भारतभूमि स्वर्गादपि गरीयसी

March 2001

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प्रचलित इतिहास में हमें बचपन से यह ज्ञान दिया जाता है कि हमारे पूर्वज आर्य जाति के यायावर जंगली (अर्द्ध सभ्य) लोग थे और वे मध्य एशिया के रहने वाले थे। उन्होंने उत्तर-पश्चिम भाग से भारत में प्रवेश किया। यहाँ उस समय एक सहस्र वर्ष से भी अधिक समय से सिंधु घाटी की सभ्यता फल-फूल रही थी, जिसके निवासी मूलतः द्रविड़ थे। आक्राँता आर्यों ने इस सभ्यता को रौंद दिया व द्रविड़ों को दक्षिण की ओर खदेड़ा। फिर कुछ सदियों में वेदों की रचना की, संस्कृत का प्रचार पूरे भारत में किया व महान् गंगा सभ्यता का निर्माण किया।

हमारे पूर्वजों का विदेश से आने वाला यह बर्बर, जंगली एवं असभ्य रूप एक भी ठोस तथ्य पर आधारित नहीं है, बल्कि भारत विद्वेषी यूरोपीय शासकों, मिशनरियों एवं इतिहासकारों द्वारा कल्पित षड्यंत्र का एक हिस्सा था। इस छद्म जाल से सावधान रहने की चेतावनी देते हुए, स्वतंत्रता का मंत्र देने वाले बंकिमचंद्र चटर्जी ने देशवासियों से कहा था, मुझे तुम लोगों को अपनी चेतावनी कड़े शब्दों में कह देनी है, क्योंकि तुम लोगों को प्रमाणित करने वाले यूरोपीय विद्वानों की सामान्य वृत्ति हमारे भूतकालीन इतिहास को लाँछित करने की है। उसकी गौरवमय स्मृतियों को तुम लोगों के मस्तिष्क से मिटाने की है और तुम लोगों को विपरीत दिशा में भटकाने की है। विदेशी बहकावे में अपने गौरवमयी अतीत को भुलाने की यह बात आज भी प्रासंगिक है।

सच तो यह है कि आर्यों का विदेशी आक्राँता होने का मत कभी भी किसी ठोस तथ्य पर आधारित नहीं रहा है। झूठ के आधार पर खड़ा इसका वैचारिक महल आज सत्यान्वेषियों के शोध-निष्कर्षों के प्रहारों से धराशायी हो गया है। आर्य विदेश से आए बर्बर आक्राँता थे, भारत के मूल निवासी नहीं, इस मत को सर्वप्रथम चुनौती स्वामी दयानंद सरस्वती ने दी, जिन्होंने स्पष्ट किया कि वेद में उल्लेखित आर्य शब्द कोई जाति न होकर नैतिक व आँतरिक गुण का परिचायक है।

इसके बाद स्वामी विवेकानंद ने अपनी दिव्य शक्ति से देशवासियों को अपने अतीत की गौरव-गरिमा से परिचित करवाया। उन्हें न केवल भारतीय ग्रंथों का अनुभूत बोध था, बल्कि पाश्चात्य इतिहास एवं धर्म का भी गहन ज्ञान था। उन्हें आर्यों के संदर्भ में पश्चिम की कुटिलता को समझने में देर न लगी। तभी तो अमेरिका के एक भाषण में उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा था, “तुम्हारे पाश्चात्य विद्वान् आर्यों को विदेशी भूमि से आकर आदिवासियों की भूमि छीनकर उन्हें भगा, वहाँ निवास करने की बात करते हैं। यह सब विशुद्ध बकवास है, मूर्खतापूर्ण-नादान बातें हैं। आश्चर्य कि हमारे भारतीय विद्वान् भी इन्हें आँख मूँदकर मानते हैं।” स्वामी जी ने दुःखी होकर कहा था कि ये सब भयंकर झूठ हमारे बच्चों को पढ़ाए जाते हैं।

आगे चलकर श्री अरविंद ने अपने ग्रंथ ‘सिक्रेट ऑफ दि वेदाज’ में देशवासियों को वेद के संदर्भ में यूरोपीय विद्वानों की दुर्भाग्यपूर्ण गलत धारणाओं से सावधान एवं सचेत किया है और उत्तर-पश्चिम से आर्य आक्राँताओं के सिद्धाँत को निराधार एवं अनिश्चित तथ्यों पर आधारित बताया है। उनके अनुसार इसका वेदों में कहीं उल्लेख नहीं है। इसी तरह आर्य एवं द्रविड़ों की भिन्नता भी भ्राँतिपूर्ण तथ्यों पर आधारित है। तमिल के गहन अध्ययन के उपराँत श्री अरविंद ने संस्कृत एवं तमिल के बीच गहन संबंध पाया व दोनों भाषाओं को एक विलुप्त आदि भाषा की दो शाखाओं के रूप में देखा।

श्री अरविंद के 10 वर्ष बाद गणितज्ञ एवं भाषाविद् आर. स्वामीनारायण अय्यर भी द्रविड़ भाषाओं के गहन शोध के आधार पर तमिल व संस्कृत के बीच गहन संबंध के निष्कर्ष पर पहुँचे। उनके अनुसार द्रविड़ क्रियाएँ (verbes) इंडो-आर्यन श्ज्ञबछज्ञै। क्ज्ञ था, जो समय के साथ बहुत विकृत हो गया व पहचानना बहुत कठिन हो गया है। दक्षिण भारत के ही भाषाविद् एवं गणितज्ञ एन. एस. राजाराम का भी अपने शोध-निष्कर्षों के आधार पर कहना है कि द्रविड़ भाषाएँ संस्कृत की तरह समरूपता पर प्रकाश डालती हैं। कुछ मायनों में द्रविड़ भाषाओं ने संस्कृत के प्राचीन स्वरूप को हिंदी जैसी उत्तर भारतीय भाषाओं की अपेक्षा बेहतर ढंग से संरक्षित रखा है।

भारतीय संविधान के निर्माता वी.आर. अंबेडकर भी अपने वेदों के अध्ययन-अनुशीलन के उपराँत इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि आर्यों के आक्राँता होने का मत एक ऐसा आविष्कार है, जो तथ्यों पर आधारित नहीं है। यह सिद्धाँत पूर्व कल्पनाओं पर आधारित है, जिसमें तथ्यों को तोड़-मरोड़कर इन्हें सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया है। वेदों में आर्य नाम की जाति का कोई उल्लेख नहीं है। वेदों में आर्य जाति द्वारा भारत पर आक्रमण का भी कोई प्रमाण नहीं है। भारत के मूल निवासी दास-दस्युओं पर विजय, आर्य एवं दस-दस्युओं के बीच जातिभेद जैसी किसी चीज का प्रमाण नहीं है। न ही इसके बीच रंगभेद जैसी किसी बात का उल्लेख है। यदि मानवशास्त्र (Anthropology) एक विज्ञान है, जो जाति का निर्धारण करने में सहायक है, तो इसकी खोज यह सिद्ध करती है कि ब्राह्मण और अछूत एक ही जाति के हैं। यदि ब्राह्मण आर्य हैं, तो अछूत भी आर्य हैं। यदि ब्राह्मण द्रविड़ हैं, तो अछूत भी द्रविड़ हैं।

आर्यों के संबंध में न ही वेद और न ही अन्य संस्कृत ग्रंथों में भारत के बाहर किसी मूलभूत गृहभूमि का उल्लेख आया है। वास्तव में आर्यों की भूमि के संदर्भ में आए सभी स्थान जैसे सप्तसिंधु, आर्यावर्त, भारतवर्ष सभी भारतीय प्रायद्वीप में ही हैं। रामायण, महाभारत व पुराणों में भी उच्चस्तरीय विकसित सभ्यता की चर्चा भारत में ही है, जो कई सहस्राब्दियों तक चली।

बहुचर्चित लेखक भगवान् एस. गिडवाणी ने भी अपनी पुस्तक ‘रिटर्न ऑफ द आर्यन्स’ में इस ऐतिहासिक विश्वास का खंडन किया है कि यूरोपीय मूल के आर्यों ने उत्तर-पश्चिम से भारत में घुसकर हड़प्पा सभ्यता को तहस-नहस किया था। श्री गिडवाणी ने यह निष्कर्ष भारत, यूरोप एवं एशिया के लगभग 20 देशों के लोगों में युगों से प्रचलित आर्यों के गीतों, पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक प्रमाणों के मंथन से निकाला है। उनका दृढ़ विश्वास है कि आर्य मूल रूप से भारतवर्ष के निवासी थे।

1920-22 में भारतीय पुरातत्त्व विभाग द्वारा हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो में हुई खुदाई ने इस विषय पर गहन प्रकाश डाला है। इसके बाद के वर्षों में कई अन्य स्थानों पर भी ऐसे ही स्थल पाए गए, जो इस सभ्यता की व्यापकता ही नहीं, बल्कि इसके विकसित स्वरूप पर भी प्रकाश डालते हैं। इस सभ्यता को सिंधु घाटी की सभ्यता नाम दिया गया था, लेकिन बाद की खोजों के अनुसार यह सभ्यता मुख्यतः सरस्वती नदी के किनारे बसी थी। अतः इसे सिंधु-सरस्वती सभ्यता कहना अधिक उचित होगा। यह 1500 से 1900 ई. पू. तक फली-फूली। अब तक खोजे गए लगभग 1500 स्थलों के आधार पर यह पूर्वानुमानित सीमा से कहीं अधिक व्यापक थी। इसका विस्तार पश्चिम में ईरान की सीमाओं तक, उत्तर में कश्मीर और हिंदुकुश पर्वत से आगे तुर्कमानिया, बैकट्रिया, तजाकिस्तान के पामीर पर्वतों के चरणों तक, दक्षिण में गोदावरी नदी तक तथा पूर्व में दिल्ली से भी आगे तक, लगभग 20 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र में था। जो समकालीन मिश्र या मेसोपोटामिया की सभ्यता से बहुत बड़ी थी। यह निस्संदेह महानतम सभ्यताओं में एक थी।

सिंधु-सरस्वती क्षेत्र में हुए तमाम पुरातत्त्वीय खोजों से ऐसा कोई प्रमाण हाथ नहीं लगा है, जो आर्यों के बाहर से आने की बात को सिद्ध करे। यहाँ के बरतन, हथियार, लिपि, कला, मूर्तियाँ आदि इसकी पुष्टि नहीं करते। इसके विपरीत इस सभ्यता का वैदिक स्वरूप ही प्रमाणित होता है।

ऋग्वेद में न केवल जहाजरानी एवं समुद्री जहाजों का उल्लेख है, बल्कि नगरों से लेकर व्यापार एवं उद्योगों का भी उल्लेख है, जो सभी सिंधु-सरस्वती सभ्यता के साथ साम्य रखते हैं व इनका मध्य एशिया के यायावरों से कोई संबंध नहीं बैठता। इस सभ्यता की सबसे बड़ी विशेषता इसकी नगरीय विकास एवं व्यवस्था थी, जिसका स्तर यूरोप में 2000 वर्षों बाद देखने को मिलता है। इसके विदेशों में आँमन, बहरान, सुमेर जैसे देशों से व्यापार संबंध थे। इसके ‘लोथल’ को विश्व की सर्वप्रथम बंदरगाह (dockyard) एवं ज्वारीय अवरोधक (tidal lock) होने का गौरव प्राप्त है।

यहाँ पाई गई मुद्राओं से धार्मिक प्रचलनों का वैदिक स्वरूप उजागर होता है। देवताओं की मूर्तियाँ योगमुद्रा में बैठी या खड़ी पाई गई हैं। अग्नि पूजा, शक्ति उपासना, नंदी, पशुपति, शिव आदि रूपों में वैदिक सभ्यता के सशक्त प्रमाण मिले हैं। योग-आसन में ध्यान करते हुए योगी की मुद्रा, उस समय की योग-साधना पर प्रकाश डालते हैं। सैकड़ों मुद्राओं से उपलब्ध रहस्यमयी सिंधु लिपि का संस्कृत से संबंध पाया गया है।

अपने व्यापक रूप में सिंधु-सरस्वती सभ्यता वैदिक स्वरूप की थी अर्थात् जिसकी साँस्कृतिक पृष्ठभूमि वेद से जुड़ी थी। 6000 वर्ष पुरानी मिट्टी से ऐसा कुछ नहीं खोदा गया है, जो (आज हिंदू धर्म के रूप में) प्रचलित वैदिक सभ्यता से कुछ भिन्नता लिए हो। आर्य आक्राँता दर्शन के प्रबल समर्थक जॉन मार्शल भी ‘मोहनजोदड़ो एण्ड द इंदु सिविलाइजेशन’ में यह कहने के लिए बाधित हुए कि सिंधु घाटी के लोगों का धर्म इतना भारतीय है कि इसे वर्तमान हिंदू धर्म से किसी भी रूप में अलग नहीं ठहराया जा सकता। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा दोनों जगह की सभ्यता एक आरंभिक सभ्यता नहीं है, बल्कि एक परिपक्व सभ्यता है, जिसके पीछे सहस्राब्दियों का मानवीय श्रम निहित है।

सिंधु-सरस्वती सभ्यता की प्रमुख नदी सरस्वती का आज भले ही कोई अस्तित्व न हो। लेकिन पुरातत्त्वीय खोजों से इसके पुरातन अस्तित्व का पता चलता है। उपग्रहीय चित्रों के द्वारा इसको प्रमाणित किया जा चुका है। यह हिमालय के चरणों में शिवालिक की पहाड़ियों से बहती थी। पंजाब में अंबाला के समीप मैदानों को छूती थी। सिंधु नदी के प्रायः समानाँतर चलती हुई राजस्थान के रेगिस्तानों से होती हुई अंततः गुजरात में कच्छ के रन में जाती थी और वहाँ अरब सागर में गिरती थी। यह तीन से दस कि.मी. चौड़ी एक विशाल नदी थी। एक समय सतलज एवं यमुना भी इसी की धाराएँ थीं। इनका प्रवाह 10,000 ई.पू. समाप्त हुए अंतिम हिमयुग में हिमालय के ग्लेशियर एवं बर्फशिलाओं के पिघलने के कारण अक्षुण्ण था। विस्तृत अन्वेषणों से यह तथ्य उजागर हुआ है कि सरस्वती नदी ने कई बार बाढ़ एवं भूकंपों के कारण अपनी राह बदली, जिससे सतलज नदी सिंधु नदी की ओर व यमुना पूर्व की ओर अपना रुख बदलती चली गई। प्रमाणों से यह भी स्पष्ट होता है कि बीच में सदियों लंबे सूखे पड़े, जिसके कारण सरस्वती कई खंडों में खंडित हो गई व अंततः 2000 ई. पूर्व तक पूर्णतः सूख गई।

वैदिक काल में ऋषि-मुनियों (आर्यों) के क्रिया–कलापों-तप-साधना की यह केंद्रीय स्थली रही है। ऋग्वेद काल में यह अपने पूरे वेग से प्रवाहित होती थी। आर्य लोग इसके किनारे रहते थे व इसके विविध अनुदान-वरदानों से अभिभूत होकर इसका स्तुतिगान करते थे। ऋग्वेद में इसकी स्तुति श्रेष्ठ माँ व श्रेष्ठ नदी के रूप में की गई है। (ऋग्. 2-41/16)।

ऋग्वेद, महाभारत एवं अन्य पुराणों से नदी की स्थिति का ज्ञान इसके किनारे बसे तीर्थस्थलों के रूप में हो जाता है। ऋग्वेद में लिखा है कि यह महान् नदी पर्वत से सागर तक बहती है। महाभारत में इसके रेगिस्तान में विलुप्त होने की बात कही गई है। आर्यों का विदेशी आक्राँता मत इन सभी ग्रंथों को 1000 ई.पू. के बाद के काल का बताता है अर्थात् सरस्वती नदी सूखने के 1000 वर्ष बाद की बात करता है, जो पूरी निराधार सिद्ध होता है।

सूखे में सरस्वती नदी का अंत हुआ। इससे कई अन्य क्षेत्र भी प्रभावित हुए थे। मेसोपोटामिया की सुमेरन सभ्यता भी इसी में क्षत-विक्षत हो गई थी। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के पतन के साथ इसके वासी पहले यमुना के नए प्रवाह की ओर बढ़े और फिर गंगा की ओर आए। यहीं उन्होंने नई सभ्यता का निर्माण किया, जो हम सबको विरासत में मिली है, जिसके आधार पर हम गर्व के साथ यह कह सकते हैं कि हमारे आदि पूर्वज ‘आर्य’ भारतवासी ही थे। जिन्होंने अपनी इस भारतभूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ बनाया।


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