स्वतंत्रता का अर्जन

March 2001

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परतंत्रता जन्मजात है। वह तो प्रकृतिप्रदत्त है। हममें से किसी को उसे अर्जित नहीं करना होता। होश सँभालते ही मनुष्य पाता है कि वह परतंत्र है। वासना की जंजीरों के साथ ही उसका इस जगत् में आना हुआ है। अगणित सूक्ष्म बंधन उसे बाँधे हुए हैं। इन बंधनों की पीड़ा हर पल उसे सताती है। परतंत्रता में भला कोई सुखी भी कैसे हो सकता है।

सुखी होने के लिए तो स्वतंत्रता चाहिए। यह स्वतंत्रता किसी को भी जन्म के साथ नहीं मिलती। इसे तो अर्जित करना होता है और यह उसे ही उपलब्ध होती है, जो उसके लिए श्रम एवं संघर्ष करता है। स्वतंत्रता के लिए मूल्य देना होता है। हो भी क्यों नहीं? जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, वह निर्मूल्य नहीं मिल सकता।

ध्यान रहे, प्रकृति से मिली परतंत्रता दुर्भाग्य नहीं है। दुर्भाग्य तो है स्वतंत्रता को अर्जित न कर पाना। दासता में जन्म लेना बुरा नहीं है, पर दासता ढोते हुए, दास स्थिति में ही मर जाना अवश्य बुरा है। अंतस् की स्वतंत्रता को पाए बिना जीवन में कुछ भी सार्थकता और कृतार्थता तक नहीं पहुँचता है।

वासनाओं की अँधेरी काल-कोठरियों की कैद में जो बंद हैं, जिन्होंने विवेक का निरभ्र व मुक्त आकाश नहीं जाना है, समझना यही चाहिए कि उन्होंने जीवन तो पाया, पर वे जीवन को जानने से वंचित रह गए। उन्होंने न तो खुली हवा में साँस लेने का सुख पाया, न ही अनंत आकाश में चाँद-सितारों की जगमगाहट देखी। सुबह के सूरज की उजास का भी वे अनुभव नहीं कर पाए, क्योंकि ये सारे अनुभव स्वतंत्रता के हैं।

पिंजड़ों में कैद पक्षियों और वासनाओं की कैद में पड़ी आत्माओं के जीवन में कोई भेद नहीं, क्योंकि दोनों ही स्वतंत्रता एवं स्वामित्व का आनंद नहीं पा सकते।

प्रभु को जानना है, तो हर मनुष्य को चाहिए कि वह स्वतंत्रता का अर्जन करे। जो परतंत्र, पराजित और दास हैं, प्रभु का राज्य उनके लिए नहीं है।


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