विभूतिसंपन्न हिमालय

March 2001

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सिद्धि सामान्यतः किसी भी मनचाहे मनोरथ को पूरा करने की क्षमता को व्यक्त करती है, किंतु आध्यात्मिक एवं परामनोवैज्ञानिक क्षेत्र में इसका अर्थ और व्यापक एवं गूढ़ हो जाता है। यहाँ यह असाधारण एवं अद्भुत कार्यों को अंजाम देने की क्षमता की पर्याय है। जनसाधारण के अनुभव इनके सामने बौने सिद्ध होते हैं और बुद्धिजीवियों के तर्क-वितर्क भी असहाय महसूस करते हैं। उदाहरण के लिए, बिना ज्योतिष या अन्य सहारा लिए किसी व्यक्ति का भविष्य बता देना, बिना किसी साधन के मनचाही वस्तु उपस्थित कर देना, बिना औषधि के असाधारण रोग से मुक्त कर देना आदि सामान्यजन के लिए असंभव हैं और इन्हें सिद्धि की श्रेणी में रखा जाता है और इन्हें संपन्न करने वाला व्यक्ति सिद्धपुरुष कहलाता है।

पूर्वकाल में हमारे ऋषि विशिष्ट सिद्धिसंपन्न होते थे। किंतु कालक्रम के साथ इनका सर्वथा अभाव-सा होता गया। वर्तमान युग में भी ऐसे क्षमतायुक्त सिद्धपुरुष हुए हैं, जिन्होंने समय-समय पर अलौकिक क्षमताओं के अस्तित्व को प्रमाणित कर आधुनिक विज्ञान को सोचने व करने के लिए नूतन आधार दिया है और जगत् में इस संदर्भ में व्याप्त अनास्था के बादलों को भी छाँटा है। हिमालय के दुर्गम क्षेत्र में आज भी ऐसे दिव्य आश्रम एवं तपस्थली हैं, जहाँ ऐसे सिद्धपुरुष तपस्या में लीन हैं व इनके लिए सिद्धियाँ तो मानो बायें हाथ का खेल हैं।

पुराणों में वर्णित हिमालय अवस्थित कालापग्राम ऐसा ही एक दिव्य आश्रम है, जहाँ हजारों सिद्ध-योगी सूक्ष्मशरीर में विचरण करते हैं और साधना में लीन हैं। यह आश्रम मानसरोवर और कैलाश से भी आगे स्थित है, जिसे स्थूल दृष्टि से देखा जाना संभव नहीं है। मात्र दिव्यदृष्टिसंपन्न कृपापात्र व्यक्ति ही इसका दर्शन कर सकते हैं। मीलों लंबा यह दिव्य क्षेत्र स्वयं में अद्वितीय है। यह ऋतु काल एवं वायुमंडल जैसे भौतिक कारकों से सर्वथा मुक्त है। यहाँ गरमी सरदी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कालप्रवाह के साथ विश्व में सृष्टि निर्माण एवं प्रलय कितनी बार हुआ, किंतु यह आश्रम अविचल रूप से स्थित है व इसके निवासी कालजयी हैं।

अनुभवी जनों के अनुसार वैदिक काल के वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, कणाद, पुलस्त्य ऋषि आज भी इस स्थान पर सशरीर विचरण करते हुए देखे जा सकते हैं। इस सिद्ध भू-भाग में महायोगी गोरखनाथ, जगद्गुरु शंकराचार्य आदि योगीजन भी विचरण करते हुए स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसके अतिरिक्त कई अज्ञातनामा योगी भी यहाँ साधनारत हैं। कुछ योगी तो सैकड़ों वर्षों से यहाँ ध्यानस्थ हैं। केवल योगी, साधु और संन्यासी ही नहीं, अपितु संन्यासिनियों और योगिनियाँ भी इस कालापग्राम में विचरण करती हुई दिखाई देती हैं। यहाँ पर किसी प्रकार का छल, कपट, द्वेष, व्यभिचार आदि नहीं है, बल्कि साधना के क्षेत्र में उन्नत, प्रकृति के अज्ञात रहस्यों की खोज में सभी अपने आप में निमग्न हैं।

अनुभवी साधकों के अनुसार यहीं पर सिद्ध योग झील अपने आप में दिव्य, मनोहर और अद्वितीय है। मीलों लंबी प्रकृति निर्मित इस झील का पानी निरंतर बहता हुआ निर्मल, स्वच्छ और स्फटिक के समान है। शीतलता और पवित्रता की दृष्टि से यह जल अद्वितीय है। इस जल को स्पर्श करने से ही सारा शरीर दिव्य, पवित्र और अलौकिक हो जाता है। इस जल की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इसमें स्नान करने से वृद्धता और रोग स्वतः समाप्त हो जाते हैं। सिद्ध योग झील के किनारे-किनारे स्फटिक से निर्मित नावें पड़ी हैं, जिन्हें खोलकर कोई भी योगी या साधक झील में विचरण कर सकता है। सारा प्रदेश सुगंधित पुष्पों से आच्छादित है। सारी धरती मखमली हरी दूब और द्रुमों से भरी है। असंख्य प्रकार के पुष्प खिले रहते हैं। जो हमेशा स्वस्थ, तरोताजा और सुगंधित बने रहते हैं। इस दिव्य क्षेत्र में यहाँ के कल्पवृक्षों के नीचे बैठकर साधक जो भी इच्छा करता है, वह उसी समय पूर्ण हो जाती है।

देश के कई उत्कृष्ट संन्यासी-योगी सिद्धाश्रम जा चुके हैं। स्वामी अखिलेश्वरानंद जी ऐसे ही एक सिद्ध संत थे, जिन्हें इस दिव्यभूमि का अनुभव रहा है। सिद्धियाँ उनके लिए महज खेल के समान थीं। ‘हिमालय के महायोगियों की गुप्त सिद्धियाँ’ नामक पुस्तक में इनके योग-चमत्कारों व सिद्धियों का विस्तार से वर्णन है। इनमें से बारह उल्लेखनीय सिद्धियाँ इस प्रकार से हैं-(1) परकाया प्रवेश सिद्धि, (2) आकाशगमन सिद्धि, (3) जलगमन प्रक्रिया, (4) हादि विद्या, जिसके माध्यम से बिना आहार ग्रहण किए वर्षों जीवित रहा जा सकता है। (5) कादि विद्या, इसके माध्यम से साधक या योगी कैसी भी परिस्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है, उस पर गरमी-सरदी, बरसात, आग, हिमपात आदि का कोई प्रभाव नहीं होता। (6) काल सिद्धि, जिसके माध्यम से हजारों वर्ष पूर्व के क्षण को या घटना को देख सकता है, साथ ही आने वाले हजार वर्षों के कालखंड को जाना जा सकता है कि उसमें कहाँ-क्या घटित होने वाला है और वह किस प्रकार घटित होगा। (7) संजीवनी विद्या, जो शुक्राचार्य या कुछ अन्य ऋषियों को ही ज्ञात थी, इसके माध्यम से मृत व्यक्ति को भी जीवनदान दिया जा सकता है। (8) इच्छामृत्यु, इसके माध्यम से काल पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त होता है और साधक चाहे तो सैकड़ों-हजारों वर्षों तक जीवित रह सकता है। (9) कायाकल्प सिद्धि, जिसके माध्यम से व्यक्ति शरीर में पूर्ण परिवर्तन लाया जा सकता है, ऐसा परिवर्तन कि वृद्ध एवं रोगी व्यक्ति भी सुँदर, युवा, रोगरहित व स्वस्थ रूप ले सकता है। (10) लोकगमन सिद्धि, इसके माध्यम से पृथ्वी लोक में ही नहीं, अपितु अन्य लोकों में उसी प्रकार विचरण किया जा सकता है, जैसे कि हम वाहन द्वारा एक शहर से दूसरे शहर में जाते हैं। इसके माध्यम से व्यक्ति भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, महः लोक, जनः लोक, तपः लोक, सत्य लोक, चंद्र लोक, सूर्य लोक, पाताल और वायु लोक में भी जाकर वहाँ के निवासियों से मिल सकता है, वहाँ की श्रेष्ठ विद्याएँ प्राप्त कर सकता है। (11) शून्य साधना, इसमें प्रकृति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। खाद्य सामग्री, वस्तु, बहुमूल्य हीरे, जवाहरात आदि शून्य से प्राप्त कर मनोवाँछित सफलता एवं संपन्नता पाई जा सकती है। (12) सूर्य विज्ञान, इसके माध्यम से एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ में रूपांतरित किया जा सकता है।

सूर्य सिद्धाँत महर्षि पतंजलि का महत्त्वपूर्ण सिद्धाँत है। जिसे उन्होंने सबसे पहले स्पष्ट किया था। इसके बाद उनके शिष्य सुधन्वा, प्रियुकु देदेत्त्व आदि ने उसे आगे बढ़ाया। वर्तमान समय में भी निमिष, चैतन्य, लाहिड़ी, वरोचन, स्वामी विशुद्धानंद आदि इसमें निष्णात हुए हैं।

पतंजलि ने अपने सूत्रों में स्पष्ट किया है कि सूर्य की किरणों में विभिन्न रंगों से युक्त रश्मियाँ होती हैं, जिसका समन्वित रूप श्वेत है, जिसे विशुद्धात्मक तत्त्व कहा जाता है। इस श्वेत रश्मि को 24 कोणीय स्फटिक के माध्यम से ही पकड़ा जा सकता है। इस स्फटिक के प्रत्येक कोण एक-दूसरे से वर्तुलावस्था में होते हैं। जब सूर्य किरण इस स्फटिक लैंस पर पड़ती है, तो घनीभूत होती हुई एक वर्तुल से दूसरे वर्तुल में प्रवाहमान होती है और जब 24वें 222 में प्रवेश करती है, तो सर्वथा शुभ्र-स्वेत रंग की होकर रह जाती है और यह रश्मि निकलकर जिस पदार्थ पर पड़ती है, तो मनोवाँछित पदार्थ परिवर्तन हो जाता है। पत्थर को हीरे में बदला जा सकता है। सूर्य सिद्धाँत के ज्ञाता को यह ज्ञान होता है कि प्रकृति का कौन-सा पदार्थ कितने वर्तुलों से युक्त है। स्वामी अखिलेश्वरानंद जी इस सिद्धाँत का प्रयोग करते हुए अपने शिष्यों को दो मिनट में पत्थर से हीरा बनाकर दिखा देते थे।

अपनी पुस्तक ‘ए सर्च इन सिक्रेट इंडिया’ में पाश्चात्य खोजी मनीषी पाल ब्रंटन ने महायोगी स्वामी विशुद्धानंद जी का उल्लेख किया है, जो सूर्य सिद्धाँत के मर्मज्ञ थे। उनके पास सूर्य सिद्धाँत से हजारों प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त थीं। पतंजलि के ‘जायंतर परिणाम’ अर्थात् एक वस्तु को दूसरे में परिवर्तित कर देने की व्याख्या करते हुए उन्होंने इसका वैज्ञानिक विवेचन प्रस्तुत किया है।

उनके अनुसार विश्व में हर जगह सत्ता मात्र रूप या शाश्वत रूप में सभी चीजें विद्यमान् हैं, पर सब व्यक्त नहीं हैं। जिस पदार्थ की मात्रा अधिक विकसित व अधिक प्रस्फुटित होती है वही व्यक्त होता है, वही दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए, लोहे का टुकड़ा मात्र लोहे का टुकड़ा नहीं होता, उसमें सब पदार्थ अव्यक्त रूप में उपस्थित रहते हैं। इसमें स्वर्ण तत्त्व भी विद्यमान् होता है, किंतु सूक्ष्म रूप में। किंतु यदि इसके विलीन भाव को प्रबुद्ध किया जाए और उसकी मात्रा बढ़ा दी जाए, तो लौह भाव दब जाएगा और स्वर्ण का विलीन भाव प्रबुद्ध होने से लोहे का टुकड़ा सोने का हो जाएगा।

वास्तव में न लोहा नष्ट हुआ और न सोने की नवीन सृष्टि हुई। दोनों पहले भी विद्यमान् थे और अब भी हैं। अंतर मात्र इनके अनुपात एवं घनत्व का है। इस अव्यक्त एवं व्यक्त के अंतर के ठीक-ठीक रहस्य व क्रिया-कौशल को जानकर किसी भी स्थान पर, किसी भी वस्तु का आविर्भाव किया जा सकता है। यही योग शक्ति के माध्यम से पदार्थ की सत्ता के रूपांतरण का रहस्य है और यही सूर्य विज्ञान की सहायता से भी किया जा सकता है।

एक पदार्थ को दूसरे रूप में रूपांतरण करना जहाँ सूर्य सिद्धाँत द्वारा संभव है, वहीं योगबल से भी इस कार्य को बिना किसी स्फटिक यंत्र का सहारा लिए किया जा सकता है। योगबल की व्याख्या करते हुए स्वामी अखिलेश्वरानंद ‘हिमालय के महायोगियों की गुप्त सिद्धियाँ’ पुस्तक में लिखते हैं, बाहर विश्व में सूर्य देदीप्यमान है, उससे करोड़ों गुना तेज और ताप लेकर एक सूर्य हमारे अंदर निहित है, किंतु उसका तेजस् एवं ताप बिखरा हुआ है। योग साधनाओं के माध्यम से इसकी रश्मियों को घनीभूत करके व नेत्रों के माध्यम से पदार्थ पर उनका प्रभाव डालकर मनोवाँछित पदार्थ में इसे रूपांतरित किया जा सकता है।

इसी प्रकार इस पुस्तक में परकाया प्रवेश, रोग निवारण, मृत्यु निवारण आदि के प्रयोगों का उल्लेख है। ऐसी ही एक विशिष्ट क्रिया है शून्य मार्ग से यात्रा की, जिसमें कुछ ही क्षणों में जितना चाहे उतना सामान लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा की जा सकती है। इस प्रक्रिया का गूढ़ रहस्य बताते हुए वे कहते हैं कि इसमें पूरे शरीर को नियंत्रित कर इड़ा व पिंगला को समन्वित करना होता है। ऐसा होते ही पूरा शरीर वायु से भी अत्यंत हल्का और वेगवान बन जाता है।

इस तरह हिमालय के योगियों की सिद्धियों का संसार अद्भुत एवं विलक्षण है, जो सहज ही विश्वसनीय नहीं लगता और पर्याप्त कौतुक एवं आश्चर्य का विषय बन जाता है। किंतु समय-समय पर प्रकट होने वाले प्रामाणिक संदर्भ इसके अस्तित्व पर मोहर लगाते रहते हैं। हालाँकि सिद्धियों की चकाचौंध में सामान्यतः जो पक्ष उपेक्षित-सा रह जाता है, वह है इससे अभिन्न रूप से जुड़ा साधना का पक्ष। साधना के साथ क्रमशः सिद्धियों का प्रस्फुटन भी शुरू हो जाता है, किंतु जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति में इनकी चकाचौंध को बाधस्वरूप मानकर हमेशा इनसे बचने का ही निर्देश रहता है। साधना की परिपक्व अवस्था में सिद्धपुरुषों और योगियों के लिए सिद्धियाँ कौतुक का विषय नहीं रहतीं, बल्कि अनुचर बनकर रह जाती हैं, जिनका उपयोग मात्र लोककल्याण के हित ही किया जाता है, जो भी हो, सिद्धियों का अस्तित्व अध्यात्म विज्ञान की असीम समर्थता को स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है।


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