जड़ें ठीक हो तो व्याधियाँ आए क्यों

March 2001

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शरीर मन-मस्तिष्क का आज्ञाकारी सेवक है। दोनों आपस में अविच्छिन्न रूप से गुँथे हुए हैं। शरीर रोगी होता है, तो मस्तिष्क बेचैन-अशाँत पाया जाता है, नींद नहीं आती और सिर पर भारीपन छा जाता है। यही बात मन पर विपत्ति आने पर शरीर की दुर्दशा होने के संबंध में है। क्रोध में आँखें लाल हो जाती हैं, होंठ काँपने लगते हैं, शरीर आवेश से भर जाता है। भय की स्थिति में गला सूखता है, पैर काँपते हैं; रोंएं खड़े हो जाते हैं और गहरी साँसें चलने लगती हैं।

कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। यह कथन आरोग्य का महत्त्व समझाने की दृष्टि से कहा गया है; पर वास्तविकता इससे भिन्न है। विशेषज्ञ बताते हैं कि मन के स्वस्थ रहने पर ही शरीर स्वस्थ रह सकता है।

शरीर का सामान्य कार्य भोजन से चलता दीखता है, पर उसके साथ यह शर्त जुड़ी हुई है कि वह पच सके तो, अन्यथा अपच रहने की स्थिति में खाया हुआ भोजन विषतुल्य हो जाता है। वह सड़ता है, गैसें बनाता है और वे रक्त में मिलकर समूचे शरीर में घूमती हैं और जहाँ कहीं भी उन्हें अवसर दीखता है, वहाँ रुककर रोग खड़ा कर देती हैं।

अपच का एक कारण अधिक मात्रा में अभक्ष्य भक्षण करना है, किंतु दूसरा कारण है, मुख, आमाशय, जिगर, आँत आदि से उचित स्तर का, उचित मात्रा में पाचक रसों का स्राव न होना। इस स्थिति में सात्विक और स्वल्प मात्रा में खाया हुआ भोजन भी नहीं पचता। अपच का कोई भी कारण क्यों न हो, वह दुर्बलता और रुग्णता का निमित्त कारण बनता है। यह स्राव मानसिक स्थिति अस्त−व्यस्त होने की दशा में मात्रा में स्वल्प और स्तर के हिसाब से घटिया निकलते हैं। इनके कारण आहार पोषक न रहकर शोषक बन जाता है।

शरीर-पोषण में शुद्ध रक्त की जितनी भूमिका है, उससे भी अधिक उस विद्युत् प्रवाह की है, जो नाड़ी तंतुओं में निरंतर दौड़ता रहता है, जिसका उद्गम केंद्र मस्तिष्क है। यह नाड़ी तंतु जीव कोशिकाओं को गति भी देते हैं और पोषण भी। इसमें कमी पड़ जाने से भीतरी अवयवों की गतिशीलता शिथिल पड़ जाती है। अंदर का खोखलापन बाहर भी आता है। शरीर की क्रियाशक्ति घट जाती है और स्वास्थ्य-संतुलन लड़खड़ाने लगता है। इतने पर भी काम तो करना ही पड़ता है। नित्यकर्म से निपटने, भोजन करने आदि तक में श्रम पड़ता है। न्यूनाधिक मात्रा में चलना-फिरना तो पड़ता ही है। हाथ भी चलते ही हैं। श्रम के बिना शरीर की पाचन और मल-विसर्जन प्रक्रिया काम कैसे करे? यह तो सामान्य दिनचर्या की बात हुई। काम इतने से भी नहीं चलता। आजीविका उपार्जन के लिए भी काम करना पड़ता है और उसमें शारीरिक एवं मानसिक क्षमता लगती है। इस खरच का संतुलन यदि उत्पादन के साथ न बैठे, तो शरीर गलता और घिसता जाएगा, फलतः रोग दबोच लेंगे और अकाल मृत्यु असमय ही आ धमकेगी।

रक्त पेट में भोजन पर पैदा होता है। गुरदों, आँतों और फेफड़ों द्वारा उसका परिशोधन होता है। हृदय द्वारा नाड़ियों के माध्यम से उसे अंग-अवयवों तक पहुँचाया जाता है। हृदय देखने भर में स्वसंचालित प्रतीत होता है, पर वास्तविकता यह है कि अन्य अवयवों की भाँति हृदय को भी जिस क्षमता की आवश्यकता होती है, वह मस्तिष्क रूपी बिजलीघर में उत्पन्न होती है एवं मेरुदंड के साथ जुड़े हुए अनेक नाड़ी तंतुओं और गुच्छकों द्वारा पहुँचती है।

कुछ दिन एकाँत में रहकर यह साधना करनी चाहिए कि संसारभर में जो कुछ है ईश्वर का है। मैं तो वस्तुओं या प्राणियों का उपयोग उनकी इच्छानुसार किया करूंगा।

यह विद्युत् प्रवाह कितना अद्भुत और आश्चर्यजनक है, इसकी जानकारी अंतःस्रावी ग्रंथियों और उनके द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले हारमोनों का निरीक्षण-परीक्षण करने पर पता चलता है। प्रजनन माध्यम से वंशवृद्धि और तात्कालिक सरस संवेदनाओं में जिन ‘जीन्स’ का हस्तक्षेप होता है, उनकी संरचना एवं क्रियापद्धति और भी अद्भुत है। इन्हें अपने प्रयोजन के अनुरूप जो सामर्थ्य मिलती है, वह भी मेरुदंड के माध्यम से मस्तिष्क द्वारा प्रेरित होती है। जिस प्रकार मशीन के पुरजों को रगड़ द्वारा जलने-घिसने से बचाने के लिए उनमें मोबिल ऑयल की चिकनाई डालते रहना पड़ता है, उसी प्रकार रक्त, माँस, मज्जा आदि द्वारा एक सामान्य प्रयोजन की पूर्ति भर होती है। कारखानों में लगी मशीनों को चलाने के लिए जिस शक्ति की आवश्यकता पड़ती है, वह तो जेनरेटर या इंजन से प्राप्त होती है। यह जेनरेटर मस्तिष्क ही है। वही है जो सोचने-विचारने के अतिरिक्त विद्युत् उत्पादन का भी केंद्र है। यह ऊर्जा उसे ब्रह्माँडव्यापी ऊर्जा से प्राप्त होती रहती है। इसीलिए मस्तिष्क को ब्रह्माँडीय शक्ति खींचते रहने वाले पृथ्वी के ध्रुव केंद्र के समतुल्य माना जाता है।

पुराने जमाने में रोगों का कारण वात, पित्त, कफ से, लवणों या रसायनों के कम पड़ने से तथा विषाणुओं के आक्रमण पर निर्भर माना जाता था और तदनुसार उपचार-साधनों के रूप में औषधियों का निर्माण और उपभोग किया जाता था। नवीनतम वैज्ञानिक खोजों ने यह माना है कि रोगों की जड़ मनोविकारों में है। मानसिक असंतुलन ही चित्र-विचित्र आकार-प्रकार वाली बीमारियों का प्रमुख कारण है। अन्य कारण तो सहायक मात्र हैं। मानसिक तनाव या विक्षोभ ही रोगों के मूल उत्पादक हैं। इसलिए आधुनिक चिकित्सक आहार-विहार की सामान्य खामियों के अतिरिक्त रोगी की मनोदशा का विवेचन-विश्लेषण करते हैं और उस क्षेत्र की विकृतियों को सुधारने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। आवश्यक नहीं कि रोगी होने से पूर्व मनुष्य पागल ही हो जाता हो। पागलपन की हलकी-फुलकी इतनी शाखा-प्रशाखाएँ हैं, जिनसे पूरी तरह हम विरले ही बच पाते हैं। चिंता, भय, निराशा, क्रोध, घृणा, आवेश, उद्विग्नता जैसी सनकें भी विक्षिप्तता की ही छोटी बहनें या सहेलियाँ हैं। अनैतिक चिंतन या आचरण मनःक्षेत्र को मथ डालते हैं। आत्मिक प्रेरणा उनसे दूर रहने की प्रेरणा देती है, किंतु उद्धत चिंतन अनाचार ही नहीं, दुराचार और अत्याचार करने तक पर उतारू हो जाता है, फलतः अंतराल में अंतर्द्वंद्व उठ खड़े होते हैं, दुहरा व्यक्तित्व उभरता है। इस असंतुलन के कारण अविवेकी व्यक्ति की मनःस्थिति सनकी एवं उद्धत, अभिमानी जैसी हो जाती है। उस आवेश से सारा शरीर तन जाता है। यह तनाव जिस भी अंग-अवयव को कमजोर पता है, उसी के ऊपर अपना अधिकार जमा लेता है। उत्तेजित तनावों की भाँति हीनता, दीनता, भीरुता, आशंका आदि का भी ऐसा प्रभाव होता है, जिसे ‘अवसाद’ कह सकते हैं। मानसिक स्थिति में किसी पर आवेश छाए रहते हैं, किन्हीं पर अवसाद। इन्हीं ज्वार-भाटों से अस्थिरता उत्पन्न होती है और रोग उभरने की भूमिका बन जाती है।

शरीर की संरचना ऐसी ही है, जो आहार विहार ठीक कर लेने पर छुट पुट आए दिन की गड़बड़ियों से स्वयं निपटती रहती है, किंतु जब जड़ें ही सड़ने गलने लगें, तो पेड़ पौधों का दयनीय स्थिति में दीख पड़ना स्वाभाविक है। मन जड़ है और शरीर उसका कलेवर-आच्छादन। यदि किसी को स्वस्थ, निरोग, बलिष्ठ, दीर्घायु रहना हो, तो एक उपाय अनिवार्य रूप से अपनाना चाहिए कि मस्तिष्क शाँत-संतुलित रहे। यह विचारशील, विवेकवान् और नीतिवान् होने की स्थिति में ही संभव है।


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