मनोभावों का दर्पण है हमारा चेहरा

March 2001

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अपने अंतराल की प्रसन्नता-अप्रसन्नता ही मनुष्य को बाह्य जगत् में दृष्टिगोचर होती है। संसार की हर वस्तु या व्यक्ति की सुँदरता-असुँदरता के साथ भी यही तथ्य जुड़ा हुआ है। यद्यपि वस्तुएँ जड़ परमाणुओं का समुच्चय हैं, उनके रूप, रंग, नाम और गुण अनेक हैं, फिर भी वे प्राणियों के समकक्ष नहीं आ सकतीं। उनका सुनिश्चित आकार-प्रकार होते हुए भी उनमें ऐसा कुछ नहीं होता, जिससे वे अपनी भावनात्मक प्रतिक्रिया अभिव्यक्त कर सकें। यह मनुष्य की अपनी मान्यता है, जो उसके साथ भले-बुरे का आरोपण करती तथा प्रिय-अप्रिय की मुहर लगाती है। अपने-पराये की यही भावना किसी को प्रिय बनाती, तो किसी को अनुपयुक्त एवं घृणास्पद ठहराती है।

किसी ने ठीक ही कहा है कि भ्राँतियाँ मनुष्य की स्वनिर्मित और स्वनिर्धारित हैं, जिनमें वह एक को भला और दूसरे को बुरा बताता है, अन्यथा स्रष्टा की हर संरचना अपने में विशिष्टता धारण किए हुए है। मनुष्य ही है, जो जिसके साथ चाहता है, प्रभावित होकर अपनत्व बढ़ाता, घनिष्ठता जोड़ता और राग-द्वेष का आरोपण कर लेता है, घृणा या प्रेम करता है, जबकि वस्तुतः ऐसा है नहीं। सभी प्राणी एवं वस्तुएँ नियति नटी के किसी महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए रची गई हैं। उनकी अपनी-अपनी विशिष्टता एवं महत्ता है। यही तथ्य मनुष्य पर भी लागू होता है। दृष्टिकोण का परिवर्तन मनःस्थिति को भी बदलकर रख देता है। मान्यताओं के बदलते ही घृणा के स्थान पर प्रेम की रसानुभूति होते देर नहीं लगती।

सर्वत्र दृष्टिगोचर होने वाली व्यथाओं का कारण मनुष्य की अपनी स्वनिर्मित मान्यताएँ ही हैं। किन वस्तुओं या व्यक्तियों के प्रति, किसी का राग-द्वेष, कितनी प्रगाढ़ता लिए हुए है, उसके चेहरे पर या आँखों में झाँकने पर इसकी स्पष्ट झाँकी हो सकती है। कारण मन की प्रसन्नता-अप्रसन्नता, प्रियता-अप्रियता व्यक्त करने के यही दोनों दर्पण की भूमिका निभाते हैं। यह अपने हाव-भाव के पीछे गूढ़ रहस्य जो छिपाए बैठे होते हैं। मनोविज्ञानी इस तथ्य को भली-भाँति जानते हैं और कहते हैं कि मन और शरीर सहजीवी की तरह हैं। एक का दूसरे के साथ बड़ा ही घनिष्ठ संबंध है और दोनों मिलकर चेहरे पर प्रसन्नता या दुःख की झलकियाँ प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि मनोचिकित्सक चेहरा देखते ही भांप जाते हैं कि व्यक्ति किस व्यथा से पीड़ित है।

विकृत दृष्टिकोण धीरे-धीरे मन को अपनी गिरफ्त में पूरी तरह जकड़ लेता है और उसे तनावग्रस्त बना देता है। इसका प्रभाव सौंदर्य पर भी पड़ता है और स्थूल रूप से स्वस्थ दीखते हुए भी व्यक्ति कुरूप लगने लगता है। वस्तुतः यह मन की कुटिलता ही है, जो अंदर की विषाक्त प्रवृत्ति को ढकने का प्रयत्न करती है, फलस्वरूप व्यक्ति बाह्य जगत् में कृत्रिम चेहरा बनाने का प्रयत्न करता है, पर गहराई से दृष्टिपात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि तनावयुक्त माँसपेशियाँ विशेष प्रकार की स्थिति से ग्रस्त होकर कठोर बन गई हैं। ओंठ एवं तनी भौंहें अंततः यही सिद्ध करती हैं कि व्यक्ति किन्हीं विशेष मनःस्थितियों में उलझा है।

ईर्ष्या, द्वेष एवं घृणा की स्थिति में मन के धरातल में कंपन शीघ्र होने से नए-नए कुविचार शीघ्रता से उठते हैं, जबकि शाँत एवं स्थिर मन तटस्थ चिंतन करता है। ऐसी स्थिति में भावनाएँ, विचारणाएँ सात्विक ढंग से निस्सृत होती हैं और उनका आरोपण जिस किसी पर भी होगा, उसी में अपनत्व भरी तरंगों का प्रवाह प्रस्फुटित होने लगेगा। ऐसी दशा में स्वयं को प्रसन्नता होती है, स्नायुमंडल को विश्राम मिलता है और विरोधी आकाँक्षाएँ-भावनाएँ मिटती हैं। मन एवं उसकी शक्तियों का बिखराव भी रुकता है। यही शक्तियाँ मूल स्रोत पर पहुँचकर घनीभूत होती और तन-मन को स्वस्थ बनाती हैं।

चिंता एवं घृणा से मुक्त मन घनीभूत शक्तियों सहित अनंत चेतन सत्ता से, विराट् ब्रह्म से जुड़कर व्यापक प्रेम की अनुभूति कराने में सक्षम हो जाता है। इससे मनोभावनाएँ शुद्ध-पवित्र तो बनती ही हैं, समूचा व्यक्तित्व भी प्रभावित-परिवर्तित हुए बिना नहीं रहता। यही क्रिया अंतराल को देवत्व स्तर का बना देती है।

वस्तुतः इस संसार में कोई भी वस्तु या व्यक्ति असुँदर नहीं। स्रष्टा की इस धरित्री पर कुछ भी कुरूप नहीं है। हम जिससे घृणा करने लगते हैं, वही हमारे लिए असुँदर बन जाता है। यदि अपना दृष्टिकोण बदलकर आत्मीयता-अपनत्व का प्रकाश डालें और सृष्टि के सौंदर्य को सराहे, उसकी उपयोगिता पर ध्यान दें, तो ऐसा मानसिक कायाकल्प हो सकता है, जिसके कारण विश्व में कहीं भी कुरूपता दृष्टिगोचर न हो।


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