जाना ‘अयमात्मा ब्रह्म’ का रहस्य

March 2001

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‘तप-साधना का प्रभाव अद्भुत होता है। आत्मा का दिव्य आलोक अलौकिक होता है, जिसे केवल उन जैसे ही पा सकते हैं।’ ऐसा उन्हें देखने-जानने वाले हिंदू विद्वान् कहते थे। रुहानियत भी एक अजीब शय है। इसके रंग में रँगा शख्स तो बस अशरफ-उल-मखलूकात के लिए ही जिंदा रहता है। वह तो बस ऐसे ही हैं। उन्हें देखकर मुस्लिम-आलिम आपस में ऐसी ही बातें किया करते थे। ऐसा पहुँचा हुआ संत-फकीर तो पहले कभी देखने में ही नहीं आया। कैसी शक्ति है, उसकी तपस्या में। रोते हुए लोग उसके पास आकर हँसते हुए वापस जाते हैं। यह सामान्य जनता का अभिमत था।

ये मस्त फकीर वायजीद थे, जो नगर के बाहर कहीं भी पड़े रहते थे। जाड़े के दिनों में मैदान में ही सो गए, तो तन-बदन की सुधि नहीं। बगीचे की बुढ़िया अपनी ममता कुछ फटे-पुराने चिथड़ों के रूप में ढक दे तो ठीक, अन्यथा वह तो सबसे निरपेक्ष अपने ही आप में खोए रहते। कोई कुछ प्यार से दे गया, तो खा लिया, अन्यथा उन्हें कभी यह भी विचार न आता कि मानव शरीर को स्थिर रखने के लिए भोजन नाम की वस्तु की भी आवश्यकता होती है।

उनकी यह आत्मनिमग्नता भंग होती तो बस अग्निदत्त शास्त्री के सामने। शास्त्री जी नगर के जाने-माने विद्वान् ही नहीं, उच्चकोटि के साधक भी थे। गंभीर तत्त्वालोचना उनके लिए शास्त्रीय विषयवस्तु से कहीं अधिक आत्म-प्रत्यक्ष थी। इनके सामने ही वायजीद को संजीदा होते देखा जाता था। इन्हीं के साथ वह धर्म से संबंधित गूढ़ तत्त्वों पर खुलकर बातें करते। घंटों चर्चा परिचर्चा होती रहती। जो उन्हें अपनी गहन साधनाओं से प्रत्यक्ष हुआ, उसे वह अपनी दलीलों के साथ सामने रखते और जो शास्त्री जी कहते उसे समझने, समझकर पचाने-आत्मसात् करने का प्रयत्न करते।

जब ईश्वर, जीव एवं प्रकृति पर चर्चा की त्रिवेणी बहती, तो दोनों व्यक्ति घंटों संसार और साँसारिकता के अस्तित्व को भुलाकर किसी दूसरी दुनिया में विचरण करने लगते। सृष्टि व जीवन के गूढ़ तत्त्वों में खोए रहते। उलझे भावों की ग्रंथियों को खोलते रहते। टूटे विचारों की श्रृंखला जोड़ते रहते।

नगर निवासी आते। जो इस गंभीर चर्चा में रुचि रखते, वे इन दोनों की बातों में आनंद सुधा का रस अनुभव करते और जो इन गूढ़-गंभीर तत्त्वों को समझ न पाते, वे बस श्रद्धा से शीश झुकाए बैठे रहते। बच्चे बार-बार अपने शाह बाबा के चरण छू जाते। फलों का अंबार श्रद्धालु जन उनके सामने रखते जाते, बच्चे वह प्रसाद भी पा जाते। यदा-कदा कोई व्यक्ति प्रार्थना रूप में कुछ वाक्य कहकर उनकी बातों में व्यवधान भी बन जाता।

अच्छा होगा ............. वह सब अच्छा करेगा!! शाह वायजीद प्रार्थी की ओर देखे बिना ही आकाश की ओर हाथ उठाकर कह देते। सामने रखे फलों को बच्चों में बाँट देते। उनमें से जो बचे रहते, उन्हें वयस्कों को दे देते। अपने लिए कुछ न रखते। उन्हें उस सर्वशक्तिमान् में विश्वास था। संचय के द्वारा वह उसकी शक्तिमत्ता को लघु नहीं बनाना चाहते थे।

फकीर की शोहरत तो दूर-दूर तक फैल रही थी। भक्तजन मनौती मनाते। उनके स्थान पर उर्स-मेलों का आयोजन करते। बाजे बजवाते, तवर्रुख बाँटते, गाते-नाचते, किंतु शाह साहब तो दूसरी दुनिया के शाह थे। ये सब बातें तो उन्हें बच्चों की बातें जैसी लगतीं। वे इन सब प्रदर्शनों पर ध्यान नहीं देते, निरपेक्ष रहते।

वही सब कुछ करता है। वही सबसे बड़ा है। वही है, वही है। ईश्वर का प्रसंग आने पर वायजीद ने कहा, अल्ला हो अकबर और फिर कोई अरबी की आयत पड़ी। वह अरबी-फारसी आदि कई भाषाओं के आलिम थे, संस्कृत के भी ज्ञाता। श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होने पर भी संसार के वैभव से विरक्त होकर उन्होंने गृहत्याग कर दिया था और अब तो तप-त्याग में इतने आगे पहुँच गए थे कि जाति-भेद तो दूर रहा, उन्हें अपनी ही देह की सुधि नहीं रहती थी।

“वह श्रेष्ठ है, सर्वशक्तिमान् है, किंतु यह क्या है? कौन है? इस पर भी क्या कभी विचार किया?” अग्निदत्त शास्त्री ने प्रश्न किया। वह है। वह सब कुछ है। उसकी शक्ति की क्या कोई शक्ल है? शक्ति तो ज्योति है, नूर हैं। वायजीद ने अपनी श्रद्धा को स्पष्ट किया वह सर्वशक्तिमान् अल्लाह ही परब्रह्म है। उसी की ज्योति सृष्टि के कण कण में व्याप्त है। उसी विराट् का अंश हैं हम जीवात्मा। सृष्टि के समस्त भूत प्राणी। वह सागर है, तो हम बिंदु हैं। बिंदुओं से मिलकर सागर बना है। बिंदु सागर का ही लघु रूप है। अद्वैतवादी दार्शनिक अग्निदत्त ने विराट् और क्षुद्र की व्याख्या की। अपनी मान्यता को वाणी का रूप दिया।

तो शास्त्री जी........शाह साहब चुप रह गए। जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहे हों। वे उठकर टहलने लगे। इस तल्लीनता में वे भूल गए कि वे अभी एक विद्वान से वार्त्तालाप कर रहे थे। उन्हें न विद्वान् याद रहे, न उपस्थित अन्य जन। उन्हें तो बस याद रह गया केवल यह वाक्य “ईश्वर अंश जीव अविनाशी।”

फकीर वायजीद टहलते रहे। वे न तो किसी की ओर देख रहे थे और न किसी से कुछ कह रहे थे। वे तो अपने विचारों में ही खो गए थे। खोकर कुछ पा रहे थे। पाकर आनंदित हो रहे थे। आनंद की छटा उनके मुखमंडल पर चमक रही थी। उपस्थितजन उनके दर्शन-लाभ से मुग्ध थे।

थोड़ी देर तब सब लोग उनको एकटक देखते रहे, फिर लोगों की लौकिक भावनाओं ने जोर मारा। एक-एक करके सब लोग उठ गए। एक भी व्यक्ति वहाँ शेष न रह गया। वायजीद टहलते रहे, अकेले।

टहलते-टहलते वे एक वृक्ष के निकट पहुँचे। वे वृक्ष की जड़ के निकट वृक्ष से टिककर बैठ गए। पाँव फैलाकर वहाँ कुछ सोचने लगे। वे सोच रहे थे, “सत्य तो सत्य ही होता है। वह हिंदू कहे या मुसलमान, क्या अंतर पड़ता है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान् है। मैं जीव हूँ, उसका अंश। वह सोने का बहुत बड़ा पुँज, मैं उसका एक छोटा-सा हिस्सा। वह सोना है, मैं भी सोना हूँ।”

मैं सोना हूँ। मैं ब्रह्म हूँ।....अयमात्मा ब्रह्म। अहं ब्रह्मास्मि। मैं अल्लाह हूँ।” वे जोर-जोर से कह उठे, परंतु वहाँ सुनने वाला कोई नहीं था। पूजा-इबादत करने वाला कोई नहीं था।

उनके स्थान पर बड़े सबेरे ही दर्शनार्थियों की भीड़ जमा हो रही थी। हिंदू आते, मुसलमान आते। बच्चे आते, बूढ़े आते। महिलाएँ आतीं, पुरुष आते। भक्ति श्रद्धा से उस महातपस्वी के चरणों में मस्तक नवाते। उनकी वाणी से निकले अमृत से अपनी आत्मा तृप्त करते और अपने भक्ति-विश्वास का फल लौकिक उपलब्धियों के रूप में पाते रहते थे।

फकीर के न सोने का समय निश्चित था और न जगने का। वे तो निर्बंध थे, निर्द्वंद्व थे। न आत्मा पर कोई बंधन था और न शरीर पर। सारी रात जागते रहे, तो कोई अचरज नहीं और सारे दिन सोते रहे, तो कोई नई बात नहीं। फिर भी बहुधा प्रातःकाल का शीतल समीकरण उन्हें अज्ञात प्रेरणा दे देता। वे उठ पड़ते। भले ही बातें करते-करते फिर से अपनी भाव समाधि में खो जाते।

उस दिन शाह के दर्शनार्थी एक बड़ी संख्या में उपस्थित थे। एक ओर शास्त्री अग्निदत्त बैठे थे, जिनके पीछे प्रतिष्ठित हिंदू स्त्री-पुरुषों की भीड़ थी। दूसरी ओर काजी नूर हसन थे, उनके पीछे एक बड़ी तादाद में मुसलमान बैठे थे। सभी शाह के उठने की प्रतीक्षा कर रहे थे। शाह अपनी गहन समाधि में लेटे हुए थे, झोंपड़ी की दीवार की ओर उनका मुख था, संसार की ओर उनकी पीठ थी।

सहसा उनका शरीर गतिशील हुआ। उन्होंने करवट बदली और “मैं वही हूँ! मैं ब्रह्म हूँ!! मैं अल्लाह हूँ!!!” कहते-कहते वे उठ बैठे।

सामने देखा तो लोगों की भीड़ जमा थी। ओ-हो शास्त्री जी, अच्छा काजी जी, आप लोगों को बहुत इंतजार करना पड़ा। और वे उठकर टहलने लगे। काजी ने शास्त्री को देखा और शास्त्री ने काजी को। फिर दोनों ने अपने-अपने पीछे बैठे जनसमुदाय को देखा।

थोड़ी देर बाद वायजीद अपने आसन पर बैठ गए। धर्मचर्चा होती रही। सब तृप्ति का आनंद लेते रहे। थोड़ी देर बाद शाह वायजीद बोले, अच्छा अब हम गुसल करने जाएँगे। जैसे कोई भूली हुई बात शाह साहब को याद आ गई हो। संकेत जानकर सब उठने लगे। शास्त्री जी, काजी जी और सभी उपस्थित जनसमुदाय एक-एक करके वहाँ से बाहर हो गए।

इन सबमें विचारमग्न काजी जी पीछे रह गए। सहसा वह बिना किसी से कुछ कहे लौट पड़े, जैसे कोई वस्तु आश्रम में पड़ी रह गई हो। चार-पाँच अन्य व्यक्ति भी काजी जी की देखा-देखी साथ लौटे। ये सभी आगंतुक जन वापस उसी स्थान पर बैठकर शाह साहब के आने की प्रतीक्षा करने लगे।

क्यों काजी जी, अभी गए नहीं? गुसल से लौटकर फकीर वायजीद ने कहा।

“जी गया था, रास्ते से लौट आया, शाह साहब!” काजी ने सकुचाते हुए कहा। “क्यों कोई खास बात हो गई क्या?” शाह ने वाणी में जिज्ञासा भरकर कहा। “जी बस एक अहम बात पूछने को जी अकुला गया।” काजी ने अपने सवाल के लिए भूमिका बाँधी।

“कहिए! जरूर कहिए।” शाह ने जैसे अभय वचन दिया हो।

“यह जो आपने समाधि से उठते हुए कहा था कि मैं वह हूँ, मैं अल्लाह हूँ...” काजी पूरी बात कहते-कहते रुके।

हैं, शाह चौंके। मैंने यह कहा था कि मैं अल्लाह हूँ। .....उनके मुख पर बालकों की भाँति मुस्कान छा गई।

जी हुजूर, सभी उपस्थितजनों ने एक स्वर में साक्षी दी।

ओह, तब तो बहुत बुरी बात है। परम पिता की शान में ऐसी गुस्ताख़ी? बाप बेटे से हमेशा ही बड़ा होता है। क्या लड़के का यह फर्ज है कि वह अपने बाप की बराबरी करे? ठीक है कि एक दिन वही लड़का अपनी औलाद का बाप बनता है, परंतु बेटा बाप से ही भिड़ जाए, क्या यह सपूत लड़के का फर्ज है? यह तो अहंकार है। तकब्बुर है। पश्चात्ताप के स्वर में शाह वायजीद ने कहा।

कुफ्र है, हुजूरे आली। साहस करके धर्म का पारिभाषिक शब्द काजी ने प्रयोग किया।

बेशक कुफ्र है। लानतुल्ला! यह कसूर सजा के काबिल है, काजी साहब। वायजीद ने आत्मग्लानि के स्वर में कहा।

अब मैं क्या अर्ज करूं हुजूरे आली! अपनी मनचाही मुराद पूरी होते देख काजी अधिक नम्र पड़ गया।

अरे नहीं, तुम क्या कहोगे। मैं खुद कहता हूँ। यह तो बहुत बड़ा कसूर है। इसकी सजा तौबा नहीं, सजाए मौत है, दृढ़ स्वर में वायजीद बोले। हुजूर संशोधन-सा प्रस्तुत करते हुए काजी ने कोई तजबीज पेश करना चाहा।

नहीं हमारा यही फैसला है। लाओ एक तलवार यहाँ रख दो। अब ऐसे अलफाज मेरे मुँह से निकलते ही मेरी गरदन उड़ा दी जाए। फैसला खुद वायजीद ने सुनाया।

एक उपस्थित सैनिक ने सकुचाते हुए अपनी तलवार वायजीद के आसन के निकट रख दी। सब लोग उठकर चल दिए। वायजीद भी विचारमग्न हो गए।

त्लवार वायजीद के आसन के निकट ही रखी रहने लगी। समूचे नगर में इस बात की चर्चा फैल गई कि कुफ्र के वाक्य निकलते ही शाह साहब की गरदन उड़ा दी जाए, यह स्वयं उनकी आज्ञा है।

दर्शनार्थियों का जमघट अब पहले से भी अधिक जुटने लगा। ऐसे त्यागी पुरुष की झाँकी, जो अपने जीवन को सिद्धाँतों के सम्मुख तुच्छ मानता हो, सभी हृदयंगम कर लेना चाहते थे। लोग जुड़ जाते और धर्मचर्चा चलने लगती। वायजीद प्रश्नोत्तर करते, जीवन से बेपरवाह! न उन्हें जीवन से मोह था और न ही मृत्यु का भय। जो समझ में आता, कहने लगते। जब न कहना होता, चुप रह जाते। विचार करना होता, तो आँखें बंद कर लेते।

एक दिन सबेरे-सबेरे नगर निवासी एकत्रित होने लगे। शायद उस दिन कोई पर्व था। ज्ञानीजन आगे बैठे थे, श्रद्धालुजन पीछे। कुछ भेंटादि रखकर सभी अपने-अपने स्थान पर बैठते जा रहे थे।

धर्म की चर्चा चल रही थी। प्रश्नोत्तर, शंका-समाधान। सभी के द्वारा ज्ञान का क्षेत्र विकास को प्राप्त हो रहा था। सहसा शाह वायजीद कुछ विचारने लग गए। विचारते-विचारते वह मौन हो गए। मौन होकर उन्होंने आँखें बंद कर लीं। वे बेसुध से दीवार से टिक गए। पर दीवार से टिके हुए वे सो नहीं रहे थे। वह तो गहन-गंभीर समाधि में डूब चुके थे। उनकी आत्मचेतना परमात्मचेतना में निमग्न हो रही थी। यह एक का एकता में विलय था। शून्य का शून्य में विलय था। सब कुछ तद्रूप एवं तदाकार हो गया था। इस अलौकिक भावदशा की अलौकिक आभा शाह वायजीद के मुखमंडल पर भी छा चुकी थी।

इस अलौकिक भावदशा में उनके मुख से बड़े ही अस्फुट स्वरों में कुछ शब्द निकले, मैं देह नहीं, मैं जिस्म नहीं हूँ। मैं इंद्रियाँ और मन भी नहीं। प्राण या चित्त अथवा फिर अहंकार मेरा परिचय नहीं। मैं तो अविनाशी आत्मा हूँ। जो सदा ही परब्रह्म से तदाकार है। “अयमात्मा ब्रह्म।” मैं ब्रह्म हूँ। मैं अल्लाह हूँ। हाँ, मैं वही हूँ। अहं ब्रह्मास्मि।

यह कहते हुए वे आत्मलीन से उठकर टहलने लगे। समूचा जनसमुदाय अब सकते में था।

श्रोताओं ने एक-दूसरे की ओर देखा। काजी के संकेत पर एक युवा सैनिक उठा। आसन के निकट रखी तलवार उसने उठाकर म्यान से निकाल ली थी।

अपने गहन भावों में डूबे शाह की गरदन पर तलवार का एक प्रहार हुआ। तलवार के दो टुकड़े अलग-अलग जा गिरे। एक टुकड़ा निकट के एक पत्थर से जा टकराया।

जोर का झन्न शब्द सुनकर शाह वायजीद की भाव-समाधि टूटी। उन्होंने आँखें खोलीं।

क्या बात है? शाह वायजीद की वाणी मुखर हुई।

कुछ नहीं हुजूर। काजी जी अपने किए पर बेहद शर्मिंदा थे। उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि वह क्या कहें और क्या करें?

हाँ अग्निदत्त शास्त्री अवश्य उपनिषद् का एक मंत्र पढ़ रहे थे-

देह दृष्टा तु दासोऽहमं् जीदृष्टयात्वदंशकाः आत्मदृष्टात्वैवाहम्।

अर्थात् देहदृष्टि से मैं तेरा दास हूँ, जीव दृष्टि से तुम्हारा अंश और आत्मदृष्टि से मैं वही हूँ, जो तुम हो।

बिल्कुल ठीक कहा शास्त्री जी। शाह वायजीद बोले पड़े, अयमात्मा ब्रह्म का यही रहस्य है।


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