ज्ञान, कर्म, भक्ति का समुच्चय जीवन के समग्र विकास के लिए अनिवार्य है। बहुसंख्य व्यक्ति इस भ्रम में पड़े रहकर एकाँगी मार्ग पकड़ते हैं व स्वयं को जंजाल में उलझा लेते हैं। महाराजा अज के यहाँ यज्ञायोजन था। एक दिन महर्षि वशिष्ठ जब प्रधान पुरोहित का कार्य सँभालने जा रहे थे, तो मार्ग में उन्हें मंकी नामक व्यक्ति मिला। उसने अपना दुःख प्रकट करते हुए कहा, “देव! मैंने श्रमशीलता में कोई कमी नहीं छोड़ी, सदैव सदाचरण किया तथा ज्ञानार्जन हेतु सभी ग्रंथों का स्वाध्याय भी कर डाला, परंतु फिर भी अपने अंदर अपूर्णता ही पाता हूँ। न तो मेरी कोई प्रशंसा करता है, न मुझे कोई स्नेह ही देता है।” मुनीश्वर बोले, ‘तात! तुमने कर्म व ज्ञान की दो धाराओं की तो उपासना कर ली, पर भावपक्ष को तो भूल ही गए। तुम स्नेह बाँटो, बदले में दस गुना पाओगे। सब जीवधारियों में अपनी ही आत्मा समाई मानकर स्वयं को भक्तिप्रवाह में सराबोर कर डालो। अपनी धारा को परमात्मा के अक्षय आनंद रूपी गंगा से मिला दो, तो तुम सम्मान, श्रेय तो पाओगे ही, उस अभाव की पूर्ति भी होगी, जो तुम्हें त्रास दे रही है।” शीतल वचन सुनकर मंकी को दिशा मिली। वह अर्जित ज्ञान-धन-स्नेह बाँटने लगा और उसकी अपूर्णता समाप्त हो गई।