सामूहिक नरसंहार का मनोविज्ञान

March 2001

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मानवीय मनोविज्ञान अत्यंत जटिल होता है। इसमें अच्छाई और बुराई दोनों तत्त्व सन्निहित होते हैं। श्री अरविंद ने मनुष्य के एक तिहाई भाग को पशुतुल्य माना है। यह अनुकूल अवसर प्राप्त करने पर हिंसक और बर्बर हो उठता है। समाज में हिंसा के अनेक स्वरूप होते हैं। व्यक्ति से जब यह बाहर जाता है, तो सीरियल किलर वा माँस मर्डर जैसे वीभत्स व भयंकर दृश्य उपस्थित करता है। आज के आधुनिक समाज में हिंसा भी एक अंग बन चुका है। पाश्चात्य देश इस दुर्वह मार से त्रस्त व परेशान हैं। अपना समाज व राष्ट्र भी इससे अछूता नहीं है।

मनुष्य अपनी इस आक्रामक वृत्ति के जाग्रत् होते ही हिंस्र जानवर के समान व्यवहार करने लगता है। ब्रिटिश मनोविज्ञानी पभ्टर मार्श की मान्यता है कि मनुष्य का सामान्य हिंसक भाव किसी को क्षति नहीं पहुँचाता, परंतु यह जब सामाजिक स्तर पर बढ़ने लगता है, तो अत्यंत घातक होता है। यही समाज में संक्रमित होकर सामूहिक आँदोलन व विकराल हिंसा का रूप ले लेता है। ए. स्टार ने ‘ह्यूमेन डिस्ट्रक्टिवनेस’ में उल्लेख किया है कि आज की आधुनिक हथियारों की होड़ इसे और भी बढ़ा देती है। बड़े-बड़े युद्धों के इतिहास में हिंसा का यही भाव जिम्मेदार रहा है।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, हिंसा सदैव एक निश्चित गति से बढ़ती है। टोकी द्वीप में चर्च के बाहर दो समुदाय के बीच प्रति सप्ताह में कई बार झ़डपों का होना सामान्य बात है। धीरे-धीरे यह झड़पें विकराल होती गईं और अंत में यह एक युद्ध में परिणत हो गईं। मनीषी लायल वाटसन के अनुसार, आक्रामकता मनुष्य के जेनेटिक कोड में होती है। क्रोध व हिंसा इसी का परिणाम होता है। व्यक्ति आक्रामकता व प्रतिशोध के बीच झूलता रहता है। इनके बीच एक पतली दीवार होती है, जैसे बंदर और मनुष्य के मध्य। आक्रामकता बंदर के व्यवहार की ओर धकेलता है, तो प्रतिशोध मनुष्य का जटिल मनोविज्ञान बनकर आता है। प्रतिशोध हिंसा का ही एक रूप है। इस स्थिति में विवेक समाप्त हो जाता है और इसके स्थान पर दुर्बुद्धि काम करने लगती है। अंततः यह जघन्य कृत्यों में परिवर्तित हो जाता है।

युद्ध में आवेशग्रस्तता या अंध क्रोध का नग्न नर्तन देखा जा सकता है। इस अवस्था में व्यक्ति लड़कर मर जाता है। पी. कर्लेट के सर्वेक्षणानुसार द्वितीय विश्वयुद्ध में केवल 25 प्रतिशत अमेरिकी सैनिकों ने अपने हथियारों का प्रयोग किया था। वह भी अत्यंत विपन्न परिस्थिति में। शेष सैनिक उन्माद एवं आवेशग्रस्त होकर मरते-मारते रहे। युद्ध का हिंसक आवेश अत्यंत प्रबल व तीव्रतम होता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में लंबी दूरी के शस्त्रों के पीछे भी यही अंध मानसिकता प्रदर्शित हुई थी। इसी कारण हथियारों का आविष्कार एवं होड़ बढ़ी। लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व सुमेरियनों ने एक हजार फुट की दूरी तक मार करने वाले धनुष-बाण का आविष्कार किया था। इसके ठीक 2000 वर्ष बाद चीनियों ने भी इसी तरह के अनेक शस्त्रों का निर्माण किया था। इतिहास के उन पृष्ठों से लेकर आज के अत्याधुनिक हथियारों के निर्माण की कहानी भी इसी तथ्य की पुष्टि करती है।

धनुष की खोज के बाद आग्नेयास्त्र के रूप में बंदूक का प्रचलन बढ़ा। इससे हिंसा को एक नूतन आयाम मिला। मौत और जिंदगी की दूरी सिमट गई। टी. जुनाडे के अनुसार अमेरिका में प्रति सेकेंड बीस बंदूकों का निर्माण होता है। प्रति 13.5 सेकेंड में एक बंदूक की बिक्री होती है। यह अमेरिका के लगभग आठ करोड़ घरों में पहुँच गई है। अमेरिका में हत्या की दर जापान की तुलना में 200 गुनी अधिक है। सन् 1992 में बंदूक द्वारा 13,220 लोगों की हत्या हुई। टी. जुनाडे ने स्पष्ट किया है कि 1990 से 1992 के बीच तीन वर्ष में इतने अमेरिकनों की हत्या हुई जितने कि 1963 से 73 के वियतनाम युद्ध में नहीं हुईं। वियतनाम युद्ध में 46,752 लोगों की हत्या हुई, जबकि तीन साल में मात्र बंदूक द्वारा 84,633 हत्या हुईं। यह कनाडा, जापान, स्वीडन, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया से 150 से 400 गुना अधिक है। सभ्य कहे जाने वाले देशों में पिछले पचास सालों में प्रति सेकेंड में एक व्यक्ति की हत्या हुई है। अब तो यह संख्या तीन गुना हो चुकी है। द्वितीय विश्वयुद्ध में 5.5 से 6 करोड़ के आसपास थी। अब तो बड़े युद्धों के बिना भी समस्त विश्व की हिंसक वारदातें इन आँकड़ों को छूने लगी हैं।

हिंसा का स्वरूप और भी अनेक रूपों में दिखाई देता है। आर.जे. गेलन ने ऐसे क्रूर व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जो न केवल नरसंहार करते हैं, बल्कि उनका माँस भी खा जाते हैं। कुछ आदिवासी परिवारों में हत्या दिनचर्या के समान है। परिवार में थोड़ा-सा तनाव व्याप्त हुआ कि भाले-बरछी चल पड़ते हैं। नित्य किसी-न-किसी का नरसंहार होना अनिवार्य है।

क्रूर व हिंस्र व्यक्ति जानवर के समान होता है। गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज मोरक्कों का बादशाह मोले इस्माइल ऐसा ही एक नृशंस हत्यारा था। इसने अपने हाथों से ही तीस हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। भोजन के दौरान वह अपने बंधकों का सिर धड़ से अलग कर देता था और अपने मेहमानों को प्रसन्न करता था। उसकी 500 बीबियाँ तथा 1000 बच्चे थे। पीलपोट उन कुख्यात राजनीतिज्ञों में गिना जाता है, जिन्होंने हत्या सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए। हिटलर के बाद संभवतः पीलपोट ही एक ऐसा नृशंस हत्यारा था, जिसने 20 लाख व्यक्तियों को मरवा दिया।

हिंसा का स्वरूप विभिन्न संस्कृतियों में बदलता रहता है, किंतु उनके मूल्यों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। दक्षिण पूर्व ऐशिया में ‘अमाके’ तथा मलाया में ‘क्रिस’ का प्रचलन है। अमाके के अंतर्गत एक युवा व्यक्ति ब्लेड से मर्डर करता है। क्रिस वह प्रथा है, जिसमें भीड़भाड़ के स्थल पर यह अमानवीय व बर्बर कार्य किया जाता है। सन् 1996 में चार्ल्स ह्विटमेन नामक एक कुख्यात हत्यारे को आस्टिन के टेक्सास यूनिवर्सिटी के टावर में मृत पाया गया। इस ह्विटमेन ने मरने से पूर्व उसी टावर से अंधाधुँध गोली चलाकर 14 व्यक्तियों की हत्या एवं 31 व्यक्तियों को गंभीर रूप से घायल कर दिया था। कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा भीड़ में गोली चलाना इसी प्रथा के अंतर्गत माना जा सकता है।

नरसंहार की दर देशों के अनुरूप न होकर वहाँ के समयानुसार परिवर्तित होती है। यह विभिन्न समाज व राष्ट्र में भिन्नता लिए हुए होती हे। सोमालिया में एक व्यक्ति की मौत की कीमत 100 ऊँट के बराबर होती है। यह मूल्य 50 महिलाओं के मूल्य के समान है। यूगांडा के सेवई लोगों में एक नवयुवती की मृत्यु के बदले दस गाय व एक वृद्ध महिला की मृत्यु के लिए पाँच गाय की कीमत अदा की जाती है। डी.पी. फिलीप्स के अनुसार अमेरिका में प्रतिदिन 60 व्यक्तियों की हत्याएँ होती हैं। श्वेत और अश्वेत के बीच का संघर्ष तो और भी तनावपूर्ण है।

मानव प्रकृति के मर्मज्ञों के अनुसार हिंसा, हत्या व अपराध एक जटिल प्रक्रिया है, जो प्रकृति व दबाव तथा अनुवांशिकता व अनुभव के बीच पनपता है। मनीषी लायल वाटसन ने ‘डार्क नेचर’ में इसे सोशियोबायोलॉजिकल इंसटिक्ट के रूप में प्रतिपादित किया है। इसका महत्त्व उसके वातावरण पर निर्भर करता हे। इसी बायोलॉजिकल रुट्स से सीरियल किलर तथा माँस मर्डर की क्रूर मानसिकता का जन्म होता है। मनोविज्ञानी एड्रीन रेन ने इसका परीक्षण करने के लिए एक सर्वेक्षण किया। इनके दल ने कैलीफोर्निया में 4660 बच्चों का अध्ययन किया। ये सभी 1959 से 1961 के बीच पैदा हुए थ। इन्हें अपराध विरासत में मिला था। इनका परिवार एवं वातावरण अपराधी तत्त्वों से भरा हुआ था। 30 साल पश्चात् युवावस्था में पहुँचे इन लोगों में से 22 प्रतिशत कुख्यात अपराधी बन गए थे। इनमें से तो कुछ सीरियल किलर व माँस मर्डरर बन गए थे।


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