छोटे-से घरौंदे में ही बंद किया नारी को, अनुभव से हीन कर दिया बंदिनी बिचारी को।
क्वारे मन में उसने भी स्वप्न कुछ सँजोए थे, मधुर-मधुर बीज हृदय की धरती पर बोए थे,
कौशल्या-दशरथ जैसे सास-ससुर पाऊँगी, राम संग अपना जीवन धन्य मैं बनाऊँगी,
उसके पैरों में तुमने बेड़ियाँ लगाई हैं, सेविका बनाकर रक्खा है सुता दुलारी को।
आधी शिक्षा भी उसकी हो सकी न पूरी है, हर इच्छा हर अभिलाषा रह गई अधूरी है,
घर की देहरी तक उसके विचरण की सीमा है, केवल घूँघट ही उसके चिंतन की सीमा है,
सारी प्रतिभाएँ उसकी कुँठित कर डाली हैं, मन में अनजाने दे दी दीनता दुःखारी को।
भोर से शयन तक सबकी चाकरी बजाती है, स्नेह बिना जीवन-बाती सिर्फ टिमटिमाती है,
आशा का नहीं न मन में एक पल उलाजा है, मन में आशंका-भय का धुआँ घुटन वाला है,
भोजन-परिधान, दया के बोल कभी मिलते तो, भूले-भटके ही मिलते ज्यों किसी भिखारी को।
किसी ने न पूछा उससे आँख क्यों भिगोई है, जागती रही है सारी रात क्यों न सोई है,
कैसा भी पति हो उसका करना अभिनंदन है, नारी के लिए नियम हैं, सारा अनुशासन है,
हीन-भावना में डूबी, अपने से ऊबी-सी, जीवित शव जैसा जीवन मिला थकी-हारी को।
जिस घर में माँ आदर्शों-अनुभव से खाली है, वहाँ न सुख-चैन कहीं है, वहाँ न खुशहाली है,
अनियंत्रित पशुओं जैसा बच्चों का जीवन है, सबके हित वह घर केवल एक विषैला वन है,
केवल मुँह ढक लेने का मर्यादा नाम नहीं, ढकने से लाभ भला क्या जलती चिनगारी को।
-शचीन्द्र भटनागर
*समाप्त*