अंतःचक्षु प्रदान करके रहूँगा (Kahani)

March 2001

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एक व्यक्ति एक पहाड़ी अभियान से भटककर किसी अज्ञात घाटी में पहुँच गया। दिन निकलने पर उसे मालूम हुआ कि वह किसी ऐसे स्थान पर पहुँच गया है, जहाँ सभी अंधे रहते हैं। उसने पानी व भोजन माँगा व वहाँ विश्राम के लिए रुक गया। पता चला किसी राजा के अन्यायपूर्ण शासन से त्रस्त होकर वे सब एक साथ वहाँ बस गए थे, पर वहाँ की मिट्टी व जल में किसी खनिज तत्त्व की कमी के कारण उनकी दृष्टि कम होती चली गई व धीरे-धीरे सभी अंधे हो गए। प्रकृति के किसी घटनाक्रम की जानकारी न होने से अंधों की इस चौथी पीढ़ी की यह धारणा बन गई थी कि समस्त संसार उनके गाँव तक ही सीमित है, वह चारों ओर चट्टानों से घिरा व लंबी-चौड़ी दत से ढका है। अजनबी ने अपनी ओर से सारे प्रयास किए, उन्हें दुनिया, आकाश, सूर्योदय, दृष्टि शक्ति की बातें समझाने की चेष्टा की, पर इन आँखों वाले राजा साहब का किसी ने जरा भी आदर न किया। उलटा वह एक निकम्मा और मूर्ख प्राणी ही समझा जाता था। उसे सुधारने के लिए गाँव की एक लड़की से विवाह करके अपने समाज में सम्मिलित करने का निश्चय किया गया, तो अजनबी ने स्वीकृति तो दे दी, पर उसी दिन उसने वहाँ से भाग निकलने का निश्चय किया। अंतिम दिन प्रातःकाल उसने पहाड़ी पर चढ़कर सूर्योदय का निरीक्षण किया, तो उसे नीचे बसी अंधों की दुनिया कालिमायुक्त अज्ञान से भरी जगह प्रतीत हुई। एक संकल्प के साथ वह वहाँ से निकल आया कि इस अज्ञान से जूझने के लिए एक व्यापक मोरचा खड़ा करके इन्हें अंतःचक्षु प्रदान करके रहूँगा।


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