सहस्राब्दी का पहला होलिका पर्व

March 2001

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जीवन में हर क्षण उल्लास-उमंग का संचार रहे, इसीलिए हमारी संस्कृति में भाँति-भाँति के प्रावधान बनाए गए है। ऋतुक्रम में शीतकाल ठिठुरन में बीतता है। जैसे ही वसंत आता है, प्रकृति में हर जीव पर उल्लास छा जाता है। निष्क्रियता सक्रियता में, गरमी में बदल जाती है। वसंत से होलिका पर्व तक का समय प्रायः चालीस दिन की अवधि का होता है एवं यह सारी अवधि प्रकृति के परिपूर्ण यौवन-उल्लसित प्राणवान् उमंगों की प्रेरणाओं से भरी होती है। वातावरण में कुछ विलक्षण मादकता, पवित्रता-सात्विकता अनुभव की जाने लगती है। नवीन संवत्सर व ऋतु-परिवर्तन की नवरात्रि आने से पूर्व की यह वेला आध्यात्मिक अनुदानों की दृष्टि से बड़ी ही विशिष्ट है। जैसे सारी प्रकृति पुष्पों से, उनकी सुरभि से खिल उठती है, ठीक परमात्मसत्ता भी अनुदान लुटाने को तैयार बैठी होती है।

होलिका पर्व न केवल साँस्कृतिक दृष्टि से शरीर विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान एवं आज के भौतिक विज्ञान की कसौटी पर ऐसा खरा उतरता है कि कभी-कभी लगता है हमारे ऋषि-मुनियों ने कितना सोच-समझकर यह निर्धारण किया होगा। होलिका दहन व धुलैंडी इस तरह फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि बीच में रख दो दिनों तक मनाए जाने वाला उल्लास भरा पर्व है यह। पर अभी भी भारत के बहुसंख्य क्षेत्र में यह वसंत से मनाया जाने लगता है एवं रंगपंचमी तक चलता है। विविधता में एकता का दर्शन दिखाने वाली हमारी संस्कृति के रंग निराले हैं। ब्रज प्रदेशों में, राजस्थान में, मालवा में, बुंदेलखंड में, मिथिला में हर जगह होली एक उल्लास भरे पर्व के रूप में मनाई जाती है। हमारे ऋषियों ने इसे नवसंवत्सर के यज्ञीय पर्व के रूप में स्थापित किया था। भारत एक कृषिप्रधान देश है। अन्न देवता पहले यज्ञीय ऊर्जा से संस्कारित हों, फिर समाज को यह अन्न समर्पित हो, इसीलिए स्थान-स्थान पर होलिका दहन-नवसस्येष्टि यज्ञ का प्रचलन था। आज भी धरती के प्रदूषण के, बहुराष्ट्रीयकरण के एवं ढेर सारा अनाज परंतु आत्महत्या करते किसान, असमान वितरण इन परिस्थितियों में भी इस पर्व की गरिमा यथावत् है। यह पर्व एवं इसके दर्शन की स्थापना ही इन समस्याओं से इस कृषिप्रधान देश को मुक्ति दिला पाएगी।

होली पर्व के पीछे क्या पौराणिक मान्यताएँ हैं, इन्हें यदि अलग रख दें, तो इसके साथ जुड़ी विशेषताएँ इसे समता का, पारस्परिक सद्भाव के विस्तार का पर्व स्थापित करती हैं। यही एकमात्र ऐसा त्योहार है, जिसमें हिंदू ही नहीं, सभी संप्रदायों के व्यक्ति, ऊँच-नीच का भेद छोड़ एक साथ मिलते हैं। हम सबका जीवन इन रंगों की तरह वैविध्यपूर्ण गुणों से भर जाए, व्यक्तित्व में ये गुण समा जाएँ, इस भाव से इसे मनाया जाता है। छोटे-से-छोटा व्यक्ति भी उच्च पद पर बैठे या धनाधीश के साथ पारस्परिक सौहार्द्र के साथ होली उस दिन खेल लेता है। इसीलिए इस पर्व के साथ प्रह्लाद के कथानक से जुड़े नृसिंह भगवान् का पूजन तो किया ही जाता है, मातृभूमि रज-त्रिधा समता देवी का पूजन एवं क्षमावरणी के माध्यम से पारस्परिक व्यवहार में शालीनता के समावेश जैसी विशिष्टता भी जुड़ी हुई हैं।

यह एक विडंबना ही है कि साँस्कृतिक प्रदूषण की आँधी में आज उसका स्वरूप फूहड़ होकर रह गया है। दिव्य प्रेरणाओं से भरा यह पर्व गंदे हँसी-मजाक से लेकर अश्लील प्रदर्शन एवं क्षुद्र चिंतन का परिचायक बनता जा रहा है। होली जलाई जाती है, तो उसके साथ सारा कूड़ा-करकट, ईर्ष्या-द्वेष, घृणा-कामुकता के भाव आदि भी जला दिए जाते हैं। परंतु इससे उल्टा ही हो रहा है। कई बार इसी पर्व पर दंगे उठ खड़े होते हैं। समाज में पारस्परिक सामंजस्य-समरसता स्थापित करने हेतु स्थापित यह पर्व ऐसी छिछालेदारी का पात्र बनेगा, यह कभी सोचा भी नहीं गया था। होली जले तो अश्लीलता की, अश्लील पोस्टरों की, उस कूड़ा-करकट की जो पिछले दिनों जमा हो गया है। यदि यह न होकर मात्र कुछ टन लकड़ी फूँक दी गईं, तो यह पर्यावरण प्रदूषित करने में सहायक ही हुआ।

आज की परिस्थितियों में युगऋषि के संकेतों के अनुसार पर्वों से लोकशिक्षण की परंपरा के अनुसार दो प्रेरणाओं के विस्तार पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाना चाहिए, वे इस प्रकार हैं-1. इसे जातिवाद से, ऊँच-नीच के भेद से ग्रसित समाज में समानता-समरसता के विस्तार हेतु मनाया जाए। 2. इस दिन से यज्ञीय जीवन जीने का संकल्प लिया जाए। पारस्परिक प्रेमविस्तार एवं परमार्थपरायणता के विस्तार हेतु पीड़ानिवारण, पतननिवारण हेतु कुछ करने हेतु संकल्पित हुआ जाए। हिरण्यकश्यप व होलिका का दहन होना ही चाहिए। विकृतियों-सामाजिक विभेदों, अराजकताओं को इस होली में जलकर राख हो जाना चाहिए। प्रस्तुत पर्व संघौशक्ति कलौयुगे के संकल्प के साथ इस सहस्राब्दी का प्रथम होलिका पर्व है। अब राष्ट्र व विश्व में खून की नहीं, स्नेह-सद्भावना के विस्तार के, एक-दूसरे को आगे बढ़ाने की होली खेली जानी चाहिए। यदि इस रूप में यह पर्व मनाया जा सका, तो हम संस्कृति पुरोधाओं से व आगामी पीढ़ी से भी न्याय कर पाएँगे।


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