प्रवृत्तियों से सम्मान (kahani)

July 2001

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पारसी धर्म के पैगम्बर माने जाने वाले जरथुस्त्र शिक्षा प्राप्त करके विद्वान् बन गए थे। उनके गुरु उनसे न केवल प्रसन्न थे, बल्कि उन्हें शिष्य के रूप में पाकर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करते थे। उनकी सफलताओं से प्रसन्न होकर उनके पिता पौरुषस्प ने उनसे पूछा, “मेरी कौन-सी संपत्ति चाहते हो? माँग लो।”

जरथुस्त्र बोले, “पिता जी, अपना कमरबंद दे दें।”

पौरुषस्प आश्चर्य में पड़ गए, मूल्यवान् संपदाओं को छोड़कर सामान्य कमरबंद माँगा! पूछा, “ऐसा क्यों?”

जरथुस्त्र ने कहा, “आपने जीवन भर आदर्शों के लिए कमर कसकर पुरुषार्थ किया है। शैतान के विरुद्ध देवत्व की सुनिश्चित विजय के अभियान में मुझे लगना है। आपका कमरबंद मेरा आत्मविश्वास बढ़ाता है।”

पिता को विश्वास हो गया। साधनों की अपेक्षा आदर्शों को मूल्यवान समझने वाला यह होनहार बालक अवश्य महान् बनेगा।

राजा बालीक ने किसी बात पर रुष्ट होकर प्रधान अमात्य भद्रजित को पदच्युत कर दिया। सोचा इससे उन्हें प्रताड़ना मिलेगी और होश ठिकाने आएँगे। जनसम्मान के बिना कौन सुखी रह सकता है।

भद्रजित की आदर्शनिष्ठ बुद्धि अडिग रही। प्रेरणा हुई, लोकमंगल के लिए पद नहीं, श्रेष्ठ भावना चाहिए। उन्होंने जनसंपर्क साधा और लोक-सेवा के कार्यों में संलग्न हो गए। सहयोग पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ा। फलतः भद्रजित के सुख-संतोष में भी वृद्धि हो गई।

राजा की इच्छा हुई कि अमात्य को मिली प्रताड़ना का प्रतिफल आँखों से देखें। सो वे छद्म वेश बनाकर वहाँ जा पहुँचे, जहाँ भद्रजित उन दिनों निवास कर रहे थे।

राजा ने देखा, भद्रजित बिलकुल सहज स्थिति में हैं। अभाव का कोई चिह्न नहीं था। कुशल-क्षेम पूछी तथा राज्यपद न रहने की प्रतिक्रिया जाननी चाही। भद्रजित ने कहा, “मेरे ऊपर राजा ने बड़ा उपकार किया। मुझे यह समझने का अवसर मिला कि पद की अपेक्षा अपने कर्म और व्यवहार का प्रभाव कितना अधिक सार्थक होता है। आज मेरे और मेरी आराध्य जनता के बीच केवल स्नेह सूत्र है। पद, प्रतिष्ठा और औपचारिकता की खाई पट चुकी है। सुख-दुःख में एक होने का अवसर मिला। जो आत्मीयता अब अनुभव हुई वह पहले कहाँ थी?”

राजा समझ गए सत्पुरुष पद से नहीं, अपनी देवोपम प्रवृत्तियों से सम्मान पाते हैं।


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