एक मीठा जहर, जो हमें नित्य जर्जर कर रहा है

March 2001

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आज के दौर में टेलीविजन अधिकाँश लोगों की दिनचर्या का एक अनिवार्य अंग बन गया है। टी.वी. कार्यक्रमों की सतरंगी दुनिया में विचरण करना अब दर्शक के लिए मात्र मनोरंजन से कहीं ज्यादा है। सब कुछ भूलकर कार्यक्रमों के साथ इतना तादात्म्य स्थापित कर लेना कि आस-पास का भी भान न रहे, इस तथ्य की पुष्टि करता है।

टी.वी. में प्रसारित होने वाले कार्यक्रम कहीं-न-कहीं दर्शक के अंतर्जगत् की ही अभिव्यक्ति होते हैं, भले ही प्रतीकात्मक ही सही। तभी तो यह जानने के बावजूद कि जो दिखाया जा रहा है, वह सत्य नहीं है, वह उसके साथ सुख-दुःख का अनुभव करता है। यही कारण है कि मनुष्य की भावनाओं से लेकर स्थूल क्रिया−कलाप पर भी टेलीविजन का इतना व्यापक और गहरा प्रभाव परिलक्षित हो रहा है। अमेरिका जैसे विकसित राष्ट्र में भी चुनावी सर्वे के दौरान 75 प्रतिशत लोगों ने स्वीकार किया कि वे टी.वी. पर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों के बहस संबंधी कार्यक्रमों को देखकर निर्णय लेते हैं। कुछ वर्ष पूर्व ब्रिटेन में बच्चों के चश्मे बहुत बिके। सर्वेक्षण से यह पता चला कि ऐसा टी.वी. देखने के कारण हुआ। साथ ही यह भी महसूस किया गया कि न सिर्फ बच्चों में वरन् बड़ों में भी दायित्व बोध का निरंतर ह्रास होता जा रहा है।

भारत की स्थिति इस संबंध में कुछ भिन्न है। प्रारंभ में सिर्फ एक ही चैनल का दूरदर्शन के कार्यक्रमों पर एकाधिकार था। तब तकनीकी दृष्टि से कार्यक्रम भले ही उच्चस्तरीय नहीं होते थे, पर गुणवत्ता की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी थे। उनमें मनोरंजन के अलावा ज्ञानपरक व प्रेरक सूचनाओं का समुचित समावेश रहता था। धीरे-धीरे परिस्थितियाँ बदलीं और घरों में केवल टी.वी. और उपग्रह टी.वी. प्रसारणों का अवतरण हुआ। फिर तो जैसे टेलीविजन के छोटे परदे की रंगत में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया।

एक-एक करके अनेक चैनल बाजार में आ गए। प्राइवेट चैनलों की भरमार हो गई। इन सारे चैनलों के आ जाने से 90-100 चैनलों वाले टी.वी. सेट भी आ गए। साथ ही पुराने टी.वी. में लगने वाले ऐसे साधन आ गए, जिससे चैनलों की संख्या बढ़ जाती है। ऐसे में दर्शकों के प्रति टी.वी. प्रसारण का दृष्टिकोण ही बदल गया। उन्हें उद्देश्यपूर्ण ढंग से सूचना व ज्ञान से लाभान्वित करने का उत्तरदायित्व ही भुला दिया गया। अब तो दर्शक सिर्फ उपभोक्ता बन गया है और विभिन्न चैनलों ने दर्शकों के इसी रूप को भुनाने का व्यवसाय शुरू कर दिया है। लोकप्रिय मनोरंजन ही टेलीविजन का अभिप्राय हो गया है, क्योंकि उपभोक्तावादी तर्क के अनुसार ऐसे कार्यक्रमों की दर्शकता दर सर्वाधिक है। अन्य कार्यक्रम जो बहुत प्रेरक, उद्देश्यपूर्ण एवं आदर्श धारणाओं वाले थे, उनके प्रति उदासीनता बरती जाने लगी। ऐसे समय में जबकि बहुसंख्यक दर्शक टी.वी. कार्यक्रम देखते हैं, दर्शकों को बाँधे रखने के लिए सस्ती लोकप्रियता के मसालों से भरपूर कार्यक्रम पेश किया जाने लगा। विज्ञापनदाता भी सिर्फ इसी श्रेणी के कार्यक्रमों में पैसा लगाने को तैयार थे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118