम जब हमारी गुरुसत्ता के पत्रों के माध्यम से उनके जीवन-दर्शन को पढ़ने की कोशिश करते हैं, तो उनका वह पहलू नजर आता है, जो कभी किसी को सद्गुरु के रूप में परामर्श देता था, कभी लताड़ भी लगाता था तथा कभी मित्रवत् सलाह भी देता था। लक्ष्य एक ही होता था कि पत्र पाने वाला अपनी जिज्ञासा का सही समाधान पाए एवं इधर-उधर भटके नहीं। साथ ही उसका मनोबल भी बढ़े एवं दुगुने उत्साह के साथ वह कार्य में लग जाए। इस बार इस स्तंभ के लिए कुछ ऐसे पत्रों का चयन हमने किया है, जो 1944 से 1970 के बीच लिखे गए। देखें कितना महत्त्वपूर्ण शिक्षण देते हैं, हमें ये पत्र।
श्री देवराज जी ऋषि (रुड़की) को 11/2/44 को लिखा एक पत्र है-
“आपका पत्र मिला। निस्संदेह भगवान् की कृपा अनंत अपने प्रिय पुत्रों पर उनकी करुणा सदा ही बरसती रहती है। हम लोगों की धुँधली दृष्टि कभी किसी कठोर विधान को देखकर चकरा जाती है। अप्रिय प्रसंगों को देखकर प्रभु की नाराजी सोचते हैं। परंतु यथार्थ में यह भी उनकी दया ही होती है। प्रभु का हर एक कार्य हमारे कल्याण के निमित्त है। यदि हम लोग इस मर्म को समझ सकें, तो प्रभु शरणागति के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता।”
समर्पणयोग की शिक्षा का सारा मर्म उपर्युक्त पंक्तियों में छिपा पड़ा है। प्रिय-अप्रिय सभी में यदि प्रभु की ही इच्छा मान ली जाए, तो मन दुःखी क्यों हो। साधक की कितनी बड़ी असमंजस की स्थिति का समाधान हमारे आराध्य करते हैं कि विचलित न हों, गहना कर्मणो गतिः वाले इस जगत् में हर घटनाक्रम को प्रभु की लीला ही मानकर चलें। वही मार्गदर्शन तो जीवनयात्रा का पाथेय बन जाता है।
एक अन्य पत्र जो 24/10/45 को कासिमपुर अलीगढ़ के श्री धर्मपाल सिंह को लिखा गया, पूज्यवर लिखते हैं-
“गुरुतत्त्व में हम सबकी वैसी ही निष्ठा होनी चाहिए, जैसी कि अपने मन में धारण करने का आप प्रयत्न कर रहे हैं। परंतु इतना स्मरण रखना चाहिए, मनुष्य आखिर मनुष्य ही है। उसमें दोष होने संभव हैं। मुझे भी आप निर्दोष न समझें, इतना मानने के बाद ही अपनी निष्ठा को केंद्रीभूत करें। देवता मान लेने से आपकी साधन को हानि पहुँच सकती है।”
कितना मर्मस्पर्शी हृदय से निकला आत्मकथन है। उनने पूज्यवर में गुरु को खोजा। गुरु ने अपने भावी शिष्य को लिखा कि निष्ठा गुरुतत्त्व में रखें, किसी व्यक्ति में नहीं। अपने मनोभावों को परिपक्व बनाएँ एवं यह मानकर चलें कि गुरु भी हाड़-माँस का पुतला ही है। उसके बताए आदर्शों पर चलना-श्रद्धातत्त्व को नित्य गहरा बनाते चलना ही गुरुदीक्षा को पकाना है। इस श्रद्धा के सहारे ही वह सब मिलता चला जाता है, जो किसी गुरु से शिष्य को प्राप्त हो सकता है।
इसी प्रकार का एक तीसरा पत्र है, जो 9/7/52 को श्री रामदास (कानपुर) को लिखा गया था।
“गुरुभक्ति ईश्वरभक्ति का ही एक प्रारंभिक और सरल रूप है। वह प्रेम भी ईश्वर को ही पहुँचता है। जैसे पत्थर की प्रतिमा पूजन करने से उस पूजा का श्रेय प्रतिमा तक सीमित नहीं रहता और सीधा ईश्वर तक जा पहुँचता है। उसी प्रकार गुरुभक्ति भी किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है, वह भी सीधी ईश्वर तक ही पहुँचती है।”
गुरुभक्ति की बड़ी सटीक व्याख्या है उपर्युक्त मार्गदर्शन में। गुरु व्यक्ति नहीं, परमात्मचेतना का प्रतिनिधि है एवं गोविंद से मिलाने के लिए नियुक्त एक प्रतिनिधि है। गुरुभक्ति को इस दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में समझने के बाद मन के सारे ऊहापोह मिट जाते हैं एवं आध्यात्मिक प्रगति की राह आसान हो जाती है। यही वह सारतत्त्व है, जो किसी के लिए भी दैनंदिन जीवन का एक सहारा बन जाता है।
अब एक पत्र ऐसा जो राजनीतिक स्तर पर आकाँक्षा रखने वाले एक सज्जन को लिखा गया है। वे पंडित नेहरू जी से मिलकर आए थे, बड़ी खुशी से यह समाचार उनने पूज्यवर को दिया था। पूज्यवर बड़ी आत्मीयता से उन्हें लिखते हैं 3/12/57 को यह पत्र।
“आपसे यहाँ पर दो-तीन दिन नहीं मिलना हुआ, पर ऐसा लगता है, मानो आप जन्म-जन्माँतरों के हमारे साथी हैं। पत्र पढ़ते समय ऐसा लगता है, मानो आप सामने ही बैठे हों।
पं. नेहरू से मिलन का समाचार पढ़कर संतोष हुआ। आपकी आत्मा भी उतनी ऊँची है, जितनी पं. नेहरू की। परिस्थितियों ने ही आपको इन दिनों ऐसा अव्यवस्थित बना दिया है। आप भी इसी जीवन में महापुरुष घोषित हों, तभी हमें संतोष होगा।”
मुँबई के श्री हर्षनारायण सिंह को यह पत्र तीन दिसंबर सत्तावन को लिखा गया था। पत्र बताता है कि उनकी हर्षाभिव्यक्ति जो पंडित जी से मिलकर हुई है, यह उन्हें उथले स्तर तक न रोक दे। वे यह भी जानें कि उनके अंदर भी वही तत्त्व छिपा पड़ा है। मात्र उसे ऊँचाइयों तक पहुँचाने के प्रयास की जरूरत है। बाद में श्री सिंह ने इस क्षेत्र में काफी प्रगति की एवं जन नेतृत्व के क्षेत्र में एक अग्रणी भूमिका निभाई।
एक पत्र बड़ा स्पष्टवादिता से भरा हुआ, लताड़ लगाता हुआ। अपने प्रिय आत्मीयों को वाँछित प्रगति न करते देख पूज्य गुरुदेव दुःखी होते थे, तो अपना मानकर लिख बैठते थे, 19/4/65 को श्री पहाड़िया जी को लिखे एक पत्र में वे कहते हैं-
“कभी आप हमारे अत्यंत निकटवर्ती आत्मीयजनों में से थे। हम बड़ी-बड़ी आशाएँ आप से बाँधे रहते थे और सोचते थे पहाड़िया जी किसी दिन देश के नररत्नों में से एक होंगे और इतिहास के पृष्ठों पर उज्ज्वल नक्षत्र की तरह चमकेंगे। पर आप धीरे-धीरे काफी शिथिल होते चले गए हैं। बेशक आपने नगरपालिका आदि का बहुत काम किया है, पर जिस अत्यंत अनिवार्य कार्य की आप जैसे प्रतिभाशाली लोगों से अपेक्षा की जाती है, वह तो उपेक्षित ही पड़े हैं।”
गुरुवर की अपेक्षा उनसे कुछ अधिक थी। पहाड़िया जी मात्र नगरपालिका बाँदा के सदस्य बनकर प्रसन्न थे। परमपूज्य गुरुदेव उनसे और बड़ा काम कराना चाह रहे थे। इसलिए यह भाषा उन्होंने प्रयुक्त की। पाठकगण पहाड़िया जी से परिचित हैं। बाद में वे शाँतिकुँज आ गए, 1971 से 1993 तक यहीं महाप्रयाण होने तक गुरुवर के अनन्य सहयोगी होकर जिए।
एक अंतिम पत्र 20/3/67 का, श्री रणसिंह जी के नाम लिखा, जो गुरुदेव की जन्मभूमि आँवलखेड़ा में सक्रिय थे। सभी जानते हैं कि अपनी माता श्री की स्मृति में ‘माता दानकुँवरि इंटर कॉलेज’ हेतु अपनी सारी पैतृक भूमि पूज्यवर ने दान में दे दी थी। रणसिंह जी उसी कॉलेज के व्यवस्था मंडल में थे। वे लिखते हैं-
“तुम्हारे जैसे प्रतिभाशाली सुशिक्षित युवक से मातृभूमि-जन्मभूमि ऐसी ही आशा करती थी। जिस तत्परता से तुम उधर ध्यान देते, परिश्रम करते और प्रयत्नशील रहते हो, उतना ही यदि गाँव के अन्य सुयोग्य व्यक्ति भी करते, तो आँवलखेड़ा की स्थिति न जाने कितनी अच्छी ऊँची रही होती। तुम्हारी तत्परता पर हमें बड़ा संतोष है और विश्वास है कि जो पौधा किसी प्रकार लग गया है, उसे तुम लोग सींचते-बढ़ाते रहोगे।”
पत्र की भाषा देखें एवं जानें कि किस मित्रभाव से ठाकुर साहब को प्रोत्साहित किया गया है। जीवन-संग्राम में जो चाहिए वे सारे गुण हमें पूज्यवर के पत्रों रूपी संजीवनी भरी लेखनी के माध्यम से मिलते हैं। इन्हें समझ लें तो प्रगति के उच्चतर आयाम खुलते चले जाएँगे।