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March 2001

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1. उपलब्ध परिस्थितियों को भगवान् का अनुग्रह मानकर प्रसन्न रहना।

2. जहाँ तक हो सके अपनी साधन-संपदा की तुलना दूसरों से नहीं करना।

3. क्षुब्ध और निराश करने वाली स्थितियों से बचना।

आधे-अधूरे प्रयत्नों से जो मिल जाए उसी में मन मार कर रह जाना और श्रेष्ठ के लिए प्रयत्न छोड़ देने का नाम -संतोष’ नहीं है। वैराग्य के नाम पर ईश्वर की ललित-ललाम इस सृष्टि को कोसने वाले उपदेशक लौकिक उपलब्धियों को दिन-रात कोसते रहते हैं। उनके अनुसार किसी भी लौकिक उद्देश्य के लिए संकल्प करना पाप है, मन में किसी इच्छा का उदय होना आध्यात्मिक अपराध है और व्यक्ति संसार में जितना व्यस्त रहता है, ईश्वर से उतना ही दूर होता जाता है। इस तरह के निराशावादी विचारों के साधकों ने दुःख का आत्यंतिक निरोध करने वाले योग को संसार से पलायन की प्रेरणा देने वाला शास्त्र बना दिया है।

पतंजलि ने जिस संतोष को योग की तैयारी के चरण में रखा है, चित्तवृत्तियों को निर्मल और अनुशासित वाले उपायों के रूप में सम्मिलित किया है, वह वैराग्य का नहीं अनुग्रह का भाव है। उद्देश्य है किन्हीं भी कठिनाइयों, विपत्तियों और विफलताओं में चित्त को विक्षुब्ध नहीं होने देना। संतोष का शाब्दिक अर्थ तुष्टि है, मन का तृप्त हो जाना। कुछ और स्पष्ट करते हुए मनीषियों ने इसे ‘तृष्णा’ का सर्वथा अभाव बताया है। तृष्णा का अभाव एक स्थिति है। उसे प्राप्त करने का लक्ष्य योगशास्त्र के आचार्यों ने रखा है। स्थिति तक पहुँचने के लिए जिस मार्ग का आश्रय लेना चाहिए, उसमें पहली आवश्यकता प्रसन्न रहना है। हमें जो भी परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं, उन्हें ईश्वर का अनुग्रह मानकर प्रसन्न रहें।

संतोष का अर्थ है, जो उपलब्ध है, उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद देना। सामान्य बुद्धि से भी यह समझा जा सकता है कि हम जो कुछ हैं, वह अपने प्रयत्नों से ही नहीं हैं। अपना अस्तित्व यदि निजी पुरुषार्थ के कारण ही टिका रह सकता, तो वर्तमान स्थिति और सामर्थ्य के अनुसार कभी संभव ही नहीं था। अनुग्रह-बोध को गहन करने के लिए जिस चिंतनधारा को अपनाया जाता है, उसमें साधक कुछ इस तरह सोचता है, जिस प्राणवायु के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रहा जा सकता, वह हमने स्वयं नहीं बनाई। संसार में अपने आस-पास और शरीर के भीतर भी वायु तथा आकाश का जैसा विस्तार है। वह बना सकना तो दूर, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। शरीर के भीतर और बाहर वायु के दबाव, गुरुत्वाकर्षण, गति देने वाली जैविक प्रक्रियाएँ, पोषण देने वाले उपादानों में से अपना बनाया कुछ भी तो नहीं है। यह विराट् अस्तित्व के ही अनुग्रह का फल है। आस्तिक भाषा में इसे ईश्वर की कृपा कहेंगे।

अनुग्रह-बोध की भावधारा अपने अस्तित्व के लिए विराट् जगत् या ईश्वर को श्रेय देते हुए आगे बढ़ती है, तो सोचती है कि मेरा अपना जीवन तक स्वयं के चाहने से नहीं है। अपने से इतर सत्ताएँ स्वीकार कर रही हैं, इसलिए वह टिका हुआ है। कुछ लोग भी तय कर लें कि इसका अस्तित्व नहीं होना चाहिए, तो अपने लिए संकट खड़ा हो जाएगा। यह भावधारा मन में कातरता या असहाय होने का भय नहीं, विनम्रता का कोमल संवेग जगाती है। अपना अस्तित्व ईश्वर की कृपा से ही दिखाई दे रहा है, दूसरे लोग इसे स्वीकार कर रहे हैं, तो भी ईश्वर का अनुग्रह है और संसार में निर्वाह हो रहा है, तो भी परमसत्ता की करुणा है। इस चिंतन को अपनाने के बाद दैन्य-दुर्बलता टिकी नहीं रह सकती। विनम्रता के साथ एक सात्विक संतुलन बना रहने लगता है।

तृष्णा, वासना, कामना आदि विकारों का मूल कारण भी अभाव ही है। अंतरंग में बँध जाने वाली यह गाँठ व्यक्ति को अपने दीन-दुर्बल होने की चुभन से पीड़ित करती रहती है। साधक जब सोचता है या उसके मन में भाव आता है कि इसके पास औरों की तुलना में साधनों की बेहद कमी है। वैभव कम है, संपदा कम है, यश नहीं मिल रहा, पद-प्रतिष्ठा नहीं है, तो वह दुःखी होता है। अभाव क्यों दिखाई देता है? जब दूसरों से तुलना करते हैं, तभी अभाव दिखाई देता है। मनुष्य के अलावा कोई और प्राणी अभाव का रोना नहीं रोता, क्योंकि उसके पास तुलना करने वाली सोच नहीं है।

तुलना की आदत एकदम नहीं छूट सकती, इसका अभ्यास धीरे-धीरे ही किया जा सकता है। आरंभ अपने स्वजन-संबंधियों से किया जाए। स्पर्द्धा और ईर्ष्या भी सबसे पहले अपने परिजनों में ही होती है। दूर रहने वाले या जो अपने संपर्क क्षेत्र में नहीं हैं, उनसे लोग कम ही तुलना करते हैं। हजारीबाग में रहने वाला रामकिशोर सिंह मुँबई में रहने वाले किसी उद्योगपति से न तो तुलना करेगा और न ही उसकी प्रगति से दुःखी होगा। वह अपने पड़ोस में परचून की दुकान करने वाले रिश्तेदार श्याम सिंह की बिक्री बढ़ते देख या उसके मकान में एक और कमरा बन जाने पर दुःखी हो जाएगा। किसी स्वजन-संबंधी के तरक्की करने पर मन में तुलना का भाव आता है। इस आदत पर अंकुश लगाया जा सके, तो संतोष की सिद्धि की दिशा में एक पक उठ गया समझना चाहिए।

दूसरों के बजाय अपने आप से तुलना का नियम भी बनाया जा सकता है। वह आत्मविकास की दिशा में अग्रसर करती है। कल हम जिस स्थिति में थे, उससे आज कितना आगे बढ़े हैं? पिछले साल की तुलना में इस साल साधन-संपदा में कितना विकास हुआ है? आज की स्थितियाँ पिछली स्थितियों से कितनी बेहतर हैं? इन प्रश्नों के साथ अपनी स्थिति की समीक्षा की जाए, तो अगले प्रश्न यह भी रहेंगे कि और बेहतर बनने के लिए क्या किया जाए? अपने आपसे स्वयं की तुलना करते हुए वर्तमान स्थितियों और साधनों के श्रेष्ठ उपयोग की बात भी सोचनी चाहिए। उसके उपाय ढूँढ़ने चाहिए, योजना बनानी चाहिए, किन लोगों का सहयोग लिया जा सकता है, यह भी विचार करना चाहिए। ध्यान रहे, ये प्रयत्न मानसिक व्यायाम तक ही नहीं रह जाएँ। चिंतन मनन के बाद जो निर्धारण हो, उस पर अमल भी किया जाए। यह निर्धारण किसी और के साथ मिलकर नहीं, स्वयं ही करना चाहिए। तुलना और समीक्षा का यह अभ्यास संतोष की सिद्धि तक पहुँचाएगा।

महर्षि पतंजलि ने संतोष की फलश्रुति बताई है कि उसके सिद्ध हो जाने पर साधक जो भी इच्छा करता है, वह पूरी हो जाती है। वह आप्तकाम हो जाता है अर्थात् कामना उठते ही पूरी होने लगती है। यह फलश्रुति कथा-कहानियों में बताए जाने वाले चमत्कारों की तरह नहीं है कि साधक ने इधर इच्छा की कि महल में रहने लगूँ और उधर महल बनकर तैयार हो गया। इस तरह के चमत्कार दुनिया में कहीं नहीं होते। वे कल्पना में ही होते हैं। वास्तविक जगत् में भी उसी तरह के चमत्कार होने लगें, तो यह संसार एक क्षण भी नहीं रहे। दिनभर में हम लोग जितना दूसरों को कोसते हैं और दूसरे हमें जितना कोसते हैं, वह सब सही होने लगे, तो प्रत्येक व्यक्ति को दिनभर में हजारों-लाखों बार मरना और पतन के गर्त में गिरना पड़े। कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर इच्छाएँ हाथों-हाथ पूरी होने की स्थिति किसी भी सिद्धि के अंतर्गत नहीं आती।

योगशास्त्र एक विज्ञान है। योगसूत्रों के संबंध में तो विद्वान् आचार्य ही नहीं वैज्ञानिक भी मानते हैं कि वे गणित के फार्मूलों की तरह हैं। उनमें एक भी शब्द व्यर्थ नहीं है और न ही कोई आश्वासन लुभाने के लिए दिया गया। संतोष की सिद्धि इच्छा करते ही उसके पूरी हो जाने के रूप में की गई है, तो उसका अर्थ इतना है कि व्यक्ति तृष्णा, वासना, ईर्ष्या और द्वेष के ज्रलों में नहीं भटकता। इनके नुकीले और काँटेदार पत्तों में उलझने की बजाय वह अपने विकास के राजपथ पर चलता है। सार्थक और उचित इच्छाएँ ही उसके मन में उठती हैं। उन्हें पूरी करने के लिए वह सोचता, योजना बनाता और प्रयत्न करता है।

उत्साह और संतोष लौकिक और आध्यात्मिक दोनों ही दिशा में आगे बढ़ने के लिए उपयुक्त भूमिका बनाते हैं। वस्तुतः लौकिक और आत्मिक क्षेत्र अलग नहीं हैं, जिस बिंदु पर हमारी चेतना खड़ी है वहीं की प्रस्थान दिशाओं के नाम हैं। परम अवस्था में पहुँचने के बाद इस तरह के भाषा-विवेक की आवश्यकता नहीं पड़ती। साधना की अवस्था ये समझने के लिए ही है कि जब हम प्रस्थान बिंदु से जगत् की ओर यात्रा करते हैं, तो वह लौकिक हो जाता है और अपने भीतर मुड़ते हैं, तो आत्मिक हो जाती है।

संतोष की सिद्धि के लिए क्षुब्ध और निराश करने वाली स्थितियों से बचने का परामर्श दिया गया है। स्थितियों का अर्थ उन व्यक्तियों से भी है, जो हमारे मन, सोच और संकल्प को प्रभावित करते हैं। वह वातावरण भी छोड़ना चाहिए या उससे बचना चाहिए, जो अपने आप को क्षुब्ध करता हो। मन में निराशा भरता हो। क्षोभ और निराशा भी ईश्वर के प्रति अविश्वास का ही एक प्रकार है। जितनी देर हम निराश होते हैं, उतनी देर ईश्वर के मंगल विधान पर संदेह करते हैं। अपने विश्वास को डगमगा रहे होते हैं अपने उस विश्वास को सदैव स्थिर रखना चाहिए।


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