सत्य की अभीप्सा

March 2001

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सत्य की खोज में सर्वाधिक अनिवार्य तत्त्व है ‘साहस’। स्वयं के यथार्थ को जानने का साहस। हम जो हैं, वैसे ही स्वयं को जानना सबसे अधिक जरूरी है। यह काम है तो बहुत कठिन, लेकिन इसके बिना सत्य में कोई गति भी संभव नहीं है। स्वयं के यथार्थ को जानने से ज्यादा बड़ा तप और क्या है? लेकिन सत्य की उपलब्धि के लिए वही मूल्य चुकाना होता है। उससे ही व्यक्ति की सत्य के प्रति अभीप्सा की घोषणा होती है। स्वयं के प्रति सच्चाई ही तो सत्य के प्रति प्यास की प्रगाढ़ता की अभिव्यक्ति है।

असत्य के तट से जो स्वयं को बाँधे हुए हैं, वह अपनी नौका सत्य के सागर में कैसे ले जा सकेगा? असत्य के तट को तो छोड़ना ही होगा। वह तट ही तो सत्य की यात्रा के लिए बाधा है। वह तट ही तो बंधन है। संभव है कि उस तट में सुरक्षा का आभास होता हो। यह सुरक्षा का मिथ्या आभास और उसकी चाहत ही तो असत्य का गढ़ है। सत्य की यात्रा में सुरक्षा का मोह नहीं, वरन् अज्ञात को जानने का अदम्य साहस चाहिए। असुरक्षित होने का जिसमें साहस नहीं है, वह अज्ञात का खोजी भी नहीं हो सकता।

तनिक सोचें तो सही, क्या इस झूठी सुरक्षा की चाहत ने हमारी सत्ता के सत्य को आवृत नहीं कर रखा है। क्या हमारी सारी वंचनाएँ सुरक्षा की ही आयोजनाएँ नहीं हैं? यह कैसी उलटबाँसी है कि आज लोभी त्यागी बना है। शोषक दान करता है। हिंसक ने अहिंसक के वस्त्र पहन रखे हैं और घृणा से भरे चित्त प्रेम की भाषा बोल रहे हैं। यह आत्मवंचना बहुत सुगम है। नाटकों में अभिनय कब कठिन रहे हैं। अभिनय के बाजार में सुँदर मुखौटे सदा से ही सस्ते दामों में मिलते रहे हैं। लेकिन याद रहे, जो सौदा ऊपर से सस्ता है, अंततः वही सबसे महँगा सिद्ध होता है, क्योंकि जो व्यक्ति मुखौटों में सत्य को छिपाता है, वह स्वयं से और सत्य से निरंतर दूर होता चला जाता है।

सत्य और उसके बीच एक अलंघ्य खाई बन जाती है। फिर तो उसकी आत्मा स्वयं के अनावरण के भय से सदा ही त्रस्त रहने लगती है। वह फिर स्वयं को छिपाता ही चला जाता है। वस्त्रों के ऊपर वस्त्र, मुखौटों के ऊपर मुखौटे। असत्य अकेला नहीं आता है। उसकी सुरक्षा के लिए उसकी फौजें भी आती हैं। असत्य और भय का फिर ऐसा जाल बन जाता है कि उसके ऊपर आँखें उठाना भी असंभव हो जाता है। व्यक्ति जब स्वयं के ही मुखौटों के उठ जाने के भय से पीड़ित हो, तो वह सत्य के पात्र को उघाड़ने की हिम्मत और सामर्थ्य कहाँ से जुटा सकता है?

यह शक्ति तो स्वयं को उघाड़ने के साहस से ही अर्जित होती है। सत्य का साक्षात्कार करने के लिए तो भयभीत चित्त शत्रु है। उस दिशा में तो बस अभय ही मित्र है। चित्त की अभयता उसे ही प्राप्त होती है, जो स्वयं के यथार्थ को स्वयं ही सब भाँति उघाड़कर भय से मुक्त हो जाता है। स्वयं को ढकने से भय बढ़ता जाता है और आत्मा शक्तिहीन होती जाती है, किंतु स्वयं को उघाड़ते ही ज्ञान के प्रकाश में सारे भय अपने आप ही भाग जाते हैं और शक्ति के अभिनव और अमित स्रोतों की उपलब्धि होती है। यही साहस है, स्वयं को उघाड़ने और जानने की क्षमता ही साहस है।

ब्रह्म विद्या पाने की दिशा में यही पहला और अनिवार्य चरण है। सत्यकाम ने यही साहस किया था। ऋषि हरिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुँचकर उसने ऋषि के चरणों में सिर रखकर कहा, आचार्य मैं सत्य की खोज में आया हूँ। ऋषि ने उससे पूछा, वत्स तेरा गोत्र क्या है? तेरे पिता कौन हैं? उनका नाम क्या है?

उस किशोरवय सत्यकाम की वाणी से निःसंकोच सत्य प्रस्फुटित हो उठा। उसने बिना किसी हिचक के कहा, “भगवन्! मुझे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है। न ही मैं अपने पिता को जानता हूँ। हाँ, मेरी माँ का नाम जाबाला है। इसलिए मैं सत्यकाम जाबाल हूँ।”

हरिद्रुमत इस सरल सत्य से अभिभूत हो उठे। उन्होंने उस किशोर को हृदय से लगा लिया और बोले, “मेरे प्रिय! तू निश्चय ही ब्रह्मविद्या का अधिकारी है, क्योंकि जिसमें स्वयं के प्रति सच्चा होने का साहस है, सत्य स्वयं ही उसे खोजता हुआ उसके द्वार आ जाता है।”


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