गुरु के कोप ने दिखाई आत्मज्ञान की दिशा

March 2001

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वह जेठ की दुपहरी थी। तपिश और धूल के बवंडर के बीच किसी ने उसका द्वार खटखटाया। द्वार खोलने पर उसने देखा कि धूल से सना लिपटा एक साधु उससे कह रहा है, बेटा, मुझे प्यास लगी है, मुझे थोड़ा पानी पिला दें। साधु की बात सुनकर उसने अपनी विवशता बताते हुए कहा, “महाराज! मैं तो एक मुसलमान हूँ, मेरा नाम अफजल है। आप हिंदू साधु हैं। मेरे घर का पानी आप कैसे पी सकेंगे?”

“बच्चे! त्री सत्यवादिता से मैं प्रसन्न हुआ। पर मैं भेद-भाव को नहीं मानता। तू मुझे पानी पिला।” साधु ने उसकी ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखते हुए कहा।

अफजल तुरंत कोठरी में जाकर जल लाया, साधु ने जल पीकर अपनी प्यास बुझाई और उसकी भक्ति एवं सत्यवादिता से प्रसन्न होकर उससे कहा, “बेटा! तू ने पूर्व जन्म में उत्तम कर्म किए हैं, जिसके फलस्वरूप ही मुझसे तेरी मुलाकात हुई है। मैं तुझे योग की दुर्लभ सिद्धियाँ देता हूँ, पर तू इनका उपयोग केवल परमार्थ कार्यों के लिए करना। अपने स्वार्थ के लिए इनका उपयोग कभी भूलकर भी न करना।”

मंत्रमुग्ध बने उस किशोर अफजल को सिद्धियों की प्रक्रिया समझाकर वह साधु वहाँ से अदृश्य हो गए। अफजल ने उस योग प्रक्रिया का बीस वर्षों तक निष्ठापूर्वक अभ्यास किया। उसके चमत्कारिक कार्यों ने दूर-दूर तक के लोगों का ध्यान आकर्षित किया। उसकी सहायता के लिए एक अशरीरी आत्मा भी हर समय उसके साथ रहती थी, जिसे वह ‘हजरत’ के नाम से पुकारता था। यह अदृश्य आत्मा उसकी सभी इच्छाओं को पूरा कर देती थी।

समय बदला। अफजल के हृदय में अपनी सिद्धियों का अभिमान उत्पन्न हो गया। अभिमान के भयानक अँधेरे में फंसकर वह विपरीत मार्ग पर चलने लगा। अपने गुरु की अवज्ञा करके उसने अपनी सिद्धियों का दुरुपयोग करना प्रारंभ कर दिया। जिन-जिन पदार्थों को उठाकर वह पुनः रख देता, वे तुरंत अदृश्य हो जाते और उनका पता तक नहीं लगता। वह समय-समय पर वाहक के रूप में कलकत्ता के बड़े-बड़े जौहरियों की दुकानों पर जाता। वहाँ वह जिस वस्तु को स्पर्श कर लेता, वह वस्तु उसके दुकान से चले जाने के बाद अदृश्य हो जाती। ऐसे कौतुकों के कारण चारों ओर हाहाकार मच गया। उसके कारनामों से पीड़ित होकर जनता ने पुकार की, उसे पकड़ने की गुहार की। पर उसे बंदी बनाने में पुलिस असफल रही, क्योंकि उसके केवल यह कहने से कि ‘हजरत यह उठा लो’ समस्त प्रमाण गायब हो जाते, नष्ट हो जाते।

एक धनी व्यक्ति का उसके साथ परिचय हुआ और उसने उसे अपने यहाँ बुलवाया। उस समय अन्य लगभग बीस पड़ोसी भी वहाँ उपस्थित थे। उनके साथ महान् योगी लाहिड़ी महाशय के एक प्रमुख शिष्य भी वहाँ उपस्थित थे। अुजल ने उनकी ओर देखकर कहा, तेरे हाथ अत्यंत सुदृढ़ हैं। नीचे जाकर एक चिकना पत्थर लेकर उस पर अपना नाम लिखकर कहीं दूर फेंक दे।

उन्होंने वैसा ही किया। तत्पश्चात् अफजल ने उन्हें कहा, एक घड़ा लेकर सामने से गंगाजल भर ला। अफजल के कथनानुसार जब वे साधु गंगाजल से घड़ा भरकर ला रहे थे, तभी अफजल ने आवाज दी, “हजरत पत्थर को घड़े में डाल दो।” यह कहते ही पत्थर घड़े में आ गया। उसने देखा कि उनका नाम लिखा हुआ यह वही पत्थर है। अफजल के इस चमत्कार ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।

उस समय एक बाबूजी भी इस आश्चर्य को देख रहे थे। उनकी घड़ी भी अफजल के स्पर्श करने के बाद अदृश्य हो गई थी। जब बाबूजी ने उससे बहुत निवेदन किया कि मेरी घड़ी बहुत कीमती है, मुझे लौटा दो, तब अफजल ने कहा, “तुम्हारी तिजोरी में पाँच सौ रुपये हैं, पहले तुम वे रुपये मुझे दो।” घबराया हुआ वह बेचारा अपने घर जाकर बताई गई रकम ले आया। तत्पश्चात् अफजल ने कहा, “तुम्हारे घर के पास जो पुल है, वहाँ जाकर हजरत को पुकारो कि मेरी घड़ी लौटाए।” उस व्यक्ति ने वैसा ही किया, तब घड़ी हवा में से उतरती हुई उसके दाहिने हाथ में आ गई।

इस घटना के पश्चात् अफजल ने उन सबको कहा कि आप लोग जो पेय पदार्थ पीना चाहें, बताएँ। हजरत वही पेय ला देंगे और सचमुच ही थोड़ी देर बाद प्रत्येक की अपनी इच्छानुसार दूध, विभिन्न फलों के रस आदि उन लोगों के पास उपस्थित हो गए।

इसके बाद भोजन की बारी आई। उनमें से कई लोगों का प्रस्ताव था, भोजन बहुत ही बढ़िया होना चाहिए और प्रत्येक खाद्यपदार्थ सोने की थालियों एवं सोने की प्लेटों व कटोरियों में परोसा जाना चाहिए। इसी के साथ प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी-अपनी पसंद के खाद्य पदार्थ मँगवाने की इच्छा व्यक्त की।

अफजल ने अदृश्य हजरत को संबोधित किया और वहाँ अत्यंत कोलाहल हुआ और स्वादिष्ट सब्जी, पूड़ियाँ एवं अनेक प्रकार के फल तथा मेवों से भरी स्वर्ण की जगमगाती थालियाँ अतिथियों के समक्ष आ उतरीं। प्रत्येक पदार्थ असाधारण रूप से स्वादिष्ट था। घंटेभर से भी अधिक समय तक सबका भोजन चलता रहा और जब यह भोजनकार्य समाप्त हो गया तथा लोग जाने लगे, तब एक ध्वनि हुई। क्षणभर में वहाँ खाद्य सामग्री एवं सोने के बरतनों का नामों-निशान तक न रहा।

इस तरह अफजल अपने चमत्कारों से सबको मंत्र-मुग्ध कर देता था। उसे आत्मज्ञान तो न था, परंतु कतिपय यौगिक प्रक्रियाओं पर उसका प्रभुत्व था। जिससे सूक्ष्म लोक में प्रविष्ट हो सकने से उसकी प्रत्येक इच्छा तुरंत पूर्ण हो जाती थी। वह हजरत के माध्यम से किसी भी पदार्थ के अणुओं को खींच सकता था।

परंतु उस चमत्कारी अफजल के जीवन में एक दिन ईश्वरीय न्याय का दिन भी आ गया। उसे राह चलते एक लँगड़ा वृद्ध मिला। उस समय उसके हाथों में स्वर्ण का एक गोला था। अफजल ने ज्यों ही उस स्वर्ण के गोले का स्पर्श किया, वह गोला गायब हो गया। इस पर उस वृद्ध ने उसे पुकारा और कहा, “क्या तू मुझे नहीं जानता? तनिक देख मेरी ओर और पहचान मुझे।”

अफजल अवाक् रह गया, क्योंकि यह तो वही महात्मा थे, जिनने उसे बहुत समय पहले योग-दीक्षा दी थी। अफजल के द्वारा पहचानते ही वह वृद्ध व्यक्ति अपने मूल रूप में आ गया। वह उसे फटकारते हुए कहने लगा, “मैं देख रहा हूँ कि तूने अपनी शक्तियों का दुःखी मनुष्यों की सहायता के लिए उपयोग नहीं किया। बल्कि तू लोगों को लूटने में अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है। मैं अपनी समस्त सूक्ष्म शक्तियाँ अब तुझसे वापस ले रहा हूँ। अब हजरत भी तुझसे अलग हो गया है।”

यह सुनकर अफजल उस योगी के चरणों में गिर पड़ा और बोला, “हे मेरे गुरुदेव! आपने मेरा भ्रम दूर कर दिया। मैं आपका अत्यंत उपकार मानता हूँ। मैं अपनी समस्त अभिलाषाओं को त्याग करने का वचन देता हूँ और अपने दुष्ट कृत्यों का प्रायश्चित करने के लिए मैं पहाड़ों की कंदराओं में चला जाऊँगा।”

अफजल के सच्चे पश्चात्ताप से द्रवित होकर योगी ने कहा, “तेरे द्वारा आज्ञापालन एवं प्रायश्चित करने की प्रतिबद्धता से प्रसन्न होकर मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तेरी अन्य सिद्धियाँ तो लुप्त हो गई हैं, परंतु अपने भोजन एवं वस्त्रों की आवश्यकता के लिए तू हजरत को आज्ञा प्रदान कर सकेगा और तेरी आज्ञा पूर्ण होगी। तू आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए हिमालय की कंदराओं में चला जा, भगवान् तुझे अवश्य सफलता प्रदान करेंगे।”

इसी के साथ वह योगी अदृश्य हो गया। अफजल के पाँव भी अपनी नई यात्रा की ओर बढ़ चले। उस अब ज्ञात हो चुका था कि सच्ची सिद्धि तो बस आत्मज्ञान ही है। जिसका दुरुपयोग कभी भी संभव नहीं है। वह यह भी अनुभव कर रहा था कि गुरु के कोप में भी कृपा ही है।


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