अकाल से पीड़ित नरेश बभ्रुवाहन ने निषेधाज्ञा प्रसारित की कि आज से कोई भी नागरिक रात्रि में विचरण नहीं किया करेगा। ऐसा करने वाला अपराधी होगा और उसे दंड दिया जाएगा।
एक रात जब सैनिक गश्त लगा रहे थे, तो उन्होंने किसी व्यक्ति को एक ओर जाते देखा। उन्होंने रोककर पूछा, “कौन हो? पता नहीं तुम्हें रात में घूमना अपराध है।” वह व्यक्ति भी चतुर था। उसने सोचा, यदि डर गए, तो सैनिक बंदी बना लेंगे, इसलिए उसने कड़ककर कहा, “मुझे टोकते हुए भय नहीं लगा, मूर्खों! स्वयं नरेश मेरी सह से काम करते हैं।”
सैनिक डर गए। उन्होंने सोचा कोई सचिव या राजपुरोहित होंगे, सो वह चुप पड़ गए। सिपाहियों के पीछे ही बभ्रुवाहन भी निरीक्षण के लिए निकले थे, उन्होंने जब शस्त्रधारी सैनिकों को डरते देखा, तो स्वयं आगे बढ़कर बोले, “ठहरो, पहले यह बताओ तुम कौन हो?” इस बार तो वह व्यक्ति घबड़ा गया और महाराज के चरणों में गिरकर बोला, “महाराज मैं दस्युराज आभंतक हूँ।”
बभ्रुवाहन ने सैनिकों से कहा, “तुम संख्या में अधिक व सशस्त्र होते हुए भी अंदर से उससे कमजोर क्यों बने? क्या तुममें इतना साहस नहीं कि स्वयं राजा आएँ, तो उनसे भी पूछो कि वे क्यों रात्रि में यहाँ घूम रहे हैं। यदि इस प्रारंभिक नागरिक रक्षा के अभ्यास में भी तुम सफल न हो सके, तो शत्रु के अधिक संख्या में सामने आने पर कैसे लड़ोगे?”