तब समुद्र द्वारा विदेश यात्रा को धर्म-विरुद्ध माना जाता था। धर्म-पुरोहितों से अनुमति लेकर समुद्री यात्राएँ हर धर्मपरायण व्यक्ति को करनी पड़ती थीं। वेदाँत के प्रचार के लिए स्वामी रामतीर्थ को विदेश जाना था। लोक-मर्यादापालन में लिए उन्होंने काशी के महामहोपाध्याय से परामर्श किया। पंडित जी बोले, वैसे तो समुद्री यात्रा करना धर्म के विरुद्ध है, पर यदि आप पाँच हजार रुपयों की व्यवस्था कर दें, तो आपको जाने की विद्वत्-मंडल द्वार अनुमति मिल जाएगी, अन्यथा आप जाति से बहिष्कृत कर दिए जाएँगे। रिश्वत देकर धर्मपरायण बनना रामतीर्थ को स्वीकार नहीं हुआ। उन्होंने कहा, आप लोग चाहे जो करें, पर धर्म के नाम पर मैं यह अनीति नहीं कर सकता। अनुमति दें अथवा न दें, मैं तो चलता हूँ। पंडित जी निरुत्तर हो गए। बिना किसी से अनुमति लिए स्वामी रामतीर्थ ने अपने महान् लक्ष्य के हेतु विदेश के लिए प्रस्थान कर दिया।