जन्म कर्म च में दिव्यम्

March 2001

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(गीता के चतुर्थ अध्याय के ज्ञानकर्मसंन्यासयोग की व्याख्या की तीसरी कड़ी)

एक बड़े महत्त्वपूर्ण प्रकरण ‘अवतारवाद’ पर प्रारंभिक चर्चा विगत अंक में की गई। भगवान् कहते हैं, जो अपनी वासनाओं के कारण जन्म ले वह नर एवं जो अपनी अंतर्निहित माया द्वारा उस पर आरुढ़ होकर स्वयं को प्रकट करे, वह अवतार-नारायण। वस्तुतः लोकशिक्षण के लिए ही महाकरुणा का भाव लेकर अवतार आते हैं। इसी संदर्भ में हमने लिखा था कि गुरुदेव स्वयं कहते थे, “मुझे धकेला गया है, सृष्टि की संचालक सत्ताओं द्वारा धरती पर विशेष कार्य करने के लिए।” धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होने पर भगवान् स्वयं को प्रकट करते हैं। उनके हर युग में प्रकट होने का एक ही लक्ष्य होता है, साधु पुरुषों और आठवें इन दो श्लोकों की व्याख्या के माध्यम से समझाया गया था। आज की जिस तरह की परिस्थितियाँ हैं, ऐसे में अवतार के प्रकटीकरण की कितनी बड़ी अनिवार्यता है, यह इस व्याख्या से समझा जा सकता है। श्री अरविंद ने अवतार के प्रकटीकरण की व्याख्या अपने ही ढंग से की है, जो बड़ी निराली है। वे लिखते हैं कि भगवत्सत्ता के दिव्य प्रकटीकरण के दो पहलू हैं, एक है अवतरण-मानव आकृति और प्रकृति में भगवान् का प्रकट होना और दूसरा आरोहण-भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्म ग्रहण, भागवत् चेतना में उत्थान। योगीराज इस दूसरे पहलू को अधिक महत्त्वपूर्ण बताते हुए इसे जीव का नवजन्म कहते हैं। अवतार को उनने मानव जाति का भागवत् नेता बताया है, तो पूज्यवर गुरुदेव ने संत, सुधारक और शहीद के रूप में अंशावतार के प्रकटीकरण की बात कही है। अब उसके आगे की व्याख्या इस अंक में।

परमपूज्य गुरुदेव अगस्त 1979 अखण्ड ज्योति के प्रज्ञावतार विशेषाँक में लिखते हैं, “आदर्शवादी दुस्साहस ही अवतार है। वह एक भावनात्मक प्रवाह के रूप में उत्पन्न होता है और असंख्यों को अनुप्राणित करता है।” कितनी सटीक, आज के संदर्भ में युगानुकूल यह व्याख्या है। वे आगे लिखते हैं, “प्रज्ञावतार बुद्धावतार का उत्तरार्द्ध है। बुद्धिप्रधान युग की समस्याएँ भी चिंतनप्रधान होती हैं। मान्यताएँ, विचारणाएँ, इच्छाएँ ही प्रेरणा-केंद्र होती हैं और उन्हीं के प्रवाह में सारा समाज बहता है। ऐसे समय में अवतार का स्वरूप भी तदनुरूप ही हो सकता है। लोकमानस को अवाँछनीयता, अनैतिकता एवं मूढ़ मान्यताओं से विरत करने वाली विचारक्राँति ही अपने समय की समस्याओं का समाधान कर सकती है।” (पृष्ठ 23) इस व्याख्या से समझा जा सकता है कि अवतार स्वरूप परिस्थितियों के अनुरूप भिन्न-भिन्न होते हैं व उन्हें समझने के लिए दूरदर्शी विवेकशीलता-प्रज्ञा का जागरण अनिवार्य है। गायत्री साधना इसीलिए तो इस समय की विशेष साधना बताई गई है।

हम ‘संभवामि युगे युगे’ भगवान् के इस कथन की व्याख्या विगत अंक से करते आ रहे हैं। मैं हर युग में आता हूँ, हर समय में आता हूँ, प्रकट होता हूँ और मेरा उद्देश्य बड़ा स्पष्ट होता है, धर्म की स्थापना करना, उसके लिए उपयुक्त वातावरण बनाना। इस कथन से एक बात स्पष्ट होती है कि अवतार हमेशा आते रहते हैं। अवतार का प्रकटीकरण एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। “अवतार या इनकारनेशन इज नाट दि एंड।” अवतार कभी अंतिम प्रक्रिया के रूप में नहीं आता। रामकृष्ण मिशन के स्वामी अखिलानंदजी ने जेम्स हैविट की लिखी एक किताब ‘क्राइस्ट द सेवियर ऑफ ह्यूमन काइंड’ की समीक्षा करते हुए लिखा है कि इसका शीर्षक बदला जाना चाहिए। ‘क्राइस्ट द सेवियर’ नहीं ‘क्राइस्ट ए सेवियर’ होना चाहिए। वे लिखते हैं कि ‘द सेवियर’ का मतलब होता है एकमात्र ईसा ही उद्धारक हैं, अवतार हैं, जबकि ‘संभवामि युगे युगे’ से आशय यह है कि जब-जब भी जरूरत होगी, वे आएँगे। कभी बुद्ध, कभी राम, कभी कृष्ण, कभी पैगंबर व कभी ईसा रूप में। वे लिखते हैं, “अवतार को अंतिम मान लेना गलत चिंतन है। भगवान् जब भी आता है, हर युग में निरंतर होती रहने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया को साकार करने के लिए आता है। चूँकि पश्चिम में सभ्यता का विकास, सोचने का विकास उस सीमा तक नहीं हुआ, जहाँ तक हमारे औपनिषदकालीन ऋषियों ने सोचा, इसीलिए उनने कह दिया कि क्राइस्ट इज द लिमिट’ यही अंतिम हैं। इसीलिए उनकी लेखनी एंटी क्राइस्ट की बात कहती है, जबकि हम नवयुग के आगमन की बात करते हैं।”

परमपूज्य गुरुदेव लिखते हैं, “काल के परिवर्तन का प्रयोजन पूरा करने वाली शक्ति का नाम महाकाल है। युग परिवर्तन, युग प्रवर्तन इसी सत्ता द्वारा होता है। परिवर्तन अर्थात् बदलना एवं प्रवर्तन अर्थात् उसे आगे बढ़ाना। यह हमेशा रुद्र द्वारा रौद्र भाव से संपन्न होता है।” श्रीमद्भागवत में एक वाक्य आता है, “अवताराः ह्यै अनंतश्च” अर्थात् अवतार एक नहीं अनेकानेक होते हैं। यह ऋषि का वाक्य है कि अवतार किसी के अंदर, किसी की भी चेतना में अवतरित हो, उनसे महत्त्वपूर्ण कार्य करा सकता है। चाहे वे गुरु गोविंद सिंह जी हों, बंदा वैरागी, भगतसिंह अथवा सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गाँधी, श्री अरविंद, स्वामी विवेकानंद हों।

ठाकुर श्री रामकृष्ण कहते हैं, “पहले दस अवतार आने की बात मिलती है, फिर चौबीस अवतारों की और फिर असंख्यों की। जैसी-जैसी जमाने की समस्या होती है, भगवान् अवतार लेते हैं।” पश्चिम में हेगल, ह्यूम सभी ने सोचा, तरह-तरह की बातें भी कहीं हैं, पर उनकी बातों में, दार्शनिकों की व्याख्याओं में एवं ईशदूतों की बातों में अंतर है। दार्शनिक ‘हाइपोथिसीस’ करता है, कल्पना की उड़ान में चलता है और ऋषि वक्तव्य देते हैं, भविष्य के गर्भ में झाँकी करके आते हैं और बताते हैं। गीता एक ‘हाइपोथिसीस’ नहीं, बल्कि एक वक्तव्य है, स्टेटमेंट है, अनुभव है, अधिकार से कहा गया कथन है।

भगवान् अपने सातवें-आठवें श्लोक में की गई घोषणा की पुष्टि अगले श्लोक में करते हैं-

जन्म कर्म च में दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥

“इस तरह हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं, इस तथ्य को जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर त्याग के बाद पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, वस्तुतः मुझे ही प्राप्त करता है (मुझ तक ही पहुँचता है)।”

यह श्लोक बड़ा मार्मिक है। विशिष्ट गुह्य अर्थ लिए है। इसकी व्याख्या अवतारवाद की जब तक की गई चर्चाओं के बाद आरंभ होती है एवं पुनर्जन्म के सिद्धाँत व ‘तत्त्व’ से परमसत्ता को जान लेने, उन तक पहुँचने का मार्ग क्या हो, इसके प्रतिपादन तक चलती है।

भगवान् का शरीर धारण करना भी अलौकिक कार्य है एवं उनके कर्म भी दिव्य हैं। भगवान् इसे एक रहस्यपूर्ण गुत्थी बता रहे हैं। एक परिभाषा के अनुसार भगवान् ‘अज’ अर्थात् जन्मरहित हैं, उनका जन्म नहीं हो सकता। तथापि वे अपनी मायाशक्ति का अवलंबन लेकर देहधारी होते हैं, अवतरित होते हैं। वे प्राणिमात्र के दुःख से विगलित होकर दुःखों के सागर से उन्हें उबारने के लिए अवतरित होते हैं जब भी ऐसे विदेही आत्मा देहधारी हों, तब कहा जाता है कि भगवान् जन्म ग्रहण करते हैं। समस्त जीवों का जन्म कर्मफल के अनुसार होता है। हम सब अपने-अपने प्रारब्ध के वशीभूत हो जन्मे हैं, किंतु भगवान् अपनी इच्छा से तथा लोककल्याण के लिए जन्म ग्रहण करते हैं। शुभ या अशुभ किसी भी प्रकार का प्रारब्ध उनमें नहीं है। इस तरह भगवान् का जन्म प्रारब्धवश नहीं हो सकता है, वह तो दिव्य ही हो सकता है।

यहाँ थोड़ा भगवान् श्रीकृष्ण, यदुवंशी श्रीकृष्ण, सारथी श्रीकृष्ण की इस बात पर गौर करें, जो उनने कही है कि मेरा जन्म व मेरा कर्म। यह ‘मैं’ अहंजनित नहीं है। यह जो वाक्य है, ऋषि का वाक्य है, एक स्टेटमेंट है एवं एक अनुभव केन नाते प्रमाण रूप में कहा गया है। यह ईश्वर का, परब्रह्म का मैं है। दक्षिण भारत में स्वामी विवेकानंद परिव्रज्या कर रहे थे। पंडितों ने किसी शास्त्रचर्चा के दौरान कहा कि आद्य शंकराचार्य ऐसा कहा करते थे, तो स्वामी जी तुरंत बोल उठे कि उनने क्या कहा, इसे एक तरफ रखिए। “मैं विवेकानंद यह कह रहा हूँ, यह मेरी बात ध्यान से सुनो।” जब इस वार्त्तालाप पर श्री अरविंद से उनके शिष्यों ने टिप्पणी जानना चाही, तो उनने विवेकानंद की प्रशंसा की। उनने कहा, इसमें विवेकानंद का अहंकार नहीं है। वे अहंभाव से परे जाकर परब्रह्म की सत्ता में स्थित होकर बोल रहे थे। इसलिए वे जो भी बोल रहे थे, सत्य ही बोल रहे थे। ऐसे में यदि वे आद्य शंकराचार्य को गलत भी सिद्ध कर दें, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।


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