लूटमार की संस्कृति (Kahani)

March 2001

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एक व्यक्ति बड़ा निकम्मा था। हालाँकि वह खूब मोटा-ताज, शक्तिशाली और स्वस्थ था, परंतु काम कुछ नहीं करता। इसलिए लोग उसे साँड़ कहकर पुकारते थे। एक दिन वह कहीं जा रहा था। सामने से आता दिखाई दिया एक साँड़ (नन्दी)। उसके पीछे ही साँड़ का मालिक बाबाजी भी आ रहा था। उस निकम्मे व्यक्ति ने साँड़ को देखकर मौज से कहा, “आओ मित्र भाई हम तुम गले मिलें। हम दोनों में अंतर ही क्या है।” “और तो सब बराबर है, पर एक अंतर है। वह यह कि इस समय पर घास मिल जाती है और तुम्हारी भगवान् जाने-” बाबाजी बोले। वस्तुतः निकम्मे तथा आलसियों से पशु-जानवर भी अच्छे रहते हैं।

यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि जब प्रतिस्पर्द्धा बढ़ती है, तो उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार होता है, परंतु टी.वी. चैनलों के कार्यक्रमों पर दृष्टि डाले, तो निराशा ही हाथ लगती है। अधिकाँश कार्यक्रमों में हिंसा, अपराध व अश्लीलता को ही भिन्न-भिन्न तरीकों से दिखाया जाता है। ‘मीडिया एडवोकेसी’ शोध समूह द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट के अनुसार चार चैनलों के धारावाहिकों में देखे गए कुल 210 खंडों में न्यूनतम 351 घटनाएँ ऐसी देखी गईं, जो सीधे हिंसा केंद्रित कही जा सकती हैं। 458 घटनाएँ ऐसी थीं, जिन्हें हिंसात्मक कहा जा सकता है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि हर हिंसक घटना में एक से ज्यादा हिंसात्मक तरीके सक्रिय होते हैं और कुल कथा सामग्री के 72.3 प्रतिशत अंश में हिंसक घटनाएँ या हिंसात्मक गतिविधि होती है। ऐसे कार्यक्रमों से वा पीढ़ी को अपराध के नए-नए तरीके वह हिंसा सीखने के अतिरिक्त और क्या मिल सकता है? विदेशों में ही नहीं, भारत में भी हत्या, डकैती जैसे अपराध करने वाले कई अपराधी जिनमें किशोर व वयस्क दोनों शामिल हैं। पूछताछ में यह स्वीकार कर चुके हैं कि उन्होंने अमुक टी.वी. कार्यक्रम से प्रेरणा ली या अपराध करना सीखा। टी.वी. पर दिखलाए जाने वाले हिंसक घटनाएँ या प्रसंग टी.वी. दर्शकों के लिए दर्शन भर नहीं रह जाता, वह उपभोग बन जाता है। हिंसा का दर्शन इंद्रियों को सक्रिय करता है व लूटमार की संस्कृति को वैधता प्रदान कर जीने का तरीका बतलाता है।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अन्य चैनलों के साथ राष्ट्रीय व मैट्रो चैनल भी निजी चैनलों से स्पर्द्धा करते हुए प्रायः जीवन के इन्हीं नकारात्मक पक्षों को दिखाने में जुट गए हैं, जबकि इन्हें अपेक्षाकृत अधिक जिम्मेदार होना चाहिए। हिंसा, अपराध व अश्लीलता को लेकर फिल्म उद्योग की छवि तो पहले ही धूमिल हो चुकी है, अब उसकी काली छाया का प्रभाव टेलीविजन तक पहुँचना किसी भी स्थिति में अच्छा नहीं कहा जा सकता।

‘इंटरनेशनल कम्यूनिकेशन्स फोरम’ की सलाहकार समिति के अध्यक्ष विलियम ई. पोर्टर का कहना है कि पहले व्यक्ति पर परिवार, स्कूल व धार्मिक संस्थाओं का प्रभाव पड़ता था और अब मीडिया का गहरा प्रभाव पड़ने लगा है। टी.वी. कार्यक्रम एक मीठा जहर है, जिसका सबसे ज्यादा असर बच्चों व किशोरों पर पड़ता है। अमेरिका में छपी एक खबर के अनुसार वहाँ के मनोविश्लेषकों और समाजशास्त्रियों ने समाज पर टी.वी. कार्यक्रमों के प्रभाव पर पिछले दस सालों में हजारों सर्वेक्षण व शोधग्रंथ प्रस्तुत किए हैं। अध्ययन से यह तथ्य उभरकर सामने आया कि बहुतों के बुढ़ापे का एक-चौथाई समय टी.वी. देखने में चला जाता है। लाखों बच्चे भी 20 वर्ष की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते अपनी जिंदगी के छह साल टी.वी. के सामने स्वाहा कर चुके होते हैं। अमेरिकी स्कूलों में हार महीने 52,500 हमले, चोरी व डकैती की घटनाएँ होती हैं। हर वर्ष स्कूल की इमारतों व उसके आस-पास 30 लाख अपराध होते हैं। लगभग एक लाख पैंतीस हजार बच्चे बंदूक लेकर स्कूल जाते हैं और बीस प्रतिशत बच्चे चाहे तो बंदूक प्राप्त कर सकते हैं। बीस प्रतिशत बच्चे विश्राम के लिए बने कमरों नहीं जाते, क्योंकि वहाँ उन्हें लूटे जाने या छेड़खानी किए जाने का भय रहता है। अमरीकी समाज में स्कूली छात्राओं के माँ बनने का प्रतिशत भी बहुत ज्यादा है।

भारत में भी हाल ही में किए गए एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का स्तर गिर रहा है। गणित व भूगोल जैसे विषयों में बच्चे कमजोर हो रहे हैं। भाषा बिगड़ रही है, याददाश्त में कमी आती जा रही है। वे उन विज्ञापनों को जरूर याद रखते हैं, जो टी.वी. पर बार-बार दिखाए जाते हैं। साथ ही वे बच्चों के लिए बने उपदेशात्मक कार्यक्रमों को पसंद न कर बड़ों के कार्यक्रमों को देखना ज्यादा पसंद करते हैं। ये कार्यक्रम उन्हें ऐश्वर्य के झूठे सपने दिखाते हैं, उन्हें असहिष्णु व उग्र बनाते हैं। एक ऐसे कल्पनालोक में ले जाते हैं, जिसका कोई अस्तित्व नहीं। दूरदर्शन एवं अन्य टेलीविजन चैनलों में जो सुपरमैन, हीमैन, फैंटम जैसी कार्टून फिल्में दिखाई जाती हैं, वे बच्चों में विज्ञान चेतना व तर्क क्षमता पैदा करने के बजाय उनमें अंधविश्वास व चमत्कारों को सही मानने की भावना भरते हैं। बच्चों के चेहरे से बालसुलभ मुस्कान गायब होती जा रही है। उनकी आँखों में मासूम शरारत की जगह उद्दंडता और अवज्ञा के भाव परिलक्षित होने लगे हैं। उनके हाथ खिलौनों के बजाय चाकू व बंदूक से खेलने लगे हैं। कला, यथार्थ व मनोरंजन के नाम पर पश्चिमी संस्कृति का लुभावना दर्शन व्यक्ति को अपनी ही संस्कृति से कटने को विवश कर रहा है।

इतना ही नहीं, इस शोध-अध्ययन में टी.वी. से होने वाली शारीरिक बीमारियों का भी विस्तृत उल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि हिंसा व अनैतिक गंदगी से भरे कार्यक्रमों का असर सीधे पेट पर होता है, फलस्वरूप अपच, गैस और आमाशय की अन्य खराबियों के साथ अल्सर भी हो सकता है। इसका असर श्वास प्रक्रिया पर भी पड़े बिना नहीं रहता। साँस लेने में तकलीफ होती है, धड़कन बढ़ जाती है, रक्तचाप तेज हो जाता है। कुछ लोगों में ‘डिप्रेशन’ एवं ‘मानसिक असंतुलन’ के लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं। महिलाओं में हारमोन का असंतुलन तो होता ही है। गर्भस्थ शिशु को भी नुकसान पहुँच सकता है।

वैज्ञानिकों का मत है कि कार्यक्रमों को प्रसारित करने और देखने के बीच जो वैज्ञानिक प्रभाव हो सकते हैं, उसके बारे में हर टी.वी. दर्शक को जानकारी होनी चाहिए। जैसे टी.वी. के परदे पर जो तस्वीरें उभरती हैं, वे हमारे सामने इलेक्ट्रॉनिक स्कैनिंग के माध्यम से आती हैं। इस प्रक्रिया में लाखों छोटे-छोटे बिंदुओं को रेखाओं में बदलकर स्क्रीन पर लाया जाता है और एक सेकेंड में तीस-चालीस बार की रफ्तार से उस पर तेज रोशनी डाली जाती है। इससे आँखों व दिमाग को बार-बार झटका लगता है और चूँकि हमारा दिमाग इस तरह के झटके एक सेकेंड में बीस बार से अधिक सहने की शक्ति नहीं रखता, इसलिए आँखों और दिमाग दोनों को काफी नुकसान पहुँचता है।

आँकड़े बताते हैं कि हमारे देश में हर चार परिवारों में से एक के पास टेलीविजन है। इस सशक्त माध्यम का इस्तेमाल लोगों को शिक्षित व जागरूक बनाने के लिए किया जा सकता है। पारिवारिक कार्यक्रमों का निर्माण हो, साथ ही अपनी संस्कृति से जुड़े विषयों पर कार्यक्रम बनें। युवा पीढ़ी सबसे ज्यादा जागरूक व चिंतित रहती है अपने कैरियर के प्रति। टी.वी. पर ऐसे बेहतर व रोचक शैक्षणिक कार्यक्रम दिखाए जाने चाहिए, जिससे उन्हें मार्गदर्शन मिल सके। तकनीक का गलत इस्तेमाल नई पीढ़ी को बरबाद कर देगा। न उन्हें अपने देश की जानकारी होगी, न समाज की। ऐसा नहीं है कि अच्छे कार्यक्रम बन नहीं सकते। जब हमारे यहाँ उत्कृष्ट कलाकारों व निर्देशकों की कमी नहीं है, फिर कोई कारण नहीं हो सकता कि अच्छे कार्यक्रम न बनाये जा सकें। फिल्मी विज्ञापनों के बजाय अच्छे कार्यक्रमों को हाईलाइट किया जाना चाहिए, ताकि ज्यादा-से-ज्यादा लोग उसे देख सकें। निजी चैनलों को भी चाहिए कि समाज निर्माण में योगदान दें व बेहतर शैक्षणिक कार्यक्रम बनवाएँ। इससे सजग व कर्त्तव्यनिष्ठ पीढ़ी तैयार होगी। अभिभावकों को भी चाहिए कि वे केवल वही कार्यक्रम अपने बच्चों को देखने दें, जो उन्हें स्वस्थ मनोरंजन देते हों, शिक्षाप्रद हों। ऐसा करके ही हम वर्तमान सदी में स्वयं को और अपने परिवार एवं समाज को सँवार सकते हैं।


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