एक यहूदी अनपढ़ था और ग्रामीण भी। प्रायश्चित पर्व पर सबको प्रार्थना करते देखकर वह भी बैठ गया और वर्णमाला के अक्षरों का ही पाठ करता हुआ भावना करने लगा, “हे प्रभु! मुझे तो कोई मंत्र याद नहीं, इन अक्षरों को जोड़कर तुम्हीं मंत्र बना लेना। मैं तो तुम्हारा दास हूँ, पूजा के लिए नए भाव कहाँ से लाऊँ?” जब तक दूसरे लोग प्रार्थना करते रहे, वह ऐसे ही भगवान् का ध्यान करता रहा।
सायंकाल जब सब सामूहिक प्रार्थना में सम्मिलित हुए, तो धर्मगुरु रबी ने उस ग्रामीण को भक्तों की अग्रपंक्ति में रखा। यह देखकर साथी ने आपत्ति की, “श्रीमान जी! इसे तो मंत्र भी अच्छी तरह याद नहीं।” “तो क्या हुआ” रबी ने आर्द्र कंठ से कहा, “इसके पास शब्द नहीं, भाव तो हैं।”