एक बार काशी विश्वविद्यालय में स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार है या नहीं, इस पर हिंदू संस्कृति के महाप्राण पं. मदनमोहन मालवीय ने विद्वानों की सभा आयोजित की। पंडितों ने अपनी-अपनी तरह के तर्क, रखे पर पंडित प्रमथ नाथ तर्क भूषण ने अपाला, घोषा, विश्ववारा के ब्रह्मवादिनी होने, मनु की पुत्री इला द्वारा ब्रह्माजी के यज्ञ का संचालन करने, गार्गी द्वारा याज्ञवल्क्य से शास्त्रार्थ करने, महाराज जनक द्वारा अपनी चारों पुत्रियों सीता, माँडवी, उर्मिला, श्रुतिकीर्ति का यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न कराने, रावण द्वारा सीताहरण के समय उनका यज्ञोपवीत तोड़ने जैसे अहाट्य तर्क रखे, तो एक भी विद्वान् उनका उत्तर नहीं दे पाया। तब से बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में लड़कियों को भी वेद पढ़ाया जाने लगा। पर आज भी प्रतिगामिता उन तथ्यों की उपेक्षा और अवहेलना करती रहती है।
माँस मर्डर की घटना सदियों से होती चली आ रही है। पंद्रहवीं शताब्दी में फ्राँस का गिल्स डी रेस एक अत्यंत धनवान व्यक्ति था। इसने सौ से अधिक बच्चों की हत्या कर दी थी। सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड की एलिजाबेथ बेधरे एक ऐसी कुख्यात महिला थी, जिसने 650 युवतियों को मौत के मुँह सुला दिया था। वह युवती की हत्या करने के बाद उसके गरम खून से स्नान करती थी। इस परिप्रेक्ष्य में अपने रूप-जाल से रोम के साम्राज्य को हिलाकर रख देने वाली क्लियोपेट्रा भी आती है, जो प्रतिदिन एक हब्शी के खून से स्नान करती थी। उन्नीसवीं शताब्दी में पेरिस के जोसेफ फिलीप तथा लंदन के जैके ने असंख्य वेश्याओं को मार दिया था। जान वेन गेसी, फैक पाट्स, हेनरी लुइस वैलेस, डेविड बकौविट्ज, जेफरी, हेनरी ली ल्युकस और राबर्ट सी. हैलेन ऐसे कुख्यात अपराधियों के नाम हैं, जो लगभग 200 लोगों की हत्या में संलग्न थे।
अमेरिका के मनोवैज्ञानिक जोएल नाँरीस ने ऐसे लोगों के व्यवहार को सात अवस्थाओं में विभक्त किया है-
1- आँरा फेज-इसमें हत्यारा अपनी मानसिक विक्षिप्तता के कारण वास्तविकता के स्थान पर कल्पना का आवरण ओढ़ता है।
2- ट्रालिंग फेज-इस सक्रिय अवस्था में वह बड़ी ही सतर्कता व सावधानी से शिकार की खोज करता है।
3- वूइंग फेज-कुशलतापूर्वक खतरा व संकट मोल लिया जाता है।
4- केप्चर-हत्या के दौरान अजीब सा मनोभाव पैदा होता है।
5- मर्डर-क्रूरता का क्षण।
6- टाटेम फेज-हत्यारा अपनी सफलता पर पागल-सा हो जाता है।
7- डिप्रेशन फेज-उदासी की काली छाया फिर से मँडराने लगती है।
नाँरिस के अनुसार ऐसे व्यक्तियों का जीवन अत्यंत जटिल एवं आक्रामक होता है। वे सदा हिंसा, घृणा एवं अन्य घोर मनोविकारों के आवेग में उबलते रहते हैं। इसी कारण उनका चेहरा विकृत हो जाता एवं व्यवहार में असामान्यता आ जाती है। इनकी आँखों में यह भाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। शरीर की त्वचा शुष्क, भूरे नाखून एवं अपराधी वृत्ति इनको अलग से पहचान देती है।
मनोवैज्ञानिक नाँरिस के अनुसार हिंसा, हत्या, अपराध घातक मनोविकार हैं। परंतु व्यक्ति अपने प्रचंड संकल्प एवं पुरुषार्थ से इस दलदल से मुक्त हो सकता है। अपना प्राचीन इतिहास गवाह है कि अंगुलिमाल जैसे क्रूर, निर्दयी व्यक्तियों ने भी संत एवं योगी का जीवन जी सकने में सफलता प्राप्त की है। मनुष्य अपने संकल्प, साहस और प्रबल पुरुषार्थ से अपने अंदर की दानवी शक्ति को परास्त कर दैवीय शक्ति को जाग्रत् एवं जीवंत कर सकता है। हिंसा के स्थान पर रक्षा-दया एवं घृणा के बदले प्रेम का सुँदर जीवन ही श्रेयस्कर है। हर व्यक्ति को इसी ओर बढ़ना चाहिए।