मोक्ष मूलम् गुरुकृपा

March 2001

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गुरुतत्त्व उच्चतम एवं पवित्रतम तत्त्व है। यह आयु, देश-काल की सीमा से परे एक अविनाशी तत्त्व है। इसकी अनुभूति विनम्र समर्पण से ही संभव है। अपने अंदर स्थित इस तत्त्व से घनिष्ठता स्थापित करने हेतु उस व्यक्ति की खोज की जाती है, जो हमारे आँतरिक गुरु का प्रत्यक्ष प्रतिनिधि या प्रतिरूप हो। इसी उद्देश्य से गुरु-शिष्य संबंध को युगों से सुरक्षित एवं संरक्षित रखा गया है। जीवंत गुरु, शिष्य के अंदर स्थित गुरुतत्त्व का प्रतीक है।

यह श्रद्धेय तत्त्व प्रत्येक व्यक्ति के अंदर विद्यमान् रहता है। इसे आँतरिक गुरु कहा जाता है। स्थूल देह में आज्ञाचक्र गुरुतत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है। अपने स्वयं के इस आँतरिक गुरु के साथ बिना किसी बाह्य गुरु के तादात्म्य अति दुष्कर कार्य है। अलौकिक आत्मबल के धनी महापुरुष ही इस पथ के पथिक होते हैं। श्री अरविंद, रमण महर्षि जैसे सिद्धयोगी इसी तरह के साधक हुए हैं। इनके कोई बाहरी गुरु नहीं थे। परमात्मा ही उनके गुरु थे। परंतु सामान्य शिष्य या साधक को इस मायारूपी संसार से मुक्त होने के लिए पग-पग पर मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। उनके लिए प्रत्यक्ष गुरु का होना जरूरी है। इसीलिए गुरु के भौतिक स्वरूप को भी स्वीकार किया जाता है। गुरु के भौतिक शरीर को आँतरिक प्रबुद्ध चेतना का बाह्य आवरण माना जाता है।

विश्वगुरु स्वामी विवेकानंद ने ऐसे महान् व्यक्तित्व के प्रति इस तरह अपनी अभिव्यक्ति दी है, जिस व्यक्ति की आत्मा से दूसरी आत्मा में शक्ति का संचार होता है, वह गुरु कहलाता है और जिसकी आत्मा में यह शक्ति संचरित होती है, उसे शिष्य कहते हैं किसी की आत्मा में इस प्रकार शक्ति संचार करने के लिए आवश्यक है कि पहले तो जिस आत्मा से यह संचार होता हो, उसमें स्वयं इस संचार की शक्ति विद्यमान् रहे और दूसरे जिस आत्मा में यह शक्ति संचरित की जाए, वह उसे ग्रहण करने योग्य हो। स्वामी जी आगे कहते हैं, सच्चा गुरु वह है, जो सम-समय पर आध्यात्मिक शक्ति के भंडार के रूप में अवतीर्ण होता है और गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा उस शक्ति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लोगों में संचरित करता है।

श्री अरविंद गुरुतत्त्व की महत्ता इस तरह व्यक्त करते हैं, “वह जिसने सत्य को उपलब्ध कर लिया है और स्वयं जिसे आत्मज्योति की अनुभूति प्राप्त है और जो उसका प्रकाश दान करने में समर्थ है। ऐसा पथ-प्रदर्शक, जो इतना सबल है कि राह की शिक्षा दे सकता है, राह बना सकता है और हाथ पकड़कर ले चल सकता है, कठिन राह पार करा सकता है। वही सत्ता गुरु कहलाती है।” श्री अरविंद के अनुसार सभी कठिनाइयों में जहाँ व्यक्तिगत प्रयास अवरुद्ध हो जाता है, गुरु की सहायता हस्तक्षेप कर सकती है और सिद्धि के लिए जो कुछ भी आवश्यक हो अथवा जो कुछ तात्कालिक स्थिति में आवश्यक हो, उसे संपन्न कर सकती है।

शास्त्रवचनों के अनुसार, जो ज्ञानरूपी अंजन की सलाई से अज्ञानरूपी अँधेरे से अंधी हुई आँखों को खोल देता है, उसे गुरु कहा जाता है। इसीलिए उपनिषद् कहती है, ‘गु’ शब्द का अर्थ है ‘अंधकार’; ‘रु’ शब्द का तात्पर्य है उसका निरोधक। अंधकार का निरोध या अज्ञान का नाश करने वाला तेजरूप ब्रह्म ही गुरु है। स्कंदपुराण का कथन है, गुरु विष्णु है, गुरु महेश्वर है। केवल ज्ञानमूर्ति, द्वंद्व से परे, आकाश के समान, नित्य, निर्मल, अचल, सदा साक्षी रूप, संसार से अतीत, तीनों गुणों से रहित और नित्य गुरु रूप में वे वरेण्य हैं। गुरु तो सर्वमयी चैतन्य सत्ता का एक प्रतीक है, जो सूर्य ज्ञान पिलाता है, वह तो जैसे अनंत ज्ञान की विकलता है। वह सत्य के ज्ञान की उत्कटता है। गुरु का न आदि है न अंत। गुरु का न पूर्व है न पश्चात्। गुरु है परिपूर्णता। उससे बढ़कर तीनों लोकों में कोई दूसरा नहीं है।

गुरु वे हैं, जिन्होंने अपनी चेतना को पूर्णतया संस्कारित कर दिया है। वे स्थूल देह धारण कर इस संसार में रहते हैं। परंतु उनकी आत्मा सदैव परमात्मा में निवास करती है। वे ईश्वरकोटि की आत्मा होते हैं, वे जीवन मुक्त होते हैं। उनका हृदय करुणा से ओत-प्रोत होता है। उनका जीवन भगवान् के लिए पूर्णतया समर्पित होता है। उनकी अपनी कोई इच्छा, आकाँक्षा या कामना नहीं होती है। वे सदैव विश्व कल्याण हेतु तत्पर होते हैं। ऐसे तपस्वी ही सच्चे गुरु होते हैं। इन्हीं के ज्ञान एवं तप के प्रभाव से सारा जग ज्योतिर्मय रहता है। वे संसार की अनंत गहराई में उतरकर अपने शिष्यों को मुक्त करते हैं।

ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में गुरु की अवधारणा का अंतर्निहित आधार यह है कि वे अति कृपालु, दयालु, न्यायपूर्ण तथा असीमज्ञान से युक्त हैं। भक्त या शिष्य उन्हें इसी रूप में देखते हैं। वह ईश्वर के सर्वाधिक निकट होते हैं। इसीलिए श्रीरामकृष्ण परमहंस ने गुरु या संतों के हृदय को भगवान् का डाक बँगला कहा है। ऐसे गुरु सचमुच ही ईश्वर के प्रतिरूप होते हैं। उनका अस्तित्व एक स्वच्छ दर्पण के समान है, जिसमें अपना ही प्रतिबिंब झलकता है। वे स्वयं में एक विशुद्ध, उज्ज्वल, देदीप्यमान् आत्मा हैं। वह प्रेम एवं आनंद के सागर हैं। अपने शिष्य के लिए वे माता, पिता, संबंधी और ईश्वर हैं। शिष्य के जीवन में जो कुछ है, सद्गुरु में ही निहित है। भक्ति ही गुरु-शिष्य के संबंध का आधार है। यही अंतर्निहित मूल सिद्धाँत है। शिष्य एक निष्ठावान् आज्ञाकारी सेवक है। गुरु उसके स्वामी। समर्पित सेवक एकमात्र उद्देश्य होता है अपने स्वामी द्वारा दिए गए कार्य को पूर्णता से संपादित करना। सेवा करना उनका उद्देश्य है, वह केवल इतना जानता है और इसी बात के लिए सतर्क व समर्पित होता है। गुरुभक्ति में दास्यभाव के अतिरिक्त वात्सल्य भाव, ईश्वर भाव भी निहित होता है।

गुरु की भक्ति मानो सत्य की पूजा है, ज्ञान की पूजा, अनुभव की पूजा, विचारों की पूजा है। जब तक मनुष्यों में ज्ञान की पिपासा है, श्रद्धा की भावना है, तब तक संसार में गुरुभक्ति अक्षुण्ण रहेगी। सूफी संत जायसी कहते हैं, “जहाँ पाँव गुरु राखे, चेला राखे माथा।”

गुरुकृपा कोई शर्त नहीं है। यह तो गुरु का शिष्य के प्रति अनंत प्रेम का उन्मुक्त बहाव है और यह कृपा का अनुदान वरदान शिष्य को कब मिलेगा, केवल गुरु पर निर्भर करता है, संभवतः सर्वस्व समर्पण एवं प्रेम से गुरु कृपा प्राप्त की जा सकती है। गुरुकृपा दुर्लभ चीज है। इसलिए स्वामी विवेकानंद कहते हैं, गुरुकृपा से सब कुछ संभव है। “गुरुकृपा ही केवलम्।”

गुरुकृपा सहजता से प्राप्त नहीं होती। इसे प्राप्त करने के लिए निष्कपट समर्पण आवश्यक है। गुरुकृपा की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि शिष्य का अपना म नहीं न हो। गुरु के प्रति श्रद्धा केवल अंधश्रद्धा हो। श्रद्धा केवल अंधी ही होती है। वह तर्क नहीं करती। जहाँ तर्क है वहाँ श्रद्धा कहाँ? श्रद्धा के बिना समर्पण नहीं प्राप्त हो सकता है। सर्वस्व समर्पण ही गुरुकृपा के लिए सुपात्रता की कसौटी हो सकती है।

यह कृपा अनेक रूपों में प्रकट हो सकती है। यह मधुर एवं प्रिय या कठोर एवं अप्रिय हो सकती है। गुरु उस बढ़ई के समान होते हैं, जो एक लकड़ी के टुकड़े को निर्दयतापूर्वक काट छाँटकर एक निश्चित स्वरूप देते हैं। गुरु शिष्य के अहंकार को काट-छाँटकर, निराई-गुड़ाई करता है। इस कार्य को वे निर्दयतापूर्वक तब तक करते रहते हैं, जब तक कि शिष्य को वाँछित स्वरूप नहीं मिल जाता। गुरु शिष्य को एक मुक्त जीवात्मा के रूप में परिवर्तित कर देते हैं, ताकि वह भी प्रकाशस्तंभ बन सके। इसके लिए शिष्य को लकड़ी के टुकड़े के समान शाँत, मौन एवं अहंकाररहित होना आवश्यक है, ताकि गुरु उसे एक निश्चित स्वरूप प्रदान कर सके। गुरुकृपा के लिए शिष्य को यही सचाई, प्रेम एवं समर्पण का भाव रखना चाहिए।

समस्त परंपराएँ, कला और विज्ञान पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुरु से शिष्य को हस्तांतरित होते रहे हैं। गुरु-शिष्य का संबंध मानव अस्तित्व के महत्तर आयामों, श्रेष्ठतर कामनाओं से संबद्ध है। इसके बिना बाह्य जगत की विषमताओं में अपना अस्तित्व बचाना अति दुष्कर व कठिन है। सद्गुरु की रक्षात्मक कृपा ही जीवन में इस आँतरिक स्रोत की ओर हमारा मार्गदर्शन करती है। जहाँ से हमारी समस्त उच्चतम शक्तियाँ निःसृत होती हैं। इसी वजह से गुरुओं को महान् संस्कृतियों की आधारशिला माना गया है। उनके ज्ञान और प्रेरणा के बिना न तो परंपराएँ टिक सकेंगी और न संस्कृतियाँ ही जीवित रह सकेंगी।

युगगीता-21


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