हीरक जयंती विशेष - नारी जागरण वर्ष में इस आँदोलन की कथा-गाथा

March 2001

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हीरक जयंती आ पहुँची। युगचेतना के अवतरण को 75 वर्ष पूरे हुए। एक छोटा-सा साधारण-सा दीपक अचानक 18 जनवरी 1926 की ब्रह्ममुहूर्त की वेला में एक पंद्रह वर्षीय बालक के लिए अखण्ड दीपक बन गया। उसी दीपक की लौ में से उसके गुरु प्रकट हुए थे एवं उनने उसे बालक श्रीराम को बोध कराया था कि उसका अवतरण किसलिए हुआ है। सूक्ष्मशरीरधारी परोक्षजगत से पधारी गुरुसत्ता ने उस दिन, उस बोध दिवस के दिन अनायास ही गायत्री परिवार नामक एक संगठन को जन्म दे दिया, जो कि इस वर्ष अपने 75 वर्ष पूरे कर रहा है निरंतर जल रही अखण्ड अग्नि, अखण्ड दीपक की लौ-आभा के साथ।

बड़ा ही विलक्षण तपप्रधान इतिहास है वर्ष 1926 का। इसी वर्ष हमारी गुरुसत्ता ने अपने चौबीस-चौबीस लक्ष्य के चौबीस महापुरश्चरणों की श्रृंखला आरंभ की। इसी वर्ष उनकी जीवनसंगिनी, उनकी अंतरंग शिष्या, जिसे सत्रह वर्ष बाद अपने आराध्य के जीवन में प्रवेश करना था, जन्मीं। हाँ, वंदनीया, शक्तिस्वरूपा, स्नेहसलिला माता भगवती देवी आगरा शहर में, युगऋषि की जन्मस्थली आँवलखेड़ा से लगभग पंद्रह मील दूर लसवंतराय बोहरेजी के घर जन्मीं। जैसा बालक श्रीराम का जन्मकाल था, वैसा ही परमवंदनीया माताजी का भी पढ़ने को मिलता है। मात्र भजन-पूजन में रुचि। घर में वैभव के सब साधन, पर मन मात्र प्रभु में। उस मीरा को आखिर उसके कृष्ण नरतन में जो मिलने वाले थे।

1943 में परमपूज्य गुरुदेव के आगरा से मथुरा आकर घीयामंडी (वर्तमान अखण्ड ज्योति संस्थान कार्यालय) के भवन में आने के बाद उनने वही किया, जो उनके आराध्य ने कहा। हर श्वास में उनके पूज्यवर ही बसे थे। दोनों में आयु का बड़ा अंतर था, परंतु परमवंदनीया माताजी तो जैसे उनके साथ ढलने के लिए ही आई थीं। उनने अपनी आँखों से देखा कि आचार्य श्री ने नारी जागृति को अपने आँदोलन का मुख्य अंग माना है एवं स्वयं से शुरुआत करने के क्रम में, उनने सबसे पहले अपनी माँ को अक्षरज्ञान कराके सभी ग्रंथ पढ़ना सिखा दिए हैं। धीरे-धीरे वंदनीया माताजी भी पूज्य गुरुदेव के सुलेख-अभ्यासक्रम में शामिल हो गईं एवं फिर सास-बहू में मानो प्रतिस्पर्द्धा होने लगी किसकी लिखावट ज्यादा अच्छी है। उन दिनों महात्मा गाँधी ने प्रौढ़ शिक्षा का नारा दिया था। काँग्रेस के आँदोलन का यह एक अंग भी था। रात्रि में अखण्ड ज्योति संस्थान में पुरुष वयोवृद्ध पढ़ने आते, जीवन जीने की कला सीखकर जाते। दिन में माताजी पूज्यवर के साथ बैठतीं, कभी-कभी पूज्यवर की माता श्री (ताई जी जिन्हें प्यार से कहते थे) भी शामिल होतीं। कुछ माता-बहनें आतीं, जिनमें एक बूढ़ी मुसलमान दादी माँ भी थी। नाम तो था सलमा, पर नाम बदलकर लोगों ने सल्लो कर दिया। फिर उसकी बेटी सकीला भी उन क्लासों में शामिल हो गई।

प्रौढ़ शिक्षा की, नारी जागृति की यह प्रक्रिया 222 बढ़ी, परमवंदनीया माताजी के गुरुदेव की जीवनचर्या के एक अंग बनने के रूप में। नित्य न जाने कितने अतिथि आते, उनका सत्कार भी करना होता था। सभी भोजन प्रसाद पाकर ही जाते थे। वह कार्य भी परमवंदनीया माताजी को ही सँभालना था। साथ में दिन में प्रौढ़ शिक्षा की क्लास एवं दो-तीन घंटे गुरुसत्ता के साथ बैठकर पत्राचार का शिक्षण। पत्रों को वे पढ़ती जातीं, गुरुदेव जवाब लिखते चले जाते। जितनी देर में वे पत्र पढ़कर लिफाफे में रखना उतनी देर में जवाब लिखकर उनके पास लिफाफे में रख बंद करने के लिए आ जाता। यह अलौकिक चमत्कार वे रोज देखतीं। कभी-कभी प्रेस को सँभालने हेतु भी उन्हें नीचे जाना पड़ता, बाद में वे उसका क ख ग अच्छी तरह सीख गईं एवं गुरुदेव को अनुपस्थिति में भी अखण्ड ज्योति की छपाई का काम देखने लगीं।

एक महिला मंडल, संभवतः गुरुसत्ता द्वारा प्रथम महिला मंडल 1947 में माताजी की सहायता के लिए बनाया गया। कौशल्या, रतन, नारायणी एवं प्रेमवती ये प्रमुख महिलाएँ थीं, जो वंदनीया माताजी की साथिन बनीं। इन सबकी साहित्यिक रुचि बढ़ाने का प्रशिक्षण क्रमशः पूज्यवर ने वंदनीया माताजी को दिया। इन सभी का साँस्कृतिक उत्कर्ष हो, अपने पैरों पर खड़ी हो इस कार्य को बढ़ा सके, इसलिए उनने छोटी-सी शुरुआत की थी। उन्हीं दिनों आचार्य श्री की पुस्तक प्रकाशित हुई, ‘स्त्रियों का गायत्री अधिकार’ इस पुस्तक के तर्कों ने सबको हिला दिया। देखते-देखते अगणित महिलाएँ इस महान् यज्ञ में शामिल होती चली गईं। 1958 के सहस्रकुँडी महायज्ञ के बाद परमपूज्य गुरुदेव ने ‘अखण्ड ज्योति’ संपादन का भार परमवंदनीया माताजी को सौंप दिया। कहा कि अब हम हिमालय जाएँगे, आर्ष साहित्य का पुनर्लेखन-भाष्य करने हेतु तप भी करना है, एकाँत भी जरूरी है। छह माह उत्तरकाशी रहेंगे, छह माह नंदनवन-तपोवन में गोमुख के ऊपर अपने गुरुदेव के साथ। एक वर्ष लगा परमवंदनीया माताजी को सारा कार्यभार सँभालने में। अक्टूबर 1959 की अखण्ड ज्योति के पृष्ठ 4 पर एक लेख था, ‘अखण्ड ज्योति के उत्तरदायित्वों में परिवर्तन’ लेखिका के स्थान पर माता भगवती देवी पत्नी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य लिखा था। मात्र तैंतीस वर्ष की आयु एवं यह महती जिम्मेदारी दो वर्ष के लिए पूज्यवर उन पर डालकर चले गए। 1961 की जनवरी तक उनने इस कार्य को बखूबी निभाया।

संगठन बढ़ता चला गया, लगाया गया पौधा विकसित हो वटवृक्ष बनता चला गया। नारी जागृति आँदोलन का आधार अब खड़ा हो रहा था। 1962 में गुरुदेव के हिमालय अज्ञातवास से लौटते ही युगनिर्माण योजना व उनके शत-सूत्री कार्यक्रम की घोषणा हो गई। यह भी बता दिया गया कि वे मात्र 9 वर्ष के लिए वापस आए हैं। पुनः 1971 में वे परमवंदनीया माताजी को हरिद्वार के शाँतिकुँज में छोड़कर हिमालय चले जाएँगे। यही हुआ। परमवंदनीया माताजी 20 जून 1971 को शाँतिकुँज आ गईं। भूल गईं आगरा-मथुरा, वहाँ से जुड़ी ममता। अब उनसे जुड़ गईं कुमारी कन्याएँ, जिनके साथ उन्हें अखण्ड दीपक की रक्षा करनी थी। साथ ही सीमित अवधि में वही तप संपन्न करना था, जो गुरुसत्ता ने पंद्रह वर्ष की आयु में आरंभ कर चौबीस वर्ष में पूरा किया था। अखण्ड ज्योति संस्थान मथुरा से शाँतिकुँज हरिद्वार आए अखण्ड दीपक की साक्षी में पहले दस, फिर सोलह, फिर चौबीस कन्याओं का अखण्ड जप चला। उनका प्रशिक्षण भी माताजी ने सँभाला। यहीं से गायत्री परिवार के महिला जागृति आँदोलन ने जड़ें मजबूत कीं।

देवकन्याओं का शिक्षण एवं उन्हें भाषण, संगीत, स्काउटिंग, स्वावलंबन का अभ्यास परमपूज्य गुरुदेव (जो 1972 में लौट आए थे) के परोक्ष मार्गदर्शन, संरक्षण एवं प्रत्यक्षतः शक्तिस्वरूप माताजी के सान्निध्य में होने लगा। इनके दल सारे भारत में गए एवं एक शिक्षण देकर आए कि नारी चाहे तो पुरुष के द्वारा किए जा रहे सारे कार्य कर सकती है। नारी अबला नहीं, सबला है। धर्मतंत्र उसी की वजह से टिका हुआ है। यदि उसे परिष्कृत कर राष्ट्र का मार्गदर्शन करना है, तो नारी ही आगे आकर यह कार्य करेगी।

1975-76 से अब तक की पच्चीस वर्ष की अवधि में महिला जागृति आँदोलन सारे देश व विश्व में फैला है। अब हर कार्य में आगे बढ़कर बहनें कमान सँभालती हैं। शक्तिपीठों के निर्माण की बात आई, तो बढ़-चढ़कर पुरुषार्थ महिला शक्ति ने ही दिखाया। अधिकाँश शक्तिपीठों के मूल में नारी शक्ति का त्याग बूँद-बूँद कर किया गया संकुल नहीं है। एक उदाहरण अभी-अभी का नहीं भूलता। गुजरात के सूरत जिले के समुद्री तट पर एक गाँव है मोर। इस गाँव में महिलाएँ ही निवास करती हैं। पुरुष वर्ग जहाज के खलासी व नाविकों के रूप में वर्षभर भारत से बाहर ही रहते हैं। जो लौट आते हैं, वे ऐसे ही पड़े रहते थे, कई व्यसन लेकर आते थे। गायत्री परिवार से जुड़ी महिलाओं ने व्यसन मुक्ति आँदोलन चलाया एवं फिर एक शक्तिपीठ चालीस बहनों ने अपने बलबूते विनिर्मित करके दिखा दी। इतनी शानदार पीठ है कि माँ की प्रतिमा का सौंदर्य एवं उस भवन का स्वरूप देखते ही बनता है, जिसके पिछवाड़े समुद्र की लहरें स्पर्श करती हैं। लगभग चालीस लाख रुपये बहनों ने ही अपने स्तर पर एकत्र कर यह भव्य निर्माण अपने हाथों से किया है।

यह वर्ष महिला शक्ति जागरण वर्ष है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सारा विश्व 2001 को इसी रूप में मना रहा है। सारे विश्व में नारी शक्ति उभरकर आगे आ रही है। इस वर्ष को विशेषतः गायत्री परिवार ने नारी जागरण का अलख जन-जन तक पहुँचाने के लिए मनाने हेतु संकल्प लिया है। इस वर्ष प्रशिक्षण की श्रृंखला केंद्र व क्षेत्र में भी चलेगी। संवेदना की मूर्ति नारी को उसकी वर्षों की घुटन से मुक्ति मिले, वह स्वावलंबी, शिक्षित, सुसंस्कारी हो पुरुष के साथ कंधे-से-कंधे मिलाकर आगे बढ़ सके। धर्मतंत्र के माध्यम से साँस्कृतिक नवोन्मेष की प्रक्रिया को मूर्त रूप दे सके, इसीलिए इस वर्ष को विशेष रूप से परमवंदनीया माताजी के जन्म के साथ युगचेतना के अवतरण, अखण्ड दीपक के प्रज्वलन की हीरक जयंती के रूप में उल्लास के साथ मनाया जा रहा है। दहेज की समस्या से, जलती बहू-बेटियों के हाहाकार से, परोक्ष जगत् के विक्षुब्ध होने की प्रक्रिया से, अपव्यय-फैशनपरस्ती, अश्लील प्रदर्शन से घिरी विडंबना से नारी ही मुक्ति दिला सकेगी। आइए हम सभी इस आँदोलन रूपी महायज्ञ में एक समिधा बन स्वयं को समर्पित करने का संकल्प लें।


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