अबाबीलों और चमगादड़ों की ऐसी प्रकृति है कि वह जहाँ कहीं भी खाली-परित्यक्त मकान देखते, वहीं अपना अड्डा जमा लेते हैं, जैसे वह उन्हीं के लिए निर्मित हुए हों। इस प्रकार की प्रवृत्ति मृतात्माओं में भी देखी जाती है। वे हीन मनोबल वालों या मृत देहों में ऐसे प्रवेश कर जाती हैं, मानो वे उनके ही घोंसले हों।
इस तरह की घटनाएँ प्रकाश में आती रहती हैं। एक प्रसंग मेलबोर्न का है। ‘दि माइंड्स ऑफ बिली मिलिगन’ नामक कृति में इसका वर्णन करते हुए डेनियल की लिखते हैं कि एक बार बिली मिलिगन नामक एक युवक बलात्कार केस में गिरफ्तार हुआ। पुलिस पूछताछ में ऐसा लगा, जैसे वह मानसिक रोगी हो। अस्तु, उसकी मनःचिकित्सकों से जाँच करवाई गई। वहाँ मामला कुछ और निकला। पड़ताल में उसे बहुव्यक्तित्व वाला आदमी घोषित किया गया। उसकी देह में तेईस आत्माओं का कब्जा था। उनमें से एक आत्मा यूगोस्लाव थी, जो सर्बो क्रोट भाषा बोलती थी। मिलिगन ने जीवन में कभी यह भाषा नहीं सीखी थी, परंतु जब वह उक्त आत्मा के अधीन होता, तो वह यह भाषा धाराप्रवाह बोलता। सब इसे सुनकर अचरज करते। उसके शरीर में एक अन्य लेस्बियन आत्मा का निवास था। मिलिगन ने बलात्कार का जो अपराध किया था, वह इसी के वश में आकर किया था। यों मिलिगन की मूल सत्ता एकदम सरल प्रकृति की और सदाचार पसंद थी।
विविध व्यक्तित्व संबंधी एक अन्य घटना का बखान करते हुए फ्लोरा रीटा स्क्रीबर अपनी पुस्तक ‘दि डिवाइडेड सेल्फ’ में लिखती हैं कि कई बार इस तरह के अनेकानेक व्यक्तित्व किसी आदमी के अंदर से तब उभरकर सामने आते हैं, जब बचपन या यौवन में उसके साथ कोई अप्रिय प्रसंग घटित हुआ हो। वे लिखती हैं कि ऐसे अनेक पुरुषों और महिलाओं के अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि इन घटनाक्रमों से वे हीन भावना का शिकार हो जाते हैं, उनका मनोबल बुरी तरह टूट जाता है, वे आत्मविश्वास की कमी अनुभव करने लगते हैं। यही बाहरी सत्ताओं के प्रवेश की अनुकूल अवस्था है। उनका मत है कि ऐसे ही अधिकाँश शरीरों में बाहरी आत्माओं का निवास होता है। अपने उक्त ग्रंथ में उनने एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख किया है, जिसके चौदह व्यक्तित्व थे। उसमें एक साथ चौदह सत्ताओं का आधिपत्य था। सब बारी-बारी से उस पर अधिकार जमाती और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के उपराँत निष्क्रिय हो जातीं। वह बताती हैं कि इन चौदह आत्माओं में से एक आत्मा किसी साहित्यकार की थी। इसके अतिरिक्त चित्रकार, संगीतकार, भवन निर्माता, कृषक, इंजीनियर एवं प्राध्यापक जैसी सत्ताएँ उनमें सम्मिलित थीं। रोचक बात यह थी कि जब कोई आत्मा उसमें अभिव्यक्त होती, तो वह अपना काम पूर्ण करके ही विराम लेती थी। एक बार कृषक आत्मा ने उस पर लंबे समय तक अधिकार जमाए रखा। इस दौरान उसे खेती विषयक बात के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता। वह खेती के तरीकों और बारीकियों पर ही बातें किया करता। जब तक यह सत्ता उस पर हावी रही, कृषि करता रहा। संबंधियों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य होता कि जिस व्यक्ति को खेती संबंधी तनिक भी ज्ञान नहीं और जिसे इसमें थोड़ी भी रुचि नहीं, वह अचानक इसमें कैसे रस लेने लगा और उसे इतनी सूक्ष्म जानकारी अकस्मात् कहाँ से आ गई? चित्रकार आत्मा जब उस देह में सक्रिय हुई, तो वह उच्चकोटि के चित्र और पेंटिंग बनाने लगा। कभी वह भवन निर्माण का विशेषज्ञों जैसा कार्य करने लगता, तो यदा-कदा ऐसे विद्वत्तपूर्ण निबंध लिख डालता, जिसकी उस जैसे साधारण ज्ञान वाले व्यक्ति से कल्पना नहीं की जा सकती। कुल मिलाकर उसका जीवन बड़ा ही कठिनाई पूर्ण रहा। वह जब तक जीवित रहा, इनसे मुक्ति नहीं पा सका। उसकी सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि वह अपने हिसाब से उनका कभी भी उपयोग नहीं कर सका। इसके विपरीत वह उनके वशवर्ती बना रहा और उन्हीं की इच्छानुवर्ती कार्य करता रहा। उल्लेखनीय बात यह थी कि वह समस्त सत्ताएँ एक परिवार की तरह उस शरीर में रहती थीं। जब ई.ई.जी. लिया गया, तो आश्चर्यजनक ढंग से उसकी तरंगीय गतिविधियाँ भिन्न-भिन्न थीं। एक मस्तिष्क में अनेक ‘ब्रेन पैटर्न्स’ सह चिकित्सा जगत् के लिए एक अजूबा था, कारण कि मस्तिष्कीय शैली भी ‘फिंगर प्रिंट’ की तरह बिलकुल व्यक्तिगत होती है और एक का मस्तिष्कीय नमूना दूसरे से सर्वथा पृथक् होता है। वैज्ञानिक इस गुत्थी को अंत तक नहीं सुलझा सके और यही कहते रहे कि चिकित्सा विज्ञान के लिए यह मामला एक गूढ़ रहस्य है।
भारतीय दर्शन इस तथ्य को स्वीकारता है कि देहरहित सत्ताएँ दूसरे के शरीरों को अपना माध्यम बनाकर ऐसे-ऐसे क्रिया कृत्य कर सकती हैं, जो सामने वाले को अचंभे में डाल दे। प्रेत, पिशाच, जिन्न जैसी निकृष्ट स्तर की आत्माएँ तो बदले की भावना से प्रेरित रहती हैं। वे न तो स्वयं चैन से रहती हैं, न औरों को शाँतिपूर्वक रहने देती हैं। जिस शरीर को आधार बनाती हैं, उसके जीवन को नारकीय बनाकर रख देती हैं। उनका मुख्य प्रयोजन ही सताना होता है। इसके विपरीत यदि उच्चस्तरीय आत्माओं को कभी ऐसी भूमिकाओं में संलग्न होने की जरूरत पड़ी, तो उनका रुख पूरी तरह सहयोगात्मक ही होता है। दूसरों को ऊँचा उठाना, आगे बढ़ाना और मार्गदर्शन करना ही इसके पीछे का प्रधान लक्ष्य होता है। शरीर में रहते हुए भी वे परोपकारवृत्ति में निरत रहती हैं और शरीर छूटने के उपराँत भी उसकी मनःस्थिति वैसी ही पवित्र बनी रहती है, जबकि विक्षुब्ध आत्माएँ जीते-जी अशाँत बनी रहती हैं और मरकर भी उस मनोदशा से उबर नहीं पातीं। इस संसार में इस स्तर की कितनी ही सूक्ष्म सत्ताएँ मौजूद हैं। डाकिनी, शाकिनी, हाकिनी, राकिनी, ब्रह्मराक्षस, बेताल आदि इसी श्रेणी में आते हैं। तंत्र शास्त्र की संपूर्ण नींव इन्हीं पर टिकी है। अभिचार, कृत्या, घात, मूठ, चौकी जैसी ताँत्रिक क्रियाओं के माध्यम से जब इन शक्तियों को किन्हीं लक्ष्यों पर प्रक्षेपित किया जाता है, तो वह आज्ञाकारी सेवक की तरह अपने कार्य संपादन में लग जाती हैं। इसे कोरा बकवास नहीं, सुस्थापित तथ्य कहना चाहिए। समय-समय पर इसके उदाहरण सामने आते ही रहते हैं।
ऐसे ही एक प्रकरण की चर्चा करते हुए मार्क्स फ्रीडम लाँडग अपनी पुस्तक ‘दि सीक्रेट साइंस बिहाइंड मिरैकल्स’ में लिखते हैं कि सन् 1917 में वे जब पहली बार एक अध्यापक के रूप में हवाई द्वीप गए, तो वहाँ के मूल ‘हुना’ धर्म की उन्हें जानकारी मिली। इसमें मृत्युदायक प्रार्थना की एक बहुचर्चित प्रथा है, जो तब आम थी। जब किसी पर इस प्राणघातक प्रार्थना का प्रयोग किया जाता है, तो सर्वप्रथम उसके पैरों में एक चुभन का अनुभव होता, जो बाद में सुन्न में परिवर्तित होकर पाँवों को चेतनाशून्य बना देती है। पीछे यह सुन्नता पैरों से ऊपर की ओर बढ़ते हुए संपूर्ण काया को अपना शिकार बना लेती है। इसके उपराँत उस व्यक्ति की मौत हो जाती है। सुनने में यह बात बेतुकी प्रतीत हो सकती है, पर जब मैक्स ने होनेलूलू के क्वीनस अस्पताल में इसकी पड़ताल की, तो उन्हें ज्ञात हुआ कि वहाँ इस प्रकार के मरीज प्रतिवर्ष एक, दो या कभी-कभी अधिक की संख्या में आ जाते हैं। उन्हें अच्छी-से-अच्छी चिकित्सकीय सेवाएँ देने के बावजूद भी डॉक्टर किसी को भी बचा पाने में अब तक सफल नहीं हो सके हैं। जानकार लोग इसका कारण उस शैतान सत्ता को बताते हैं, जिसे ऐसा करने के लिए ही प्रेरित प्रक्षेपित किया जाता है। एक बार वहाँ का एक मंत्री इस विद्या के विशेषज्ञ ‘काहुना’ के कुचक्र में पड़ गया। उसने अपनी काहुना विद्या का प्रयोग कर उसके साथी मंत्रियों को एक-एक कर मारना शुरू किया। इससे परेशान होकर उस मंत्री ने स्वयं इसे सीखा और उस काहुना पर इसका प्रयोग कर उसे मार डाला। यह सारा प्रसंग मंत्री की डायरी से मैक्स को विदित हुआ।
विलियम टफ्ट्स ब्रायघम नामक एक डॉक्टर उक्त विद्या पर काफी खोज-अध्ययन किया है। इसमें उस घटना का भी उल्लेख है कि किस प्रकार उनके साथ रहने वाला एक स्थानीय बालक इसकी चपेट में आया और कैसे डॉ. ब्रायघम ने उसे मौत के मुँह से बाहर निकाला। घटनाक्रम का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि एक बार वे उस लड़के के साथ एक पर्वत पर कुछ खोजबीन के लिए जा रहे थे, तभी उसने पाँवों में सुन्नता की शिकायत की। स्पष्ट था, वह मृत्युदायी प्रार्थना का शिकार हो चुका था। पूछताछ से ज्ञात हुआ कि वहाँ के स्थानीय काहुना ने उसे किसी गोरे के साथ काम न करने की चेतावनी दी थी और इसकी उपेक्षा करने पर मृत्यु की सुनिश्चित संभावना भी प्रकट की थी। बाद में बालक इस बात को भूल गया। आज उसी का परिणाम उसे भुगतना पड़ रहा था।
बालक की इस आकस्मिक विपत्ति का दोषी ब्रायघम स्वयं को मान रहे थे, अतएव उसे बचाने का उपाय करना भी उसका कर्त्तव्य है, यह सोचकर वह उस बालक पर झुक गए और उक्त आत्मा को संबोधित कर कहने लगे कि यह लड़का निर्दोष है। इसकी कोई गलती नहीं। आप दयावान् और कृपालु हैं। निर्दोषों की रक्षा करना आपका धर्म है। दोषी तो वास्तव में वह काहुना है, जिसने भ्रमित कर आपको यहाँ भेजा। आप, जो इस कार्य का वास्तविक अपराधी है, वहीं जाएँ और इस बालक को मुक्त कर दें।
इस प्रकार लगभग एक घंटे तक प्रार्थना करने के उपराँत उस आत्मा ने बालक को अपने चंगुल से आजाद कर दिया। अब वह पूर्ववत् स्थिति में आ गया। उसे एक बार फिर अपने पाँवों की अनुभूति होने लगी, सुन्नता समाप्त हो गई। वह सामान्य ढंग से चलने-फिरने में पुनः समर्थ हो गया। पहाड़ से लौटकर ब्रायघम ने जब उसके गाँव में उक्त काहुना का पता लगाया, तो ज्ञात हुआ कि आज ही उसकी मृत्यु हो गई। मरने से पहले उसने गाँव वालों को बताया कि वह गोरा व्यक्ति मृत्युदायी आत्मा को उसकी ओर वापस लौटाने में सफल हो गया। चूँकि वह इससे बचने के लिए कोई आवश्यक कदम नहीं उठा सका, अतः उसे इसका नतीजा अब भोगना ही पड़ेगा। इसके कुछ घंटे पश्चात् उसमें मृत्युदायी प्रार्थना के असर के लक्षण उभरने लगे और उसकी मौत हो गई।
यह एक प्रकार का ताँत्रिक अभिचार हुआ। इसमें वशवर्ती आत्माओं को निश्चित निर्देशों का पालन करना पड़ता है। जैसी आज्ञा हुई, उसी अनुरूप कार्य करते हुए वे लक्ष्यपूर्ति करती हैं। इसमें ननुनच करने या अनख दिखाने जैसी छूट उन्हें नहीं होती। वे एक तरह की गुलाम होती हैं और आदेशों का परिपालन उनकी मजबूरी।
किंतु जो आत्माएँ स्वेच्छा से किसी कलेवर में प्रवेश करती हैं, वे उसके जीवन से छेड़छाड़ और हास-परिहास तो करती हैं, पर प्राणहरण जैसी नौबत नहीं आने देतीं। ऐसी ही एक घटना का वर्णन काँलिन विल्सन अपने ग्रंथ ‘बियोण्ड दि अकल्ट’ में करते हैं। प्रसंग मैरी रीनोल्ड्स नामक एक लड़की का है। एक प्रातः जब वह सोकर उठी, तो वह अपनी संपूर्ण स्मृति खो चुकी थी। अब वह एक नवजात शिशु की तरह थी। उसकी काया भले ही एक किशोरी की थी, पर मानसिक स्तर शिशुओं जैसा अविकसित। उसे बोलना फिर से सीखना पड़ा। व्यवहार-बर्ताव की भी उसको शिक्षा देनी पड़ी। पाँच सप्ताह बाद वास्तविक मैरी फिर से उस शरीर में प्रकट हुई। उसे इस दौरान की किसी भी गतिविधि की जानकारी नहीं थी। संपूर्ण जीवन बारी-बारी से दोनों मैरी उस देह में इसी तरह आती-जाती रहीं। उसके माता-पिता इस संबंध में कभी भी आश्वस्त नहीं हो सके कि रात सोकर सुबह उठने वाली मैरी कौन होगी, वही या दूसरी? दोनों के स्वभाव एक-दूसरे के विपरीत थे, इसलिए उनकी पहचान आसानी से हो जाती थी। मूल मैरी एक सुस्त किस्म की लड़की थी, जो अक्सर अवसाद में चली जाती। इसके विपरीत दूसरी मैरी चंचल और शैतान थी। प्रथम मैरी को प्रकृति से कोई लगाव नहीं था, दूसरी मैरी इसका भरपूर आनंद उठाती।
मिलती-जुलती एक अन्य घटना कैलीफोर्निया की एक अट्ठाइस वर्षीया युवती की है। वह भी मैरी रीनोल्ड्स की ही तरह चार वर्ष की अवस्था से व्यक्तित्व परिवर्तन की शिकार थी; किंतु यहाँ एक अद्भुतता यह थी कि यह परिवर्तन नियमित रूप से हर चौथे वर्ष ही घटित होता था, किसी अन्य वर्ष नहीं। दोनों सत्ताएँ एक-दूसरे से अनभिज्ञ थीं। एक जब शरीर में होती, तो दूसरी को उस अवधि की घटनाओं की बिलकुल ही जानकारी नहीं होती।
जब वह चार वर्ष की थी, तो प्रथम बार उसकी देह पर दूसरी सत्ता ने अधिकार जमाया। फिर वह आठ वर्ष की उम्र में जगी। इस मध्य मूल सत्ता सुषुप्त बनी रही, इसलिए उसे इस कालक्रम का कोई ज्ञान नहीं। बारह वर्ष की आयु में वह पुनः तंद्रा की दशा में चली गई और बाहरी सत्त फिर से सक्रिय हो उठी। जब वह इस मूर्च्छा से जगी, तो सोलह साल की हो चुकी थी। यहाँ भी वास्तविक सत्ता शाँत और दब्बू प्रकृति की थी, जबकि उस पर कब्जा जमाने वाला बाहरी अस्तित्व आक्रामक था।
इससे छुटकारा दिलाने के लिए उसे सम्मोहित किया गया। सम्मोहनकर्त्ता ने बाहरी सत्ता को शरीर छोड़ देने की आज्ञा दी, पर इसका कोई असर नहीं हुआ। तब उसने दोनों व्यक्तित्वों को मिलकर एक हो जाने की सलाह दी। इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला। एक दिन युवती सम्मोहन क्रम में गहन मूर्च्छा की स्थिति में चली गई। इसी समय एक तीसरा नर स्वर उसके भीतर से उभरा। वह स्वयं को उन दोनों का अभिभावक बता रहा था। उसे दोनों के बारे में संपूर्ण जानकारी थी। उसने यह भी कहा कि दोनों दो भिन्न सत्ताएँ हैं और एक ही शरीर का उपयोग कर रही हैं। सम्मोहनकर्त्ता के यह कहने पर कि यदि दूसरी सत्ता ने शरीर नहीं त्यागा, तो वह लड़की को आजीवन सम्मोहन की अवस्था में बनाए रखेगा, उसने जवाब दिया कि तब वह दूसरी सत्ता सहित मूल सत्ता को भी वापस खींच लेगा और उसकी निष्प्राण देह ही शेष पड़ी रहेगी। हारकर उसे उसकी स्थिति पर छोड़ देना पड़ा। वह अंत तक दोहरे व्यक्तित्व वाला जीवन जीती रही।
व्यक्तित्व यदि दब्बू हो, वह मनोबल की दृष्टि से कमजोर हो तथा जीवन के संघर्षों से पराजित हो चुका हो, तो उस पर कोई भी हावी हो जाता है। अतृप्त आत्माएँ भी ऐसे ही शरीरों पर सवार होतीं और अपनी आकाँक्षाएँ पूरी करती हैं। दबंग आदमी से हर कोई डरता है। इसके लिए उसे ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ती। उसकी निर्भीकता ही सामने वाले को यह आभास दे जाती है कि यहाँ टकराना खतरे से खाली नहीं है और वह किनारा कर लेता है। उसके लिए यही सरल और सुरक्षित है। हमारे लिए उचित यह है कि हम अपने अंतस् को बलवान बनाएँ और जीवन-संघर्ष को यह मानकर चलें कि वह टक्कर मार-मारकर घूँसों को मजबूत बनाने जैसा अभ्यास है। उसमें सबलता ही बढ़ेगी। ऐसी स्थिति में निर्बलों को न 222 तंग कर सकेंगी, न मनुष्य ही।