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March 2001

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आदर्शों के लिए घाटा स्वीकार करते हुए लड़ मरने की साहसिकता का अनुदान अवतार के अतिरिक्त और किसी के पास नहीं होता।

-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

भगवान् का ‘मैं’ मंसूर का अनलहक है, सरमत का अनलहक है। मैं ही आत्मा हूँ। सरमत ने हाथी के पैरों से अपना सिर कुचलवा दिया, लेकिन सुल्तान को अल्लाह मानने से इंकार कर दिया। भगवान् का ‘मैं’ अर्थात् सृफी का मैं। हमारे उदाहरण मंसूर एवं सरमत बनना चाहिए। हम चूँकि शरीरधारी हैं, साधारण हमारा जन्म है। हम शरीर से परे जाकर आत्मा में, शुद्ध अहंभाव में स्थित नहीं हो पाते। यदि ऐसा कर सकें, तो फिर हम अवतार की भाषा में बोल रहे हैं। दिव्य जन्म वाला दिव्य कर्म के लिए आया अवतार सृष्टि को सारी संवेदना अपने अंदर साकार करके आता है। करुणा का महासागर ही उनके अंदर होता है एवं उसके वशीभूत होकर वे जन्म, वह भी दिव्य जन्म लेते हैं। अतः यदि अवतारीसत्ता “मेरा जन्म-मेरा कर्म” इस तरह से अपनी बात कहता है, तो गलत नहीं करता।

परमपूज्य गुरुदेव कहते थे, “तुम लोग अपने सुख-दुःख से परेशान हो और कहते हो कि आत्मज्ञान मिल जाए, किसी तरह। जिस दिन तुम्हें आत्मज्ञान मिल जाएगा, उस दिन दुनिया के दरद को देखकर तुम्हारी छाती फट जाएगी। दुनिया का दरद सहना सीखो, जीना सीखो, उसमें भागीदारी करना सीखो।” दरद सहने के लिए बड़ी भारी छाती चाहिए, वैसी जैसी कि स्वामी विवेकानंद की थी, परमपूज्य गुरुदेव की थी। सृष्टि के केंद्र में स्थित होकर, परब्रह्म के साकार रूप भगवान् कृष्ण जब अर्जुन को कुछ कहते हैं, तो उसे भलीभाँति समझना चाहिए। आगे चलकर वे विराट् रूप दिखाते हैं तब वह यह जान पाता है कि कृष्ण कौन हैं, दिव्य जन्म लेकर दिव्य कर्म करने आए महावतार हैं। मेरेपन से परे जाना व अवतार की चेतना में स्थित हो जाना बहुत बड़े पुरुषार्थ का कार्य है।

‘दिव्य’ शब्द का अर्थ रामानुजाचार्य जी ने एवं आचार्य शंकर ने किया है, अप्राकृत, ऐश्वर्य से परिपूर्ण। ‘तत्त्वतः’ का अर्थ किया है, ‘स्वरूपतः’ वास्तविक रूप में। भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि मेरा जन्म दिव्य है, कर्म भी दिव्य तथा अलौकिक हैं। हम अपनी साधारण बुद्धि से, उसके मापदंडों से उनके जन्म और कर्मों के कारण का निर्णय नहीं कर सकते। वे अमानव होते हुए भी मानव रूप में क्यों जन्म ग्रहण करते हैं और तीनों लोकों में उनका कोई कर्त्तव्य-कर्म न होते हुए भी वे क्यों कर्म करते हैं, इस बात को उच्चस्तरीय मनःस्थिति में जाकर ही स्वानुभूति द्वारा जाना जा सकता है। प्रारब्ध के वशीभूत न होते हुए भी वे क्यों जन्म ग्रहण करते हैं, कर्म करते हैं, यह रहस्य जान सकने वाला ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर चिरमुक्त हो जाता है। यही वास्तविक ज्ञान या विज्ञान है, गीता का मूल तत्त्वदर्शन है। इस ज्ञान को जान लेने वाला सदा के लिए मुक्त हो जाता है, फिर उसका पुनर्जन्म नहीं होता।

जिस रहस्य को हर मनुष्य को जानना है वह है अज, अव्यय परमात्मा और उनके दिव्य जन्म-कर्म का रहस्य। इस ज्ञान से जो कर्म की धारा बहती है, उसमें स्नान करने वाला सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है। क्योंकि उसके कर्म भी उस सर्वलोक महेश्वर के कर्म हो जाते हैं। अभी हम पिछले श्लोकों में देख चुके हैं कि भगवान् अपने जन्म का हेतु बता रहे हैं, भागवत् धर्म की रक्षा और युग की व्यवस्था का पुनर्गठन। यह दिव्य कर्म का बाह्य पहलू है और यही मानवजाति के भगवन्मुख प्रयासों को समस्त विघ्न-बाधाओं से उबारकर आगे बढ़ाता है। इस दिव्य कर्म का आँतरिक पहलू यह कि वह हमारी चेतना को दिव्य बनाने आता है, ताकि वह ऊर्ध्वमुखी हो सके और ऐसे लाखों-करोड़ों व्यक्तियों की चेतना में नवजीवन लाया जा सके। किसी बाहरी कर्म या बाहरी घटना अवतार के आने का मूल कारण नहीं होती, जैसा कि सामान्यतः समझा जाता है। जिस संकट की अवस्था में भगवान् आते हैं, वह बाहरी नजर से महज घटनाओं और जड़ जगत् के परिवर्तनों से भरा एक नाजुक काल प्रतीत होता है। परंतु यदि इसके वास्तविक स्वरूप को देखें, तो ज्ञात होता है कि यह संकट मानवचेतना में तब आता है, जब उसका रूपांतरण, कोई महान् परिवर्तन होने जा रहा हो। इस परिवर्तन के लिए ही दिव्य शक्ति की, अवतारी चेतना की आवश्यकता होती है।

विगत दो शताब्दियों को देखें, तो बड़ी तेजी से राजनीतिक, औद्योगिक, आर्थिक स्तर पर जनसाधारण की चेतना में परिवर्तन आए। एक प्रकार से इन क्राँतियों ने बीसवीं सदी की अंतिम वैज्ञानिक-कंप्यूटर क्राँति द्वारा इसे चरम स्थिति तक पहुँचा दिया है। यह फेरफार बौद्धिक-लौकिक है, आध्यात्मिक नहीं। जब यह कार्य आध्यात्मिक स्तर पर होता है, तो भगवान् का प्रादुर्भाव होता है एवं उसी को अवतार कहा गया है। दिव्य कर्म करने वाला एवं आज के संकट के मूल में आध्यात्मिक बीज देखते हुए सारे युग का प्रत्यावर्तन करने वाला भागवत् नेता ही आज का प्रज्ञावतार हैं एवं उसी व्याख्या में यह नवाँ श्लोक सारी बात हमें समझा रहा है।

भगवान् इस श्लोक में कहते हैं कि जो भी मनुष्य संसार में इस परमतत्त्व की अभिव्यक्ति और उसकी कार्यप्रणाली को भलीभाँति समझ लेता है, वह एक विशिष्ट दृष्टि से संपन्न हो जाता है। उसे यह भलीभाँति अहसास हो जाता है कि हमारे सभी कर्म उसी की दिव्य क्रीड़ा का एक अंग हैं तथा हमारी समस्त उपलब्धियाँ उसी परमसत्ता रूपी गुह्य शक्ति की लीला का एक हिस्सा हैं। हममें से किसी को भी वैयक्तिक रूप में अहंकार से भरकर अभिमान नहीं करना चाहिए कि यह हमने किया है। यह ‘कर्त्ता’ भाव की अभिव्यक्ति हट जाए, इससे निवृत्ति मिल जाए, तो हमने मुक्ति का पथ प्रशस्त कर लिया, यह माना जाना चाहिए।

ऐसे साधक, जो सर्वत्र उसी ईश्वर की क्रीड़ा-कल्लोल का दर्शन करते हैं, शरीर छोड़ने के बाद (त्यक्त्वा देहं) पुनः जन्म नहीं लेते (पुनर्जन्म नैति)। इसका अर्थ यह हुआ कि वे उस अहंभाव से उबर जाते हैं, जो उन्हें जन्म-जन्माँतरों तक योनियों में पटक-पटककर उत्पीड़ित करना। स्वार्थ की मूर्खताओं में घसीटे जाने से वे बच जाते हैं एवं जीवन-मुक्ति का लाभ ले लेते हैं। इतना ही नहीं भगवान् कहते हैं कि जो मेरे दिव्य जीवन और कर्म के मर्म को जानता है वह निश्चित ही मुझ ही को (मामेति अर्जुन) प्राप्त होता है। शुद्ध अहं व ब्रह्मभाव में जीना साधक की उच्चप्रगति की व्यवस्था का प्रतीक है। यही हर साधक का लक्ष्य भी 222 यह बड़ा कठिन। अहंकार को परिष्कृत कर कर्त्ताभाव से मुक्त होकर, आकर्षणों से विरत होने पर आगे की प्रगति-यात्रा का पथ प्रशस्त होता है। इसके बाद अहंभाव पुनः उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि भगवान् के आश्वासन के अनुसार वह भगवान् को प्राप्त हो जाता है, उनसे ही एकाकार हो जाता है एवं पुनर्जन्म के चक्र में नहीं उलझता।

एक ही श्लोक में मानो गागर में सागर की तरह सारा तत्त्वदर्शन छिपा पड़ा है। हम इस लेख के प्रारंभ से ही एक ही श्लोक की व्याख्या पर टिके हुए हैं, जिसका पूर्वापर संदर्भ है भगवान् के अवतरण का रहस्य और इसके बाद का संदर्भ है वीतराग बनकर भय को नष्ट कर भगवान् को प्राप्त हो जाने की प्रक्रिया को समझकर इस शैली को जीवन का एक अंग बना लेना। इस उत्तर पक्ष की व्याख्या दसवें श्लोक में आई है एवं हमें फिर सीधे कर्म-अकर्म-विकर्म की व्याख्या (लगभग श्लोक क्रमाँक 23) तक ले जाता है। कितना गुह्य व अलौकिक-दिव्य है गीता का ज्ञान, यह इसकी विस्तृत विवेचना के बाद ही संभव हो पाता है और उसके लिए कोरे ज्ञान की, तर्क की नहीं, भगवान् के भाव में जीने की आवश्यकता है। श्रद्धा से अभिपूरित हो अहंभाव को बलि पर चढ़ाने की जरूरत है। श्रद्धावान् को ही सच्चा ज्ञान मिलता है। यह इस अध्याय का अंतिम निष्कर्ष भी तो है।

“जन्म कर्म च में दिव्यम्” की व्याख्या के प्रकरण में श्री अरविंद लिखते हैं, “यह जगत् एक युद्ध की रंगभूमि है। इसके दो पहलुओं पर गीता जोर देती है, एक आँतरिक संघर्ष, दूसरा बाह्य युद्ध। आँतरिक संघर्ष, अपने अंतर्जगत् में विद्यमान् कामना, अज्ञान, मोह, लोभ व अहंकार जैसे घटकों से है। इन्हें मारना ही अंदर की विजय है। पर एक दूसरा युद्ध बहिर्जगत में भी चल रहा है। मानव समूह में धर्म और अधर्म की शक्तियों के बीच सतत संग्राम चलता रहता है। भगवान् का अवतरण अहंकार का आश्रय लेकर लड़ने वाली आसुरी अधर्मप्रधान ताकतों का संहार करने के लिए होता है। इसी के लिए उनका दिव्य जन्म होता है एवं सारे कर्म दिव्यता से भरे होते हैं।”

महाभारत का युद्ध प्रकाराँतर से देवासुर संग्राम का एक रूपक है, जिसके महानायक हैं श्रीकृष्ण। धर्मराज्य की स्थापना के लिए लड़ रहे पाँडव देवपुत्र हैं, मानव रूप में देवताओं की शक्तियों को धारण किए हुए हैं। कौरव आसुरी शक्ति के अवतार हैं। भगवान् प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में असुरों को नष्ट करने, उन्हें चलाने वाली आसुरी शक्ति का दमन करने और धर्म के आदर्शों की स्थापना के लिए पुनः अवतार लेते हैं। उनका सबसे बड़ा उद्देश्य होता है स्वर्ग राज्य को पृथ्वी के निकट तक ले आना, मानव में देवत्व को उभारना। उनके आने का सही लाभ उन्हीं को मिल पाता है, जो भगवान् की इस क्रिया के माध्यम से दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के वास्तविक मर्म को जान लेते हैं और अपनी चेतना में सदैव भगवन्मय होकर जीते हैं। ‘मन्मया मामुपाश्रिताः’ के माध्यम से भगवान् ने ऐसे तत्त्वज्ञानियों को जो तपःपूत हैं, अपरा प्रकृति से उबरकर मुक्त हो जाते हैं, आश्वासन दिया है कि तुम मेरे स्वरूप और स्वभाव को ही प्राप्त होओगे॥ (मद्भावमागताः)। यह सारा प्रकरण जुड़ा नवें श्लोक से है, पर आया दसवें श्लोक में है, जिसकी व्याख्या हम अगले अंक में करेंगे। समापन से पूर्व परमपूज्य गुरुदेव के चिंतन द्वारा पाठक-परिजनों को अवतार की प्रत्यक्ष प्रेरणा से अनुप्राणित करना चाहेंगे।


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