सौरमंडल में सूर्य प्रधान है। वेदों के अनुसार सूर्य मनुष्य को जगाकर अभीष्ट कार्य करने में प्रवृत्त करते हैं। ‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च’ कहकर सूर्य को सभी चराचर की आत्मा माना गया है। इस समस्त भूमंडल पर सर्वसाक्षी सूर्य सर्वत्र गूढ़ विचरण कर जीवों और मनुष्यों की गतिविधियों को देखते हैं। ग्रीक भाषा में सूर्य को ‘हेलियस’ कहा गया है। इस शब्द का अर्थ है तेजोमय।
सूर्य का यह तेज उसमें उत्पन्न अनंत ऊर्जा का परिणाम। इसी ऊर्जा के कारण पृथ्वी में प्राण का संचार होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार, पृथ्वी से आग के गोले के रूप में दिखने वाले सूर्य में भी हलचलें होती हैं। जो सौरज्वाला एवं काले धब्बों के रूप में देखी जा सकती हैं।
हालाँकि सूर्य सौरमंडल की मुख्य धुरी है, परंतु अपनी आकाशगंगा में यह भी एक छोटा-सा तारा है। सूर्य और पृथ्वी के मध्य 14 करोड़ 96 लाख किलोमीटर का फासला है। फिर भी सूर्य की किरणें यह लंबी दूरी मात्र आठ मिनट में तय कर लेती हैं। सूर्य का व्यास 13 लाख 92 हजार किलोमीटर है, जबकि पृथ्वी का लगभग 12 हजार 756 कि.मी. है। यह कल्पना करना आसान नहीं है कि पृथ्वी से कई गुना बड़ा एवं भारी सूर्य एक जलता हुआ पिंड है।
इसके समस्त भागों का तापमान एकसमान नहीं होता। इसका सतही तापमान लगभग 6000 डिग्री सेल्सियस है। सूर्य की रोशनी और गरमी के पीछे सौर ऊर्जा कार्य करती है। यही ऊर्जा पृथ्वी का प्राण है। इसी प्राण से पृथ्वी में जीवन का विकास संभव हो सका है। यह ऊर्जा सूर्य के केंद्र में न्यूक्लियर क्रिया से उत्पन्न होती है। इसके परिणाम-स्वरूप हाइड्रोजन गैस हीलियम में परिवर्तित होती रहती है। सूर्य के केंद्र में 5640 लाख टन हाइड्रोजन एक सेकेंड में 5400 लाख टन हीलियम में बदल जाती है। इससे 40 लाख टन हाइड्रोजन के बराबर की ऊर्जा किरणों के रूप में सूर्य से बाहर निकलती है। सूर्य प्रति सेकेंड 3.8 फ् 10-26 ‘जे’ ऊर्जा अंतरिक्ष में उत्सर्जित करता है।
पिछले पाँच अरब वर्षों से सूर्य अपनी गैस को ऊर्जा में परिवर्तित करता चला आ रहा है। ऊर्जा की खपत भी उसी अनुरूप होती है। इसकी सतह का जो तापमान है, वह पूरी सतह पर एकसमान नहीं है। सूर्य के फोटोस्फीयर में 6000 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान होता है। इसमें अनियंत्रित गैसों की एक परत क्रोमोस्फियर होती है। इन दोनों के बीच एक और परत होती है, जिसका तापमान 4500 डिग्री सेंटीग्रेड होता है। यह सूर्य का सबसे ठंडा प्रदेश होता है। इसे सूर्यग्रहण के प्रारंभ एवं अंत में मैग्नेटा फ्रीज के रूप में देखा जा सकता है।
सूर्य के जिस सतही स्थान पर तापमान कम होता है एवं अँधेरा व ठंडा मात्र होता है, उसे ‘मन स्पॉट’ कहा जाता है। सन स्पॉट का तापमान अपनी निकटवर्ती गैस के तापमान से 2000 सेंटीग्रेड कम होता है। यह फोटोस्फीयर में काले धब्बे के रूप में होता है। इनकी संख्या एक हजार से चालीस हजार के बीच होती है। ये धब्बे जोड़ी या समूह में भ्रमण करते हैं तथा इनका जीवनकाल कुछ दिनों से लेकर कुछ महीनों तक होता है। इन धब्बों को खोजने का सर्वप्रथम श्रेय महान् वैज्ञानिक गैलीलियो का जाता है।
सूर्य कभी शाँत नहीं रहता। उसके अंदर हलचलें उठती रहती हैं। ये हलचलें कभी-कभी इतनी तीव्र होती हैं कि सूर्य की सतह पर ऊँची-ऊँची ज्वालाएँ फूट पड़ती हैं। अमेरिकी भौतिकविज्ञानी यूनीन नॉरमन पार्लर के अनुसार हाइड्रोजन और हीलियम की आयनीत गैस से बनी एक धारा लगातार और अनवरत रूप से सूर्य से प्रवाहित होती रहती है। इस प्रवाह में प्रोटानों और इलेक्ट्रानों की संख्या बराबर होती है। इसे ही सौर वायु के नाम से जाना जाता है। सौर वायु की गति 1.26 से 2.88 मिलियन किलोमीटर प्रति घंटा होती है।
सौर्य ज्वाला ‘सन स्पॉट’ से ऊर्जा के रूप में फूट पड़ती है। ये भारी मात्रा में सौर वायु में कणों को बिखेर देती हैं, जो ऊर्जा के कण धरती में जबर्दस्त चुँबकीय क्षेत्र का निर्माण करते हैं। इससे धरती में संचार माध्यम पूरी तरह ध्वस्त हो सकते हैं। सौर ज्वाला अंतरिक्ष में सैकड़ों मील के दायरे में फैल जाती हैं। अब तक सौर ज्वालाएँ अत्यधिक उग्र रूप में 28 फरवरी 1942, 19 नवंबर 1949, 13 सितंबर 1971 तथा अप्रैल 1990 को देखी गई थीं।
बीसवीं शताब्दी के आखिरी पड़ाव सन् 2000 में सूर्य की हलचलें फिर से अपने प्रचंड रूप में देखी गईं। अभी पिछले वर्ष मार्च 2000 की 3 और 4 तारीख को सूर्य की बाहरी सतह पर सौ-सौ मेगाटन क्षमता के करोड़ों हाइड्रोजन बमों के बराबर शक्ति के विस्फोट हुए। इससे पृथ्वी के अंदर घातक पराबैगनी किरणों का भीषण तूफान प्रवेश कर गया। प्रसिद्ध अंतरिक्ष भौतिकविद् आर.एस. श्रीवास्तव के अनुसार, इस घटना से पृथ्वी पर एक्स किरणों तथा पराबैगनी विकिरण की वर्षा के कारण दिन में 11 से डेढ़ बजे का समय अत्यंत खतरनाक था।
अमेरिका के जे.एम. फ्रीज एवं डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार, सूर्य के कोरोना क्षेत्र में दो बिंदु हैं। इन्हें 8882 तथा 8881 नाम से जाना जाता है। वर्तमान कालावधि में ये दोनों बिंदु अचानक अत्यधिक सक्रिय हो गए हैं। इन दोनों स्थानों से 20 करोड़ टन कोरोना द्रव्य का आवेशित किरण पुँज बाहर निकल रहा है। इसकी गति 3000 किलोमीटर प्रति सेकेंड है। इसकी दिशा पृथ्वी की ओर कभी भी मुड़ सकती है। सामान्य रूप से इसकी यह प्रक्षेपण गति दस गुना अधिक है। इन किरणों में बीटा और गामा किरणें भी सम्मिलित हैं। इस खगोलीय घटना के संदर्भ में दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक प्रोफेसर विष्णु भाटिया ने स्पष्ट किया है कि कभी-कभी पृथ्वी का चुँबकीय क्षेत्र सूर्य से निकलने वाले उच्च ऊर्जा कणों को विचलित कर देता है। इस बार भी कुछ इसी तरह की घटना घटी और पृथ्वी एक बड़े खतरे से बच गई।
धरती पर तूफानों का विध्वंसक रूप तो कभी-कभी देखने में आता है, परंतु सूर्य पर इससे भी विकराल, भयंकर एवं तेज तूफान सदैव चक्कर काटते रहते हैं। इस तूफान की वजह से सूर्य पर विद्यमान् सौरकलंक की सक्रियता प्रत्येक बारहवें वर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है। इससे सूर्य के आभामंडल के आकार और आकृति में समय-समय पर परिवर्तन होता रहता है। इन सौरकलंक के तीव्र चुँबकीय 222 के निकट का तापमान शेष क्षेत्र की तुलना में कम होता है। दूसरी ओर के चुँबकीय क्षेत्र में अत्यधिक तापमान पर इलेक्ट्रॉन, प्रोटान एवं परमाणविक आयनों सदृश्य विद्युत्करण अत्यंत जटिल पथों पर भ्रमण करते हैं। सूर्य की सक्रियता ग्यारह वर्षीय चक्र चलने का यही कारण है। प्रत्येक बारहवें वर्ष में यह सक्रियता अपनी चरम सीमा पर होती है। 24 अप्रैल 1990 को इसी सौर हलचल के दौरान सूर्य उत्तर-पश्चिम भाग से सूर्य का कुछ पदार्थ अत्यंत वेग के 222 अलग होकर जाते देखा गया था। यह सूर्य से 10 लाख किलोमीटर दूर तक छिटककर पहुँच गया था।
सौरकलंक की अधिकतम सक्रियता के कारण प्रायः 222 पर बहुतरंगीय ध्रुवीय ज्योति प्रकट होती है। इस ज्योति को उत्तरी ध्रुव में ‘अरोरा बोरियालिस’ तथा दक्षिण ध्रुव में ‘अरोरा आस्ट्रियालिस’ कहते हैं। सौर कलंकों से उठने वाले चुँबकीय तूफानों के विद्युत्कृत कणों को पृथ्वी का चुँबकीय क्षेत्र अवशोषित कर लेता है। इसी के परिणाम-स्वरूप पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण ध्रुव पर प्रकाश के मनोहारी एवं सुँदर दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं।
सौरकलंक में होने वाली अभिक्रियाओं से निकलने वाली किरणें पृथ्वी के आयनमंडल तक पहुँच जाती हैं। इससे पृथ्वी का भू-चुँबकीय क्षेत्र भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। सौर-हलचलों की अधिकतम तीव्रता हुए बिना नहीं रहता। सौर-हलचलों की अधिकतम तीव्रता पृथ्वी के आयनोस्फियर में उथल-पुथल मचा देती है। इस वजह से धरती में चुँबकीय तूफान आने की संभावना बढ़ जाती है। इससे रेडियो संचार में बाधा पड़ती है और विद्युत् आपूर्ति के अस्त-व्यस्त होने की आशंका रहती है। हमारी पृथ्वी कई बार इन घटनाओं का कटु अनुभव झेल चुकी है। इन खगोलीय घटनाओं से अनेक देशों में विद्युत् व्यवस्था ध्वस्त हो गई थी। इसी वजह से कनाडा का हाइड्रोक्यूबिक विद्युत् संयंत्र भी नष्ट हो गया था और कनाडा एवं अमेरिका के कई शहर घंटों अँधेरे के साये में डूबे रहे।
वर्तमान सौरकलंकों के बढ़ने की शुरुआत 1996 से हुई और मार्च 2000 में अपनी चरम सीमा पर रही। सूर्य पर जब चुँबकीय सक्रियता अधिक होती है, तो उसके आभामंडल में समरूपता रहती है, परंतु जब उस पर चुँबकीय सक्रियता कम होती है, तो उसके आभामंडल में अनेक ज्योति रेखाएँ नजर आती हैं, जो अंतर्ग्रहीय अंतरिक्ष में दूर तक प्रवेश कर जाती हैं। अमेरिका के नेशनल ओशनिक एण्ड एटमाँस्फेरिक एडमिनिस्ट्रशन के मौसम विज्ञानी गैरी हैकमेन का कहना है कि इस बार सौरचक्र में होने वाले विस्फोट और इसके कारण आने वाली किरणों का घातक तूफान पृथ्वी से एक लाख पचास हजार किलोमीटर दूर से गुजर गया, इसे एक दैवी कृपा ही कहा जा सकता है। अन्यथा अंतरिक्ष में स्थापित प्रायः सभी कृत्रिम उपग्रह और उन पर आश्रित आधुनिक उद्योग एक बड़ी दुर्घटना के शिकार हो जाते।
सूर्य में होने वाली ये सभी हलचलें व्यापक परिवर्तन की परिचायक हैं। वैज्ञानिकों का यह मानना है कि इन हलचलों के परिणामस्वरूप आने वाले समय में धरती पर बड़ी मात्रा में परिवर्तन होंगे। उनका कहना है कि धरती की आकृति तो वही रहेगी, पर प्रकृति पूरी तरह बदल जाएगी। इसे इक्कीसवीं सदी में होने वाले युगपरिवर्तन के रूप में भी देखा जा सकता है। “